Sunday, June 6, 2010

एक महान नाटक की अकाल मौत

कल रात रंगमंदिर में हबीब तनवीर का नाटक चरणदास चोर खेला गया।
यह एक चोर की कहानी है जो अपने गुरु के आगे सच बोलने का संकल्प ले लेता है और इसे निभाते हुए उसकी जान चली जाती है।
इस कहानी में कई संदेश छिपे हैं। यह कि सच बोलने के साथ खतरे हमेशा जुड़े रहते हैं। सच बोलने वाला सत्ता की आंखों की किरकिरी बन जाता है। लेकिन वह जनता के दिलों में दर्ज हो जाता है। जनता उसे पसंद करती है जो उसके काम आता है।
महान साहित्य की यह पहचान होती है कि बदलता हुआ समय उसकी प्रासंगिकता को प्रभावित नहीं कर पाता। आज आप बस्तर में औद्योगीकरण से जुड़े सवाल उठाना चाहें तो आपको डर लगेगा कि कोई आपको नक्सली न कह दे। चरणदास चोर नाटक देखते हुए आपको लगेगा कि इसे आज सुबह ही किसी ने बस्तर के संदर्भ में लिखा है।
नाटक का एक प्रसंग है जिसमें चरणदास चोर धन की थैली चढ़ावे में चढ़ाता है। पुजारी उससे उसका नाम और पेशा पूछता है। जवाब मिलता है -नाम चरणदास और काम चोरी। पुजारी कहता है- तुम चोर नहीं हो सकते।
आज कितने नेताओं के बारे में जनता यह बात कह सकती है?
यह कथा समाज की छोटी बड़ी विसंगतियों को बहुत खूबी से उजागर करते चलती है। चरणदास का लालची गुरु, चोर को न पकड़ सकने वाला सिपाही, अमानत में खयानत करने वाला सरकारी कर्मचारी- ये सब ऐसे पात्र हैं जिन्हें हम अपने आसपास देख सकते हैं।

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लेकिन यह सब मैं अपने पिछले अनुभव के आधार पर बता रहा हूं। कल रात अगर मैंने इस नाटक को पहली बार देखा होता तो कुछ भी नहीं बता पाता।
यह एक महान नाटक की हत्या थी। मैं इससे कम कड़ी बात लिख सकता हूं लेकिन जानबूझकर कड़ी बात लिख रहा हूं।
मैंने इस नाटक को टेप रेकॉर्डर पर बचपन में करीब बीस बार सुना होगा। यह आज से तीस पैंतीस साल पहले की बात होगी। हमारे घर इसका एक आडियो टेप था। तब फिदाबाई जैसे कलाकार इसमें थे। हमारा पूरा परिवार इसे एक साथ बैठकर सुनता था। मुझे इस नाटक के संवाद लगभग याद हो गए थे। हम लोग धमतरी में रहते थे जो एक कस्बा था। हम बच्चों को गावों के सांस्कृतिक वैभव का बहुत पता नहीं था। लोक नाट्य की ताकत के बारे में जो जानकारी हमारे पास थी उसमें चरणदास चोर के आडियो कैसेट का महत्वपूर्ण स्थान था। धमतरी में एक बार इसका मंचन भी देखा था।
कल रंगमंदिर में जो नाटक खेला गया वह हबीब तनवीर की स्मृति में आयोजित एक समारोह का पहला नाटक था। अगर मैं चरणदास चोर की पिछली प्रस्तुति से इसकी तुलना न भी करूं तो भी यह निहायत घटिया प्रस्तुति थी। मुझे और मेरी पत्नी को इसका लगभग कोई संवाद समझ में नहीं आया।
यह नाटक खेलने वालों और आयोजकों, दोनों की गलती थी। क्या उनका कोई आदमी दर्शकों के बीच बैठकर इस बात की सूचना नहीं दे सकता था कि संवाद सुनाई नहीं दे रहे हैं? हबीब तनवीर के नाटकों का एक समारोह पहले भी यहां हो चुका है। उसमें खेले गए एक नाटक के साथ भी मेरा यही अनुभव रहा है।
कुछ हिंदी फिल्मों और अमिताभ बच्चन जैसे कुछ कलाकारों से मेरी शिकायत रही है कि उनके संवाद समझ मे नहीं आते। हाल ही में सरकार फिल्म का कुछ हिस्सा देखा। इसमें अमिताभ और अभिषेक ने मानो कसम खा रखी थी कि डायलाग समझ में नहीं आने देंगे।
कुछ रोज पहले टाकीज में मैंने वेक अप सिड देखी। क्या टेक्नोलॉजी थी पता नहीं लेकिन फिल्म का एक एक संवाद समझ में आया और पहली बार मैं टाकीज से इतना गदगद होकर निकला। इसी तरह रायपुर के मुक्ताकाशी मंच में पॉपकॉर्न नाम का नाटक देखा, इसका एक एक संवाद समझ में आया। यह शायद रेकॉर्डेड संवादों पर खेला गया नाटक था।
रंगमंदिर में कल रात जो हुआ उसमें कलाकारों की भी कमजोरी थी और साउंड सिस्टम एकदम फेल था। कुछ कलाकारों में पुराने कलाकारों जैसी गहराई भी नहीं थी, यह मैं टुकड़े टुकड़ों में समझ आ रहे संवादों से महसूस कर सकता था। पर यह तो बाद की बात है।

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जब आयोजक नाटक से बड़े हो जाते हैं तब ऐसा होता है जैसा कल हुआ। चरणदास चोर नाटक के स्टेज पर बैकग्राउंड में हबीब तनवीर स्मृति समारोह का बैनर लगा हु्आ था। चरणदास चोर नाटक के सेट पर इस बैनर का क्या काम?

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दर्शक दीर्घा में कुछ लोग अपने दूध पीते बच्चे लेकर आए थे। उनका अलग नाटक चल रहा था। लेकिन उन पर इतना गुस्सा नहीं आया। उनका बच्चा चुप भी हो जाता तब भी नाटक के संवाद समझ में नहीं आते।

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मैं बहुत संकोची आदमी हूं। और बहुत एडजस्टिव। समय से पहले हॉल में पहुँचता हूं। एक जगह बैठा तो बैठ गया। जगह तलाशने के लिए घूमता नहीं रहता। अपना मोबाइल बहुत पहले से बंद कर लेता हूं। नाटक देखने के दौरान बात नहीं करता। पत्नी से हर बार इसे लेकर विवाद होता है। बीच बीच में खाने पीने के बारे में तो सोच भी नहीं सकता। मगर कल पत्नी बीच में उठकर हाल से गई। पापकार्न लेकर लौटी। मैंने उससे बात की। पॉपकॉर्न भी खाए।

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नाटक खेलने वाले ग्रुप तक हो सके तो कोई मेरी बात पहुंचा दे। आयोजकों से कहना बेकार है। मेरा पिछला अनुभव उनके साथ ठीक नहीं है। वे लोग सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। क्योंकि मैं तो दर्शक हूँ। इसका किस्सा फिर कभी।

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Tuesday, June 1, 2010

इंस्पेक्टर कौन बनना चाहता है

हम लोग आज का काम खत्म करके सांस ले रहे थे। अचानक एक जूनियर सहयोगी ने कहा- एक बड़ी खबर है। अमुक आदमी की बेटी को एक लड़का भगा के ले गया।
व्यक्तिगत रूप से मुझे ऐसी भाषा पसंद नहीं है। ऐसी घटनाओं के बारे में चटखारे लेकर बात करना भी मुझे अच्छा नहीं लगता। क्योंकि बहनें और बेटियां सबकी होती हैं। मेरी भी हैं।
अखबार को चटपटा मसाला चाहिए होता है। ऐसी खबरें मिलने पर मैं अक्सर दुविधा में पड़ जाता हूं। उत्साही रिपोर्टरों से मैं पूछना चाहता हूं- तुम्हारी बहन होती तो खबर कैसी बनाते? खबर बनाते भी कि नहीं?
मगर मेरे मन पर एक और चोट होनी थी। जूनियर ने आगे कहा- रातो रात करोड़पति बन गया साला। उसकी आवाज में अफसोस था। वह अफसोस जो पड़ोसी की लाटरी लग जाने पर होता है।
मेरी चेतना झनझना गई। ये किस तरह की सोच है। ये कैसा रोजगार है। क्या इस नौजवान में जरा भी आत्मगौरव नहीं है? आत्मनिर्भर होने का भाव नहीं है? अपनी मेहनत की कमाई खाने का कोई आग्रह नहीं है?
मैंने उस लड़के से यह सब नहीं कहा। शायद वह मन ही मन कहता- आपने शायद यह मेहनत करके नहीं देखी। वरना फल खा रहे होते।
बहुत पहले वाली आसी का एक शेर सुना था-
किसी आवाज पर ठहरे तो हो जाओगे पत्थर के।कि इस जंगल में चारो ओर जादूगरनियां होंगी।।
मैं अपने सहयोगी से कहना चाहता था कि सट्टे और लाटरी की यह मानसिकता बदलो। मेहनत से कमाओ। सिर उठा के जियो।
फिर मुझे वह लतीफा याद आया- किसी इंस्पेक्टर ने हवलदार से कहा- इतनी मत पिया करो, अपना काम सुधारो तो एक दिन मेरी तरह इंस्पेक्टर बन जाओगे। हवलदार ने कहा- इंस्पेक्टर कौन बनना चाहता है। एक पैग पीने के बाद मैं खुद को आईजी से कम नहीं समझता।
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मैं भी लंगोटी पहन लूं?

छत्तीसगढ़ भाजपा के नए बनाए गए अध्यक्ष रामसेवक पैकरा हांगकांग गए हैं। उनके साथ संगठन महामंत्री रामप्रताप भी गए हैं। टीवी पर समाचार आया कि कुछ दूसरे नेता श्रीलंका जा रहे हैं। मुझे लगता है कि ये दोनों प्रवास छत्तीसगढ़ की प्राथमिकता में नहीं हैं।
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मेरे एक मित्र ने कुछ भाजपा नेताओं से बात की। इनमें से एक नाराज हो गए। उनका कहना था कि मीडिया को किसी के व्यक्तिगत जीवन में नहीं झांकना चाहिए। हर किसी को यात्रा पर जाने का हक है।
मेरा खयाल है कि सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों की कुछ जिम्मेदारियां होती हैं। अगर वह राजनेता है तो समाज को दिशा देता है। डरे हुए समाज को संबल देता है। दुखी समाज को सर टिकाने के लिए अपना कंधा देता है।
मुझे लग रहा है कि भाजपा अध्यक्ष मौज कर रहे हैं। राजनीतिक रिपोर्टिंग करने वाले मेरे मित्रों की राय है कि रामसेवक पैकरा एक डमी अध्यक्ष हैं। पर्दे के पीछे से कुछ प्रभावी नेता फैसले लेंगे। अध्यक्ष का काम होगा उन पर मुहर लगाना। नए अध्यक्ष के लिए ऐसा आदमी ढंूढा गया जिसके विद्रोह करने की संभावना कम से कम हो। इस मापदंड पर पैकरा सबसे काबिल पाए गए। उन्हें और काबिल बना कर रख देने के लिए हांगकांग ले जाया गया है।
अपनी अल्पज्ञता के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं लेकिन मुझे इन बातों पर विश्वास होता है। मुझे वास्तव में कोई वजह नजर नहीं आती जिसके लिए नए भाजपा अध्यक्ष को हांगकांग जाना चाहिए।
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भाजपा की संवेदनहीनता के कुछ उदाहरण मैं देख चुका हूं। जिस दिन बस्तर में नक्सली विस्फोट से सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए थे, भाजपा अपना स्थापना दिवस मना रही थी। एकात्म परिसर में शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने के बाद पार्टी के नेता पार्टी की राजनीतिक उपलब्धियों के बारे में पहले से सोचा गया भाषण दे रहे थे और कार्यकर्ता तालियां बजा रहे थे।
पार्टी के कुछ नेताओं से व्यक्तिगत बातचीत में मैं पाता हूं कि गरीबों और आम जनता के लिए उनके मन में बहुत हिकारत है। वे गरीबों को राशन की दुकान के आगे लाइन लगाए देखना चाहते हैं। उन्हें खुशी होगी अगर सारे वोटर शराब के आदी हो जाएं और मतदान से पहले वाली रात शराब बांटकर उनके वोट खरीद लिए जाएं। ये मेरा कुछ नेताओं के बारे में व्यक्तिगत अनुभव है। और कांग्रेस के कुछ नेताओं को भी मैंने इसी सोच का पाया। यह सत्ता का नशा होता है। आदमी को अपने सिवा कुछ दिखाई नहीं देता। उसकी फिलॉसफी बुश जैसी हो जाती है- या तो आप हमारे साथ हो या सद्दाम के साथ।
राजनीति के बारे में एक और खतरनाक बात का मैं जिक्र करना चाहूंगा। कुछ दिनों पहले मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह व छत्तीसगढ़ के मौजूदा मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर चला था। इससे यह बात सामने आई थी कि नक्सल इलाकों में नक्सलियों से सांठ गांठ कर चुनाव जीते जाते हैं।
तो राजनीति के इस दौर में किसी को भाजपा अध्यक्ष का हांगकांग जाना बुरा न लगे लेकिन मेरे जैसे कुछ लोगों को बुरा लगता है।
गांधी का फलसफा था-जब तक मेरे देश का एक भी आदमी लंगोटी पहनता है, मुझे उससे ज्यादा कपड़े पहनने का हक नहीं है। अभी के नेताओं का फलसफा है- तुम लंगोटी में रह गए हो तो क्या मैं भी लंगोटी पहन लूं?

Sunday, May 23, 2010

पुलिसवालों का स्टिंग

हरियाणा में पुलिस के आला अधिकारियों ने खुद पुलिस थानों के स्टिंग आपरेशन करवाए हैं। यह देखने के लिए कि पुलिसवाले जनता से कैसा व्यवहार करते हैं, उनकी एफआईआर लिखते हैं कि नहीं। जनता से अच्छा बर्ताव नहीं करने वालों को निलंबित किया गया है। बर्ताव अच्छा लेकिन एफआईआर न लिखने वालों को चेतावनी दी गई है। और दोनों काम पक्के से करने वालों को इनाम दिया गया है। ऐसा हर जगह करने की जरूरत है।
पुलिस थानों से जनता की आम शिकायत है कि वहां उनसे ढंग से बात नहीं की जाती, उनकी रिपोर्ट नहीं लिखी जाती, उनसे रिश्वत ली जाती है, पैसे लेकर अपराधियों को बचाया जाता है, बेगुनाहों को सजा दी जाती है। इसे सामने लाने के लिए और कार्रवाई का ठोस आधार बनाने के लिए स्टिंग की जरूरत है। आम पुलिसवालों की तो भाषा तक भ्रष्ट रहती है। इसकी वजहें गिनाई जाती हैं कि अपराधियों से निबटते निबटते उनकी जुबान और व्यवहार ऐसा हो जाता है। फिर काम का तनाव उन्हें चिड़चिड़ा बना देता है। लेकिन यह समस्या तो है। हो सकता है स्टिंग हो तो पुलिस वालों की बहुत सी खामियों के पीछे छिपे कारण सामने आएं, उनकी समस्याएं सामने आएं, उनका भी समाधान हो।
ऐसा और भी विभागों में है। ज्यादातर जगहों पर बैठे हुए लोग रिश्वत के बगैर काम करने के लिए तैयार नहीं हैं। हर आम आदमी किसी न किसी काम से लंबी और भ्रष्ट सरकारी प्रक्रिया से गुजरता है। यह अनुभव भयावह होता है। रिश्ते नाते, सामाजिकता, इंसानियत जैसी चीजों का यहां कोई काम नहीं। इंसान कैसे दूसरे इंसानों को लूटने खसोटने में लगा रहता है, यह इन दफ्तरों में साफ देखा जा सकता है। कुछ अच्छे लोग भी रहते हैं लेकिन वे दबे दबे रहते हैं।
तो इस स्टिंग की जरूरत समाज के सभी वर्गों के लिए है। राजनीति, मीडिया और धर्मगुरुओं तक, सभी का स्टिंग होना चाहिए। राजनीतिक नेतृत्व समाज की दशा और दिशा के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है क्योंकि उसके हाथ में ताकत होती है और देश को चलाने के नियम कायदे वही बनाता है। मीडिया पर जिम्मेदारी है कि वह इस पर नजर रखे। धर्मगुरुओं का भी लगभग यही काम है। और इन सभी वर्गों से शिकायतें आती रहती हैं कि इनमें से बहुतेरे अपनी जिम्मेदारियां ठीक तरह से नहीं निभा रहे हैं।
ये सब समाज के अंधेरे कोने हैं। इनमें झांकने की आम जनता की हिम्मत नहीं पड़ती। कौन पंगा ले इनसे। जब आडिट का डर नहीं रहता तो मनमानी होती है। यही समाज के ताकतवर तबकों के साथ हो रहा है। परदे के पीछे की कहानी परदे के सामने की कहानी से बहुत अलग होती है। धर्मगुरुओं के प्रवचन में कुछ और होता है आश्रमों में कुछ और। मीडिया की छवि ऐसी है कि उसका काम खबरों के जरिए विज्ञापनदाताओं का हित साधना और काले धंधे में अपना हिस्सा तय करवाना हो गया है। वह जनता को सच नहीं बताता। वह ऐसी सामग्री परोसता है जिसे विज्ञापनदाता परोसना चाहते हैं। वह अपराधियों के इंटरव्यू और सट्टे के नंबर तक छापने से नहीं चूकता।
वैसे स्टिंग आपरेशन एक फौरी जरूरत हो सकती है लेकिन यह एक सभ्य तरीका नहीं है। दफ्तरों में जगह जगह लगे सीसी कैमरे भी बताते हैं कि हम एक सभ्य समाज में नहीं रह रहे हैं। क्या किसी को देखे जाने के डर से ईमानदार होना चाहिए। क्या किसी को स्टिंग के डर से मीठी मीठी बातें करनी चाहिए? शातिर लोग तो कुछ दिनों बाद इसका भी तोड़ निकाल लेंगे। आदर्श स्थिति तो यह है कि लोग ईमानदार होने के फायदे देखकर ईमानदारी बरतें। अच्छे व्यवहार के महत्व को समझकर अच्छा व्यवहार करें।
मसलन छत्तीसगढ़ में पुलिस से कहा गया है कि वह खासतौर पर नक्सल प्रभावित इलाकों में जनता से अच्छा व्यवहार करे। जनता का विश्वास पाए बगैर नक्सलियों से नहीं लड़ा जा सकता। आखिर जनता को भी तो समझ में आना चाहिए कि ये लोग उनसे अच्छे हैं?

Tuesday, April 20, 2010

गाँधी का सपना था सुराज...

रायपुर. देश को स्वराज तो मिल गया, अब सुराज आना चाहिए. यह गाँधी जी का सपना था. डॉ. रमन सिंह की सरकार इसे साकार कर रही है. यह बात लोक निर्माण, स्कूल शिक्षा, पर्यटन और संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने आरंग ब्लोक के ग्राम बना में ग्राम सुराज अभियान के दौरान कही. उन्होंने यहाँ ७५ लाख रूपये के काम स्वीकृत किये और कहा- यही सुराज है. उन्होंने कहा कि मुख्यानंत्री के निर्देश पर सरकार खुद चलकर गाँव गाँव में जा रही है. जनता के सामने उसके काम की समीक्षा हो रही है. ग्रामीणों की ज़रूरतों के बारे में जानकारी ली जा रही है. आगे की योजनायें इसी के आधार पर बनेंगी.
१२ पंचायतों का पटवारीबाना में ग्रामीणों ने शिकायत की कि पटवारी गाँव में नहीं आता. पता चला कि उसके जिम्मे १२ पंचायतों का काम है. नाराज ग्रामीणों ने पटवारी को हटाने की मांग की. श्री अग्रवाल ने कहा कि जितना काम हो रहा है, पटवारी को हटाने पर उतना भी नहीं होगा. उन्होंने तहसीलदार से कहा कि इस विसंगति को शीघ्र दूर किया जाये. सरकार दो पंचायतो के पीछे एक पटवारी रखना चाहती है. अधिक से अधिक चार पंचायते हो सकती है. लेकिन एक के जिम्मे १२ पंचायतें देना गलत है.
स्वास्थ्य कार्यकर्ता रोज आयें. स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने बताया कि उसके जिम्मे बाना, बनरसी और गुमा का काम है. वह ८-१० दिन में यहाँ आता है. श्री अग्रवाल ने उसे रोज आने कहा.
सम्बन्ध ठीक होना चाहिए. आँगनबाड़ी कार्यकर्ता के खिलाफ भी ग्रामीणों की नाराजगी सामने आई. बताया गया कि आँगनबाड़ी से गरम खाना नहीं मिलता. श्री अग्रवाल ने कार्यकर्ता से कहा कि काम अगर हो रहा है तो वह दिखना भी चाहिए. आप गाँव के कुछ प्रमुख लोगों को बीच बीच me आँगनबाड़ी में बुलाइए. उन्हें खाना भी खिला दीजिये. इससे उनकी गलतफहमियां दूर हो जाएँगी.
इसी साल बनी टंकी लीकग्रामीणों ने बताया कि बनरसी में इसी साल बनी टंकी लीक हो रही है. श्री अग्रवाल ने इसे ठीक करने के निर्देश दिए. उन्हें बताया गया कि गलत काम करने वाले ठेकेदार को नोटिस दी गयी है.
७५ लाख की सौगातें. श्री अग्रवाल ने ग्रामीणों की मांग पर बनरसी में स्कूल आहाते के लिए २ लाख, गुमा प्राथमिक शाला में दो कमरों के लिए ६ लाख, बाना में आँगनबाड़ी भवन के लिए 3 लाख, बनरसी में राशन और पंचायत भवन के लिए ५ लाख, बाना में सड़क मुरमीकरण के लिए २ लाख, पचरी तालाब गहरीकरण के लिए ६ लाख, सोनाही डबरी तालाब गहरीकरण के लिए ५ लाख, सड़कों के लिए करीब १७ लाख, इस तरह कुल करीब ७५ लाख के कामो की घोषणा की.

Friday, April 16, 2010

हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते

जशपुर के सर्किट हाउस से
सुराज का काफिला जशपुर में दो अलग-अलग जगहों पर ठहरा है । कल सारा दिन तेज धूप में हुई सभाओं के बाद देर रात फुरसत मिली । सुबह देर तक सोने के बाद भी थकान उतर नहीं पाई है । आज यहां से सभाएं लेते हुए मंत्री जी का कारवां अम्बिकापुर तक जायेगा ।
मंत्रियों और उनके साथ चलने वालों के बारे में लोगो की आम धारणा है कि ये लोग भारी ऐशो-आराम के साथ चलते हैं, अच्छा खाते पीते हैं और आराम से सोते हैं । लेकिन बृजमोहन अग्रवाल के साथ चलने का अनुभव इससे एकदम अलग है ।
वे एक प्रभावशाली मंत्री हैं। यह प्रभाव उनके ज्ञान और अनुभव से उपजता है, इसके आगे काम न करने वाले अफसर परास्त हो जाते हैं । उनके साथ पैदल चलना भी कठिन है और उनके सवालों से बच पाना आसान नहीं । वे लगातार सवाल दागते हैं और आपका पूरा रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने आ जाता है । हर सभा में वे लगातार आधे-एक घंटे तक बुलंद आवाज में बोलते हैं । लोगों की फरियादें सुनते हैं । अफसरों से पूछकर उनका तत्काल समाधान करते हैं फिर धान का बोनस, खेती के औजार, नाव-जाल जैसी चीजें  बांटने का लम्बा सिलसिला चलता है । और यह सब 40 के ऊपर  के तापमान पर चलता रहता है । आखिरी सभा कभी रात 12 बजे होती है तो कभी रात दो बजे ।
अगर आप रिपोर्टिंग के लिए साथ चल रहें हैं तो एक दो सभाओं के बाद आपको ऊब होने लगती है और आप  बुरी तरह थक जाते हैं. लेकिन जिसके नेतृत्व में आप चल रहें हैं, वह थकने के लिए तैयार नहीं है । और हाँ , यह कोई बारात नहीं है । इसमें आपका स्वागत नहीं होता। बैठने के लिए कुर्सियां नहीं मिलतीं  और किसी ने पानी के लिए पूछ लिया तो आप इसे सौभाग्य मानियें । खाने की व्यवस्था जरूर होती है लेकिन खाने तक आप कब पहुंचेगें यह तय नहीं होता । इस यात्रा में शामिल लोगों के लिए यह कोई मनोरंजक सफर नहीं है । आपको टोलियां बनाकर हंसी ठ्टठा करने वाले नहीं मिलते । हर कोई बेहद चौकन्ना है कि साहब कब क्या पूछ लेंगे । चार दिनों की यात्रा का अनुभव कहता है कि दूर बैठकर सरकार की कमियां निकालना आसान है, सरकार चलाना आसान नहीं है ।

साहब डांटते हैं, सस्पेण्ड नहीं करते -
मंत्री जी के साथ ऐसी कई यात्राओं में रह चुके लोग अपने अनुभव बांट रहें हैं । इससे उनकी अलग-अलग खूबियों का पता चल रहा है । लोग बताते हैं कि किसी से एक बार मिलने के बाद अगली मुलाकात दो साल बाद भी हो तो इस बात की संभावना रहती है कि वह उसे नाम लेकर बुलाएं । उनकी याददाश्त बहुत तेज है । यह बात तो उन्हें मंच से सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के बारे में बताते हुए देखकर भी पता चलती है । उन्हें लगभग सभी योजनाओं के नाम याद हैं और उनके   प्रावधान भी । उनकी  एक और खूबी का पता चल रहा है कि उनकी  बेहद सख्त मिजाज छवि के भीतर एक धड़कता हुआ दिल भी है और एक दूर तक देखने वाला राजनेता है  जो विनाश में नहीं निर्माण में विश्वास रखता है । लोग बताते है कि काम में कोताही पर वे नाराज होते हैं, जान बूझकर की गयी गलतियों पर डांटते हैं, जो अपनी गलती मानता है उसे सुधरने का मौका देते हैं, सुधरने के रास्ते बताते हैं और अक्सर सस्पेंड  करने की धमकी तो देते हैं, पर सस्पेण्ड नहीं करते । सख्ती वे उन लोगों पर करते हैं जो गलती करके भी अपने को चालाक समझते हैं ।

छत्तीसगढ़ की खूबसूरती का जवाब नहीं -
इस लम्बी यात्रा के दौरान छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विविधता और नैसर्गिक सुंदरता के दर्शन हो रहें हैं । कल रायगढ़ से निकलने के बाद काफिला बेहत खूबसूरत जंगल से होकर गुजरा । पतझड़ से सूने हो चुके पेड़ों में लाल हरी कोपले आ रहीं हैं । नीचे गिरे सूखे पत्तों को जलाया गया है और जंगल की धरती काली हो चुकी है । इस काली पृष्ठभूमि में पत्तियों और फूलों के रंग बहुत आकर्षक लगते हैं । तरह-तरह के पक्षी भी देखने में आ रहे हैं ।
मन कर रहा है खूब सारा समय लेकर यहां लौटूं  । जी भर कर तसवीरें उतारूं । लोगो से मिलूं-जुलूं । उनके बारे  में जानूं । फिर अज्ञेय की कविता भी याद आ रही है - अरे यायावर, रहेगा याद ?

Tuesday, April 13, 2010

ग्राम सुराज अभियान से लौटकर

रायपुर। ग्राम सुराज अभियान गांवों में हलचल मचा रहा है। काम नहीं करने वाले अफसर-कर्मचारी जनता के सामने खड़े किए जा रहे हैं। उन्हें डांटा जा रहा है। जरूरत पडऩे पर हटाया भी जा रहा है। छोटी बड़ी समस्याओं से परेशान लोग खुलकर अपनी बात कह रहे हैं। बालिकाएं और महिलाएं भी पीछे नहीं हैं।

रायपुर जिले में प्रभारी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के नेतृत्व में अभियान चल रहा है। सोमवार को रायपुर से गरियाबंद के बीच उन्होंने निमोरा, पिपरौद, किरवई, तर्रा, रजकट्टा और बारुका में सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के अमल की पड़ताल की। ग्रामीणों से उनकी फरियादें सुनीं। मौके पर उनके समाधान की कोशिशें कीं और ग्राम विकास की बहुत सी मांगों के लिए तत्काल पैसा स्वीकृत किया। एक एक गांव को 25-50 लाख की मंजूरी मिल गई।

छत्तीसगढ़ी में सवाल, अंग्रेजी में जवाब
श्री अग्रवाल की क्लास छत्तीसगढ़ी में चल रही है। स्कूली बच्चों से वे ढेर सारे सवाल करते हैं। निमोरा में एक बच्चे से उन्होंने पूछा- स्कूल में खाना मिलथे? बच्चे ने कहा-यस। सारी सभा ठहाकों से गूंज उठी। श्री अग्रवाल ने बच्चे की तारीफ की।

बच्ची ने की बहस
कुछ बड़ी उम्र की एक बालिका ने बताया कि उसका जाति प्रमाण पत्र नहीं बन पा रहा है। इसके लिए पिछले पचास साल का रिकार्ड मांगा जा रहा है। श्री अग्रवाल ने उसे समझाया कि यह सुप्रीम कोर्ट का आदेश है। इसके आगे हम कुछ नहीं कर सकते। नाराज बालिका बहस पर उतारू हो गई। उसने कहा- इसका मतलब हम तो आगे पढ़ ही नहीं पाएंगे। श्री अग्रवाल ने यह कह कर उसे शांत किया कि वे उसके लिए कोई रास्ता निकालेंगे।

मंत्री या हेडमास्टर
सरकार खुद चल के तुंहर गांव मं आए है। तुमन ल एती ओती जाए के जरूरत नइं हे। इन शब्दों के साथ वे अपनी बात शुरू करते हैं। फिर स्कूली बच्चों को स्टेज पर बुलवाते हैं। उनसे ढेर सारे सवाल पूछते हैं। बच्चे जवाब देते हैं। यह सिलसिला कुछ इस तरह चलता है-

- स्कूल में खाना मिलथे कि नहीं
0 मिलथे।
- का का मिलथे
0 रोटी....दार...
- अउ भात नइं मिले?
0 मिलथे...
- अउ का का मिलथे?
0 साग..
- अचार पापड़ नइं मिले?
0 नइं
- कुछु मीठा मिलथे कि नहीं?
0 मिलथे
- का मिलथे?
0 खीर
- कौन दिन मिलथे खीर?
0 शनिवार के।
- कोन बनाथे खाना?
0 राधाबाई
- खाना पेट भर मिलथे कि नहीं?
0 मिलथे।
- फिर तैं अतेक दुबली पतली काबर हस?

इसके बाद सभा ठहाकों में डूब जाती है।

फिर स्कूली किताबों के बारे में पड़ताल शुरू होती है।

- तुमन ला पु्स्तक मिलथे कि नहीं?
0 मिलथे।
- फोकट में मिलथे कि पइसा में?
0 फोकट में
- गुरुजी मन पइसा तो नइं मांगें?
0 नइ।
- एखर दाई- ददा मन बताओ भइ पइसा तो नइं देना पडि़स..
सभा में एक और ठहाका लगता है।

मैं नहीं कहों, लइका मन कहत हें
फिर बृजमोहन अग्रवाल का राजनीतिक कौशल दिखने लगता है। वे कहते हैं- देख लो भई। मैं नइं कहत हों, लइका मन कहत हैं कि ओ मन ला पेट भर खाना अउ फोकट में पुस्तक मिलत हे। कमल के सरकार पहिली अइसे सरकार है जे लइका मन ला फोकट में खाना अऊ किताब देवत है। गांव वाला मन संकल्प करो कि एक भी लइका बिना पढ़े लिखे नहीं रहना चाहिए।

थाली धोना अच्छी बात
ग्राम सुराज अभियान के दौरान निमोरा के एक ग्रामीण को एक अच्छी शिक्षा मिली कि खाना खाने के बाद खुद अपनी थाली धोना अच्छी बात है। जिले के प्रभारी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल अभियान के पहले दिन यहां पहुंचे थे। वे बच्चों से मध्यान्ह भोजन की जानकारी ले रहे थे। बच्चों ने उन्हें बताया कि उन्हें पेट भर भोजन मिल रहा है। श्री अग्रवाल ने गांव वालों से पूछा कि उन्हें इस संबंध में कोई शिकायत तो नहीं। एक ग्रामीण ने कहा कि बच्चों को खाना खाने के बाद थाली खुद धोनी पड़ती है। श्री अग्रवाल ने कहा- यह तो अच्छी बात है। यह हमारी संस्कृति है। मैं खुद भी खाना खाने के बाद अपनी प्लेट खुद उठाता हूं। यह संस्कार मुझे अपने बुजुर्गों से मिला है। ग्रामीणों ने इस पर जमकर तालियां बजाईं।

चेतावनी भी, तालियां भी
आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और मितानिनें श्री अग्रवाल की क्लास में बुलाई जाती हैं। उनके लिए भी ढेर सारे सवाल हैं। कितने गांव देखती हो, कितनी गर्भवती माताओं को अस्पताल भेजा, उन्हें इसके लिए कितने पैसे मिलते हैं। गर्भवती माताओं को खाने में क्या दिया जाता है, बच्चों को क्या देते हैं। डिपो में दवाएं हैं कि नहीं। गांव में किसी को लू लगी क्या? गरमी में देने के लिए आपके पास ओआरएस है कि नहीं। यह देखना सुखद है कि मंत्री को हर सवाल का तुरंत और सकारात्मक जवाब मिलता है। आमतौर पर आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के खिलाफ शिकायतें नहीं मिलतीं। उनके लिए तालियां बजवाई जाती हैं।

Friday, April 9, 2010

कुछ और मौतें, कुछ और मोमबत्तियां

गृहमंत्री पी। चिदंबरम ने काम संभालने के बाद नक्सल मामले में कहा था कि हम इसकी गंभीरता का सही अनुमान नहीं लगा पाए। तब मेरे एक लेखक मित्र ने कहा था कि यह बहुत अच्छा बयान है। आगे उनसे समाधान की कुछ उम्मीद की जा सकती है। अब दंतेवाड़ा घटना के बाद उन्होंने कहा कि चिदंबरम की गंभीरता दिख नहीं रही। राजा का अच्छा होना काफी नहीं। उसे अच्छा दिखना भी चाहिए। चिदंबरम हम छत्तीसगढ़ में बैठे लोगों से बहुत दूर हैं। हम यहां बैठकर यह अनुमान नहीं लगा सकते कि वे कितने संवेदनशील, कितने जानकार और कितने गंभीर हैं। लेकिन मेरे खयाल से छत्तीसगढ़ में बैठे हम लोगों को सोचना चाहिए कि हम खुद कितने गंभीर हैं। सच तो यह है कि हमें किसी की मौत पर ओह कहने का अभ्यास हो गया है। और खाली समय में हम बहस कर लेते हैं। वरना बस्तर से ढाई तीन सौ किलोमीटर दूर रायपुर में ज्यादातर लोगों को दंतेवाड़ा की घटना से कोई फर्क नहीं पड़ा है। रायपुर बंद और मोमबत्ती जलाने जैसे प्रतीकात्मक काम जरूर किए जा रहे हैं लेकिन वे सिर्फ प्रतीकात्मक हैं। मेरा यह नितांत निजी आब्जरवेशन है कि किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा है। जिस रोज घटना हुई वह सत्तारूढ़ भाजपा का स्थापना दिवस था। पार्टी के प्रदेश कार्यालय में एक कार्यक्रम का आयोजन था। नक्सली वारदात में बड़ी संख्या में जवानों के मारे जाने की खबर आने के बाद पता नहीं किस समझदार नेता के कहने पर इसे श्रद्धांजलि सभा में बदल दिया गया। इसमें मैंने पार्टी के एक जिम्मेदार पदाधिकारी का भाषण खुद सुना और एक मंत्री का भाषण अखबार में पढ़ा। पदाधिकारी ने शुरूआत की दो चार लाइनें नक्सली घटना के बारे में कहीं फिर अपनी लाइन पर आ गए। उन्होंने बताया कि भाजपा ने कहां से शुरुआत करके यहां तक का सफर तय किया है। कार्यकर्ताओं ने तालियां बजाईं। 83 लोगों की मौत भी उन्हें भाजपा की कामयाबी पर ताली बजाने से रोक नहीं सकी। किसी को यह नहीं सूझा कि यह समय तालियां बजाने का नहीं है। पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी पूरे जोश से भाषण दे रहे थे। नक्सल मामलों पर पार्टी की गंभीरता दिख रही थी। दंतेवाड़ा की घटना के बाद लगातार प्रतिक्रियाएं देखने सुनने में आ रही हैं। यह बहुत दुखद है कि बहुत से जिम्मेदार लोग घिसी पिटी बातें कहकर अपने संवेदनहीन होने का सबूत दे रहे हैं। नक्सली कायर हैं, हम उन्हें कामयाब नहीं होने देंगे, ऐसे बयान बार बार इस्तेमाल होकर अपना प्रभाव खो चुके हैं । इनसे अब बयान देने वालों की जड़ता प्रकट होती है। सुनने वालों को इससे चिढ़ हो चली है। अगर नक्सली कायर हैं तो यह बात कहने का यह उचित समय नहीं है। यह तो नक्सलियों का दुस्साहस है कि उन्होंने इतनी सक्षम फोर्स पर हमला कर दिया और इतना नुकसान पहुंचा दिया। यह तो दुश्मन का रणनीतिक कौशल है कि उसने जो चाहा कर डाला। नक्सली कायर हैं या नक्सली क्रूर हैं- इन बयानों का मतलब मुझे समझ में नहीं आया। आप उन लोगों के बारे में सोचिए जो नक्सली प्रभाव वाले इलाकों में रहते हैं। जिन्हें दोनों तरफ की बंदूकों के साए में जीना पड़ रहा है। क्या आप यह कहकर उनको राहत दे सकते हैं कि नक्सली कायर या क्रूर हैं? या शहीद जवानों के परिवारों को इससे सांत्वना मिल सकती है? नक्सली तो जो हैं सो हैं, आप बताओ कि आप क्या हो? पिछले दो दिनों में नक्सलियों को खत्म करने के बारे में कई अनौपचारिक बहसों में मैं शामिल हो चुका हूं। भाजपा से जुड़े एक व्यक्ति से मेरी मुलाकात हुई जिसने घटना स्थल के पास कभी शिक्षक के रूप में काम किया था। उसने मेरे एक सवाल के जवाब में बताया कि नक्सलियों का सूचना तंत्र बहुत मजबूत है। गांव वाले उनसे जुड़े हुए हैं। और यह सिर्फ डर की वजह से नहीं है। नक्सली उनको अपने विचारों से प्रभावित करते हैं और उनको प्रशिक्षित करते हैं। गांव वालों से अच्छे संबंध बनाने का काम तो फोर्स का भी है। और मोटे तौर पर पूरे सरकारी तंत्र का है। इस बारे में आम जनता की राय बहुत अच्छी नहीं है। आप किसी भी पार्टी के आदमी से अनौपचारिक चर्चा में पूछ लीजिए। कोई आदमी यह नहीं कहेगा कि सरकारी तंत्र के कामकाज से जनता खुश है। आखिर सरकारी भ्रष्टाचार की खबरों को जनता नक्सली घटनाओं से अलग करके कैसे देख सकती है? उसकी यह राय बनती है कि सरकारी तंत्र घोटाले करने में व्यस्त है, उसका नक्सलवाद से लडऩे में ध्यान नहीं है। जनता अफसरों नेताओं का विलासितापूर्ण जीवन भी देख रही है। अपनी रोजी रोटी के संघर्ष में जुटे लोगों को आप सरकारी विज्ञापनों से कितना भरमा सकते हैं? आम आदमी ऊबड़ खाबड़ सड़कों पर चलता है, अपमानजनक परिस्थितियों में नौकरी करता है, रिश्वत के बगैर उसका काम नहीं होता। शहर में रहने वाला पढ़ा लिखा आदमी इस अराजकता से परेशान और नाराज रहता है। फिर जंगल में रहने वाले अनपढ़ लोग कितने परेशान और नाराज होते होंगे इसकी कल्पना की जा सकती है।आप मेधा पाटकर की बात मत मानिए। लेकिन जो मुद्दे वे लोग उठा रहे हैं उनको नजर अंदाज मत करिए। यह आपके और मेधा पाटकर के बीच की लड़ाई नहीं है। मेधा पाटकर को यहां रहना भी नहीं है। जिन्हें रहना है उनके बारे में सोचिए।नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई के एक तो सिद्धांत बदलते रहते हैं। फिर खबरें बताती हैं कि अलग अलग सुरक्षा बलों के बीच समन्वय नहीं है। खबरें यह भी बताती हैं कि नक्सली इलाकों में पोस्टिंग रुकवाने के लिए अफसर लाखों खर्च करने के लिए तैयार हैं। इन विसंगतियों को क्या नक्सली आकर ठीक करेंगे? पिछले दो दिनों में कई लोगों ने कहा कि पुलिस को जगदलपुर या दंतेवाड़ा में मुख्यालय बना लेना चाहिए। बारीकी से मॉनिटरिंग होनी चाहिए। सरकार के पास काम करने की बहुत ताकत होती है। ईमानदारी से काम होगा तो जनता को कोई बात समझ में आएगी। लेकिन ज्यादातर लोगों की राय है कि यह भेडि़ए से यह कहने जैसा है कि वह घास खाकर गुजारा कर ले।

Tuesday, March 23, 2010

एक तितली, कई बातें


आज आंगन में कपड़े धोने के लिए पानी भरते समय यह तितली दिखी। वह धुले हुए फर्श पर बैठी थी। तितलियां अमूमन फूलों पर बैठती हैं। हमारी कंपाउंड वॉल से लगी झाडिय़ों में ढेर सारे फूल थे। शायद तितली को पता था कि मेरे पास कैमरा है। या फिर शायद यह वही तितली हो जिसकी तस्वीरें मैंने कुछ रोज कंपाउंड वॉल पर खींची थीं। यह तितली कंप्यूटर पर लोड हुई तो मैंने देखा कि इसके पंख बुरी तरह कटे फटे हैं। मेरा खयाल है ये पंख ऐसे तो नहीं होते होंगे? फिर भी तितली उड़ रही थी। मुझे लगा कि ये कोई फाइटर तितली है। खराब मौसम से, शिकारियों से लड़ रही है। मुझे लगा कि वह किसी परीलोक से मुझे अपनी तकलीफें बताने के लिए आई है। या फिर मुझे हौसला देने के लिए कि ऐसे टूटे फूटे पंखों से भी उड़ा जा सकता है। मुझे रंगीन पंखों वाली तितलियों से यह फाइटर तितली अधिक दिलचस्प लगी। मुझे लगा कि ये मेरी दोस्त बनने के लायक है।
इस तितली ने मेरी उत्सुकता बढ़ाई कि मैं तितलियों के बारे में कुछ जानूं। मैंने पाया कि तितलियों के बारे में मैं लगभग कुछ नहीं जानता, जैसा कि आसपास की ज्यादातर चीजों के बारे में मैं कुछ नहीं जानता। दुनिया में तितलियों की पंद्रह बीस लाख किस्में हैं। हजारों बरस से लोग इसकी खूबसूरती का इस्तेमाल कलाकृतियों में कर रहे हैं। इस पर दुनिया भर के वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। इंटरनेट पर सर्च करते हुए तितलियों के बारे में कई दिलचस्प बातें पता चलीं। इनका जीवन एक हफ्ते से लेकर एक साल का होता है। अंडे से तितली बनने की चार अवस्थाएं होती हैं। इनके अंडे एक खास गोंद के जरिए पेड़ से चिपके रहते हैं। इनके लार्वा यानी इल्लियां अपना ज्यादातर समय पेट भरने में बिताती हैं। फिर प्यूपा अवस्था में यह जगह ढूंढती है और यह जगह अक्सर पत्तियों के नीचे होती है। यहां प्यूपा से तितली बनती है। कीट पतंगों में इस तरह के बदलाव को मेटामॉरफोसिस कहा जाता है। मेटामॉरफोसिस शब्द का इस्तेमाल मैंने पहली बार चट्टानों के सिलसिले में पढ़ा था। तितलियों की इल्लियां पत्तियां खाते वक्त शहद जैसा मीठी चीज बनाती हैं। इसे हनी ड्यू कहा जाता है। यह चींटियों के काम आता है। चींटियों की मौजूदगी इल्लियों को लेडी बीटल जैसे दुश्मनों से बचाती है। यह जानकारी बताती है कि कुदरत ने छोटी छोटी चीजों के कैसे इंतजाम कर रखे हैं। और हर चीज से कितना कुछ सीखा जा सकता है।
तितलियां पराग कणों को एक से दूसरे फूलों तक ले जाकर वनस्पति जगत का एक जरूरी काम करती हैं। हालांकि यह काम सिर्फ तितलियां नहीं करतीं। ज्यादातर तितलियां फूलों से अपना आहार लेती हैं। इसकी कुछ इल्लियां कुछ कीड़ों को भी खा लेती हैं। तितलियों की कुछ प्रजातियां सड़े हुए मांस, फल, गोबर या गीली रेत की नमी से भी पेट भर लेती हैं। यह अपने दो एंटीना की मदद से गंध पाती हैं और इन्हें फूलों का पता चल जाता है। तितलियों की कुछ प्रजातियां लंबी दूरी तय करने के लिए जानी जाती हैं। जैसे मोनार्क तितलियां मेक्सिको से उत्तरी अमरीका या दक्षिणी कनाडा तक 4000 से 4800 किलोमीटर की दूरी तय करती हैं।
कलाकारों को तितलियां बहुत आकर्षित करती हैं। कई कलाकार तितली को आत्मा के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इसे फ्रेम करके, लेमिनेट करके, रेजिन से मढ़कर और कई दूसरे तरीकों से कलाकृतियां बनाई जाती हैं।
शायरों ने तितलियों को लेकर बहुत लिखा है। मुझे तीन शेर याद आ रहे हैं-


नसीबों में लिखी जिनके लिए तनहाइयां होंगीं.
गुलाबों के नगर में ऐसी भी कुछ तितलियां होंगीं।
-वाली आसी


गुल से लिपटी हुई तितली को गिराकर देखो
आंधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा
-कैफ भोपाली


जश्न था बहारों का और अहले गुलशन ने
गुलसितां सजाने को तितलियों के पर काटे
-मुकीम भारती

मुझे लगता है सुबह मेरे आंगन में बैठी तितली, ऐसे ही किसी जश्न से बचकर भागी हुई थी।


Monday, March 15, 2010

रमेश भाई ओझा की कथा


आप में से कई लोगों ने रमेश भाई ओझा का नाम सुना होगा। कई लोगों ने उनकी कथा भी सुनी होगी। मैं धार्मिक व्यक्ति नहीं हूं लेकिन टीवी पर जब कभी उनका प्रवचन चलता है, मैं कुछ देर रुक कर सुन लेता हूं।
उनका अध्ययन विशाल है। उनकी दृष्टि व्यापक। उनकी वाणी में तेज है। उनका सेंस ऑफ ह्यूमर बहुत अच्छा है। वे गाते भी बहुत अच्छा हैं। कथा कहने की उनकी शैली बांधने वाली है। गुजरात में उनकी बड़ी मान्यता है। वे देश-विदेश में प्रवचन करते रहते हैं।
कुछ बरस पहले वे हमारे शहर में आए थे। तब मैं एक बड़े अखबार में काम करता था। अखबारों का भी यह दिलचस्प वर्गीकरण है। अखबार अच्छा या बुरा नहीं होता। सही या गलत नहीं होता। वह छोटा या बड़ा होता है।
बहरहाल, मैं पत्नी के साथ उनका प्रवचन सुनने गया। साथ में भंडारा भी था। मुझे भंडारों में खाने का बहुत शौक है। मैं नहीं जानता कि मेरे जाने के पीछे भंडारे की कितनी भूमिका थी, पत्नी को खुश रखने की मंशा कितनी थी और रमेश भाई ओझा को सुनने की उत्सुकता कितनी थी।
मगर मैं अखबारनवीस दादा का पोता हूं और साहित्यकार पिता का पुत्र। सो मैंने बड़ी तन्मयता से रमेश भाई को सुना और समाचार बनाने के लिए जरूरी बातें नोट भी कीं। मेरी एक आदत है। कोई बात पसंद आ जाती है तो उसके बारे में दस लोगों को बता डालता हूं। सो मैंने खबर बनाने के साथ साथ प्रेस में कई लोगों को कथा के अंश सुना दिए। कई लोगों को रमेश भाई ओझा का परिचय दे डाला। कई लोगों को वहां जाने की प्रेरणा दे डाली।
मेरे कुछ परिचित वहां गए भी। और लौटकर मुझे धन्यवाद दिया कि मैंने उन्हें एक अच्छी अच्छी जगह जाने का अवसर दिया। ज्यादातर ने लौटकर बताया कि रमेश भाई बहुत विद्वान व्यक्ति हैं, उनकी भाषा बहुत सुगम और प्रभावशाली है। कुछ ने कथा के बारे में भी चर्चा की।
इन्हीं में एक सज्जन सबसे अलग थे। उनसे मेरी बनती नहीं थी। वे पैसे वाले थे और गरीबों के प्रति अपनी हिकारत को छिपाते नहीं थे। प्रेस के प्रभावशाली लोगों के पास जाकर वे उठते बैठते रहते थे। पता नहीं वे उन्हें क्या दे देते थे कि उनका देर से आना सब नजरअंदाज करते थे। वे नौकरी छोड़कर चले जाते थे और कुछ दिनों बाद फिर लौट आते थे। मैंने सुना था कि वे शिकायतें करने में माहिर हैं। इसलिए कई सीनियर भी उनसे डरते हैं।
जहां तक मेरा खयाल है, मैंने उन्हें कथा के बारे में नहीं बताया होगा। उन्होंने तब सुन लिया होगा जब मैं दूसरों को बता रहा होऊंगा। वैसे भी रमेश भाई ओझा का शहर में आना एक बड़ा समाचार था। जो भी हो, मतलब की बात यह है कि वे भी कथा सुनने गए।
लौटकर उन्होंने बताया- मैं भी गया था कथा सुनने। बहुत अच्छी व्यवस्था है। अरे भई, आयोजकों की इनर सर्किल के एक भाई मेरे परिचित निकल गए। फिर क्या था- उन्होंने बहुत आग्रह पूर्वक मुझे आगे ले जाकर बिठाया। वहां गद्दे लगे हुए थे। पंखे चल रहे थे। रमेश भाई को हम लोग बहुत पास से देख सकते थे। बाहर गर्मी बहुत थी लेकिन हम लोग आराम से बैठे। कथा के बाद मेरे परिचित ने मुझसे भंडारे में प्रसाद लेने का आग्रह किया। एक तो भीड़ बहुत थी। फिर हमें वापस भी आना था। सो हम हाथ जोड़कर लौट आए।
उन्होंने कई लोगों को यह कथा सुना डाली। अपने परिचित से अपने प्रगाढ़ रिश्तों को बार बार बता डाला। आयोजकों का महिमामंडन किया और आयोजन का अनुमानित खर्च भी बता दिया। उन्होंने यह भी बता दिया कि आयोजन स्थल का किराया कितना है और उसका एरिया कितना है।
जो लोग उन्हें जानते थे उन्होंने उनसे नहीं पूछा कि कथा में रमेश भाई ओझा ने क्या कहा।

( एक पुराना संस्मरण)

Saturday, March 13, 2010

यूं ही गर रोता रहा गालिब...



मैं महादेव घाट पर अकेला बैठा था। एक पुराने दोस्त का फोन आया। उसने कहा कि वह परेशानी में है। क्या मैं उसके पास पहुंच सकता हूं? वह रायपुर की एक सड़क किनारे ठेला लगाकर फल बेचता है। मैं थोड़ी देर बाद उसके पास पहुंचा। मुझे देखकर वह रोने लगा। बीस साल में पहली बार उसे रोते देखा। उसने बताया कि सुबह एक महिला उसकी दुकान से केले ले गई। थोड़ी देर बाद वह वापस आई। उसने दोस्त से कहा कि तुमने मुझे दस रुपए वापस नहीं किए। दोस्त का कहना था कि उसे अच्छी तरह याद है कि रुपए वापस किए हैं। वे अपने पर्स में देख सकती हैं। वह महिला किसी प्रभावशाली व्यक्ति की बहन थी। घर जाकर उसने अपने लोगों को बताया। थोड़ी देर बाद कुछ लोग वहां पहुंचे और दोस्त पर बदतमीजी का आरोप लगाकर उसे खूब मारा।
मेरा दोस्त मुझसे क्या चाहता था पता नहीं। शायद वह उन लोगों को सजा दिलवाना चाहता था। मैंने उसे सांत्वना दी। यह पूछा कि वे लोग दोबारा तो नहीं आएंगे। मैने उसे घटना को भूल जाने कहा। और कहा कि कुछ चीजें ऊपर वाले पर छोड़ देनी चाहिए। लडऩे का समय न मेरे पास है न तुम्हारे पास। न इतनी ताकत है।
मेरा यह दोस्त मेरे गृहनगर धमतरी के पास एक गांव का रहने वाला है। मैंने धमतरी में जिस प्रेस से काम की शुरुआत की थी, उसने भी वहीं काम किया था। बाद में मैं रायपुर आ गया। यहां भी वह मुझे साथ में काम करता हुआ मिला।
वह प्रेस में पेस्टिंग करता था। तब उसकी नई नई शादी हुई थी। उसकी जिम्मेदारियां बढ़ गई थीं। और परेशानियां भी। वह घर चलाने के लिए ओवरटाइम काम करता था। दिन में भी और रात में भी। कभी कभी वह खड़े खड़े झपकी ले लेता था। इसका हम सब मजाक बनाते थे। वह अक्सर मुझे अपने घर ले जाता था, खाना खिलाने। घर ले जाने का मतलब था रास्ते में जरूरत का सामान खरीदा जाए। पैसे मेरे पास होते थे। बीच बीच में वह सौ दो सौ रुपए उधार लेता रहता था। प्रेस में तनख्वाह बहुत कम और देर देर से मिलती थी। वे उसके लिए बहुत कठिन दिन थे जो धीरे से उसकी जिंदगी का हिस्सा बन गए।
वह किसान परिवार से था। उन्हें कृषि मजदूर कहना ज्यादा सही होगा क्योंकि एक दो एकड़ जमीन वाला किसान आधा मजदूर ही होता है। उसका जीवन सीधा सादा था। बीच में वह पीने वालों की संगत में पड़ गया। पर शायद जल्द ही संभल गया। उसने परिचितों से कर्ज लेकर एक मकान खरीद लिया। और कर्ज चुका भी दिया। बीच बीच में वह कहता- उस नौकरी से यह धंधा अच्छा है। कम से कम मालिक बनकर तो बैठे हैं। नौकरी में रहता तो क्या मकान खरीदने के बारे में सोच पाता? अब उसके बच्चे बड़े हो रहे थे। इन दिनों उसकी चिंता बच्चों को लेकर ही रहती थी।
वह पेट रोजी में लगा एक आम आदमी था। जिसकी पत्नी उससे बहुत खुश नहीं रहती थी। वह घर चलाने में पत्नी का सहयोग चाहता था। बीच में उन्होंने एक फैंसी स्टोर भी खोला था। वह नहीं चल पाया। वह इसे लेकर पत्नी से नाखुश था। स्टोर का अनबिका सामान घर में पड़ा था। वह बताता था कि जब भी नजर उधर जाती है, मन खराब हो जाता है। रोज कमाने, रोज खाने की स्थिति मे पैसों की यह बरबादी उसे कचोटती है।
उसे रोते देखना इसलिए अधिक खराब अनुभव था क्योंकि वह एक जिंदादिल आदमी था। बहुत शौकीन। पता नहीं किस तरह पैसे जोड़ जोड़ कर वह एक बार अपनी पत्नी के साथ हवाई जहाज से पुरी गया था। फ्लाइट शायद भुवनेश्वर तक जाती है। बहरहाल, यह एक दिलचस्प घटना थी और मोहल्ले वाले उसे विदा करने के लिए जमा हो गए थे। मैंने उसकी इस यात्रा पर छत्तीसगढ़ी में एक वृत्तांत भी लिखा था जो अखबार में छपा था। दोस्त ने उसे फ्रेम करवाकर घर की दीवार पर टांग रखा है।
ुउसके घर से मेरी कुछ मीठी यादें भी जुड़ी हैं। एक बार उसने किसी काम से मुझे अपने घर भेजा। घर पर भाभी थी। उसने कहा- खाना बन गया है। लेकिन उससे पहले नहा लो। अच्छा लगेगा। फिर उसने यह भी जोड़ दिया- नहाए बगैर खाना नहीं मिलेगा। मैंने नहाकर खाना खाया। भाभी के रिश्ते को मैंने वहां पहले पहल महसूस किया। वह मां बहन और दोस्त के बीच का कोई प्यारा सा रिश्ता था। आने वाले दिनों में कम ही ऐसे मौके रहे जब मैं उनके घर से खाए बगैर लौटा।
शादी के बाद मैं जिन लोगों का अपने घर आना जाना देखना चाहता था उनमें से एक इस दोस्त का परिवार भी था। लेकिन शादी के बाद मेरे घर की परिस्थितियां भी एकदम बदल गईं। उनमें एक गरीब आदमी के लिए सम्मान की जगह नहीं थी। यह अलग बात है कि मैं भी रोजी रोटी की चिंता से आगे कभी सोच नहीं पाया।
जिस कालोनी के पास यह दोस्त फल का ठेला लगाता है वह पुराने मालगुजारों की कालोनी है। गांवों में जिनकी बाप दादाओं की जमीनें हैं, रोजी रोटी की जिन्हें चिंता नहीं है, जिनकी अपेक्षा यह रहती है कि आस पास के लोग उन्हें पांव परत हौं महाराज कहकर अभिवादन करें। ये बाहरी लोग नहीं हैं। ये अपने ही लोग हैं।
छत्तीसगढ़ में अक्सर स्थानीय और बाहरी का मुद्दा उठता रहता है। मुझे लगता है कि बाहरी लोगों से खतरा उन लोगों को है जो पहले से यहां के लोगों का शोषण कर रहे थे। बाहरी लोगों के आने से उनका एकाधिकार चला जाएगा। छोटे लोगों का क्या है। वे तो पहले भी शोषित रहे हैं। बाहर से लोग आएंगे तो शायद उनकी संगत में आकर यहां के लोग भी सिर उठाना सीख जाएंगे, प्रतिकार करना सीख जाएंगे।
दोस्त का रोना देखकर मुझे गालिब का शेर याद आया- यूं ही गर रोता रहा गालिब तो ऐ अहले जहां, देखना इन बस्तियों को तुम कि वीरां हो गईं। पलायन के दिनों में यहां के गांव वीरान हो जाते हैं। नक्सलवाद या सलवाजुडूम के चलते बस्तर में कई गांव शायद हमेशा के लिए वीरान हो गए हैं।
मेरे कुछ जानकार दोस्त बताते हैं कि वहां आने वाले उद्योगों को यही तो चाहिए।




Thursday, March 4, 2010

धूप के घर में छांव का क्या काम

दिनेश कुमार साहू को मैं पिछले चालीस बरस से जानता हूं। वे हमारे पड़ोसी थे और हमारे परिवारों में घर जैसे संबंध थे। ये संबंध आज भी वैसे ही हैं। चालीस साल बाद यह पता चलना एक सुखद अनुभव है कि वे बेहद संवेदनशील, सजग और सशक्त कवि हैं। हाल ही में उनका एक नया कविता संग्रह आया है- धूप के घर में छांव का क्या काम। उनकी चिंताएं हजारों कस्बाई नागरिकों की चिंताओं से मेल खाती हैं और उन विषयों पर उनकी समझ परिपक्व है। उनकी कल्पना की उड़ान भी कुछ न कुछ सार्थक लेकर लौटती है। बनावट के इस दौर में दिनेशजी की कविताओं में सचमुच की अनुभूतियां हैं और वे उन्हें बहुत खूबसूरती से व्यक्त करते हैं।
कविता संग्रह की पहली कविता है खुशबू वाली आशा। गांव कस्बे से निकलकर महानगरों की पथरीली बस्तियों में जीने वाले हर इंसान को कभी न कभी किसान, खेत और मिट्टी की सौंधी खुशबू याद आती है। यह कविता इसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। सूखे खेतों को कवि फटे होठों की एक नई उपमा देता है।
मनुष्य के स्वार्थ व अभिमान और फलस्वरूप धरती के नष्ट होते पर्यावरण की चिंता मर्जी आदमी की कविता में साफ तौर पर व्यक्त होती है। कवि कहता है-

सागर और जमीन पर
आदमी का एकछत्र
राज है...
मर्जी उसकी
जिस तरह चाहे
आत्महत्या कर ले।

ट्रेन में झाड़ू लगाते बच्चों पर हर सहृदय व्यक्ति का ध्यान जाता है। उनके बारे में लोग अलग अलग बातें सोचते हैं। दिनेशजी बरसात में अपनी हरियाली पर इतराती धरती को आधार बनाकर बच्चे की मजबूरी को व्यक्त करते हैं-

धरती को भी पेट भरने के लिए
ट्रेन में बुहारने होते मूंगफली के छिलके
तब वह भी नहीं पहन पाती
हर साल नए
हरे रंग के कपड़े
जिस पर बने होते हैं
रंग बिरंगे
फूलों के प्रिंट


गुलाब और ताजमहल जैसे प्रेम प्रतीकों को लेकर निराला और साहिर जैसे कवियों ने जिस तेवर की कविता लिखी है वह तेवर दिनेशजी की इस कविता में देखा जा सकता है। इस संग्रह की सबसे खूबसूरत कविता वह है जिस पर संग्रह का नाम रखा गया है। बल्कि कविता का यह शीर्षक ही अपने आप में पूरी कविता है। जीवन संघर्षों में उलझा आदमी अपने कारण अपनी पत्नी को विषमताओं से जूझते देखता है तो भीतर ग्लानि, सहानुभूति, करुणा, अपराधबोध जैसे बहुत तरह के विचार पैदा होते हैं। यह कविता ऐसे ही एक विचार की सुंदर अभिव्यक्ति है।

कवि की संवेदना ऑस्ट्रेलिया में पिटने वाले छात्रों तक जाती है। इन घटनाओं को कवि गोरेपन के प्रति मोह के एक नए परिप्रेक्ष्य में देखता है। वह कहता है-

विदेश जाकर पिटा हुआ लड़का
विदेश से वापस आने पर
कोई गोरी लड़की ढूंढेगा
रंगभेद को गाली देता
फिर वहीं वापस पिटने
हवाई जहाज पर चढ़ जाएगा।


विरह का दुख इस संग्रह की एक प्यारी कविता है। एकदम मौलिक। संभवत: यह सचमुच के किसी वार्तालाप का वर्णन है इसीलिए इतना प्रभावी बन पड़ा है। परिवार से दूर रहते हुए, सब्जी बनाता हुआ कवि पत्नी से टेलीफोन पर कहता है-

तुम लोगों की याद में
आग में पक रहा हूं...
टेलीफोन के तार से
तुरंत चली आओ।


कवि की संवेदना कभी पहचान खोते जा रहे शहर की चिंता करती है तो कभी बूढ़ी पीली पत्तियों के दुख दर्द में शामिल हो जाती है। वह अपनी मां को लेकर बहुत कुछ सोचती विचारती रहती है। तेजी से बदलते हुए समय में बहुत सी चीजें सिर्फ कविता में जीवित रह पाती हैं। ऐसी बहुत सी चीजें दिनेशजी की कविताओं में देखी जा सकती हैं।

कवि रोजमर्रा के जीवन की छोटी बड़ी विसंगतियों को तरह तरह से व्यक्त करता है। वह महाभारत के कर्ण को सामने रखकर मौजूदा दौर के चाल चलन पर निशाना साधता है। कर्ण पर केंद्रित उनकी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं-

बहुत कठिन होता है
अस्पृश्य सत्य को
स्वयं से जोड़ लेना
और कृष्ण से
मुख मोड़ लेना


दिनेशजी ग्रामीण-कस्बाई पृष्ठभूमि से निकले हैं और घर से बाहर जाकर उन्होंने अपने लिए एक बेहद परिष्कृत भाषा कमाई है। उन्हें इस भाषा के उपयोग का पूरा अधिकार है। लेकिन यह भी लगता है कि उन्हें शब्दों के जंगल में अपनी मौलिक भाषा को ढूंढना चाहिए। यह कॉलोनी में रहते हुए अपनी बूढ़ी मां की सेवा करने जैसा काम है। मां की सेवा तो वे कर ही रहे हैं।

Saturday, February 13, 2010

कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा

बरसों से मेले ठेले घूमने की इच्छा थी। नौकरी और गृहस्थी के चक्कर में यह हो नहीं पा रहा था। इस बार राजिम मेले में यह इच्छा थोड़ी सी पूरी हुई। थोड़ी सी इसलिए क्योंकि हम खुद ही थोड़ा सा घूम पाए। कभी धूप लगी, कभी थकान। कभी घर लौटने की जल्दी तो कभी गाड़ी की टाइमिंग। मीनाकुमारी ने क्या खूब कहा है- जिसका जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली।
इस बार राजिम मेले में कई बार जाना हुआ। दोपहर की चिलचिलाती धूप में भी घूमे और रात को ठंड में प्रवचन भी सुने। खाने का शौक बहरहाल पूरा नहीं हो सका। जिन लोगों के साथ गए थे वे या तो मेले में खाना पसंद नहीं करने वाले थे या उपवास करने वाले। इतने दिनों में एक बार गुपचुप खाया और एक दो बार चनाबूट। दो तीन बार कचौरियां खाईं लेकिन मेले के बाहर वाले कैंटीन में। दाल भात सेंटर में खाने की लालसा दिल में ही रह गई। केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी एक कविता में कहा है कि सूरज नहीं डूबता, घूमती हुई पृथ्वी खुद उसकी ओर से मुंह फेर लेती है। मेले में पचास से ज्यादा दाल भात सेंटर थे। और एक भूखा व्यक्ति वहां से यूं ही लौट गया। एक फिल्मी गीत भी है कि मेले में रह जाए जो अकेला, फिर वो अकेला ही रह जाता है। मेरे परिचितों में बहुत से लोग ऐसे ही हैं। वे मुंंह बनाकर मेला घूमते हैं। और अव्यवस्थाओं को याद करते हुए घर लौटते हैं।
बशीर बद्र का एक शेर है- आंखों में रहा, दिल में उतर कर नहीं देखा, कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा। मैंने और मेरे दोस्तों ने वाकई यह समंदर नहीं देखा। हम लोग नहीं जानतेे कि बगैर किसी के बुलावे के मीलों दूर के गांवों से कड़ी धूप में लोग क्यों मेले में चले आते हैं। भगवान राजिम लोचन से वे क्या मांगते हैं। कुलेश्वर महादेव से क्या प्रार्थना करते हैं। हम लोग नहीं जानते कि पॉलीथीन की थैलियों में पैक गुलाब जामुनों का स्वाद कैसा है। नदी किनारे बिक रहा राम कांदा कितना मीठा है। दाल भात केंद्र में मिलने वाली सब्जी कितनी स्वादिष्ट है। जगह जगह बिक रहे उखरा में मिठास कितनी है।
अमरीका और इराक के बारे में जानने वाले हम पढ़े लिखे लोग नहीं जानते कि मेले में चना मुर्रा, टिकली फुंदरी, पॉपकॉर्न, आइसक्रीम, भजिया-बड़ा बेचने वालों की कहानी क्या है? वे लोग कहां से आते हैं। मेले में कहां रुकते हैं। कितना खर्च करते हैं, कितना कमाते हैं। मेले के बाद वे क्या करते हैं। उन्हें राजिम मेला कैसा लगता है? ऐसे ढेरों लोग साल भर राजिम मेले की प्रतीक्षा करते हैं। ऐसे ही लोग किसी मेले को मेला बनाते हैं। और पूरा मेला घूमने के बाद भी हम उन्हें नहीं जानते। फिल्म ब्राइड एंड प्रिज्युडिस में एक पात्र ने बड़ी अच्छी बात कही है कि भारत देखने के लिए पैसा नहीं लगता और अगर आपके पास पैसा है तो आप भारत नहीं देख सकते।
मैंने अपने एक अग्रज के कहने पर नदी में स्नान कर लिया। धूप में घूमते घूमते थकने के बाद उस स्नान ने जो ताजगी, जो ऊर्जा दी वह किसी कूलर और एसी से नहीं मिल सकती। उस ऊर्जा के पीछे कुदरत का प्यार था, तीर्थ की पवित्रता थी, हजारों लोगों के साथ डुबकी लगाने से मिला समूह का बल था। उस स्नान से सिर्फ तन को ठंडक नहीं मिली, मन भी भीतर तक ठंडा हो गया। और यह सब कुछ मुफ्त था। टंकी में पानी खत्म हो जाने का डर वहां नहीं था। लाइन लगाने की जरूरत नहीं थी। प्रकृति के वैराट्य को मैंने वहां महसूस किया। मगर नदी की बिगड़ती सेहत को भी मैंने देखा। गांधीजी की बात याद आई कि धरती के पास हर व्यक्ति की जरूरत पूरी करने की क्षमता है। गड़बड़ तब होती है जब इस जरूरत की जगह लालच आ जाता है।
हर बार घर लौटने की जल्दी में मैंने एक बहुत बड़ा अवसर खोया। यह अवसर था अपनी धरती के कलाकारों को देखने सुनने का। बस, राजिम में रात रुकने की जरूरत थी। रेत के उस विस्तार में जगह की कोई कमी नहीं थी। मेले में खाने पीने का भी अभाव नहीं था। नहाने के लिए पानी भरपूर था। नदी में रात रुकना एक रोमांचक और यादगार अनुभव होता। मुझे अफसोस है कि मैंने यह सब खो दिया। और उस शहरी जीवन के लिए मैंने यह सब खोया जिसके फायदे उठाना मैं पिछले बीस बरस में नहीं सीख पाया हूं।

संतों के साथ सदाचरण आएगा:

राजिम कुंभ को इस भावना के साथ शुरू किया गया है ताकि यहां अधिक से अधिक संत आएं। उनके आशीर्वाद से राज्य की तरक्की हो। यहां सदाचरण आए। हमें संतोष है कि लोगों के सहयोग से राजिम कुंभ की महिमा सारे देश में बढ़ रही है। परंपरा से जो चार कुंभ होते हैं वे बारह साल में एक बार होते हैं। राजिम कुंभ की विशेषता यह है कि यह हर साल होता है। यहां हमारे लोगों की भक्ति का प्रकटीकरण होता है। इलाहाबाद के अलावा यह एक ऐसा स्थान है जहां लोग अस्थियां विसर्जन करते हैं और इसे प्रयागराज कहते हैं। यहां भगवान राजीवलोचन का मंदिर है। कुलेश्वर महादेव का मंदिर है जिसके बारे में मान्यता है कि इसकी स्थापना माता सीता के द्वारा की गई है। यहां लोमश ऋषि का आश्रम है। समीप ही वल्लभाचार्य जी की प्राकट्य भूमि है। छत्तीसगढ़ माता कौशल्या की जन्मभूमि है। भगवान राम यहां के भांजे हैं। यहां के लोग अपने भांजों को भगवान राम स्वरूप मानते हैं और उनके पांव छूते हैं। इस पुण्य धरती पर कुंभ प्रारंभ करने के पीछे भावना यह थी कि यहां साधु संत आएंगे। इस नए राज्य छत्तीसगढ़ को देश व दुनिया में एक पहचान मिलेगी। धार्मिक आस्था का प्रकटीकरण होगा। साधु संतों की चरणरज पड़ेगी, हम सबको आशीर्वाद मिलेगा। हम छत्तीसगढ़ को देश का सबसे सुंदर, सबसे सुखी राज्य बना पाएंगे। यहां के दुख दर्द समाप्त होंगे। लोगों में खुशहाली आएगी। हमें इस बात का संतोष है कि सभी लोगों के सहयोग से, साधु संतों के आशीर्वाद से राजिम कुंभ की महिमा पूरे देश में लगातार बढ़ती जा रही है। मेरा मानना है कि जितने ज्यादा साधु संतों के यहां चरण पड़ेंगे, छत्तीसगढ़ की उतनी ज्यादा तरक्की होगी। उतना ही ज्यादा यहां के लोगों में सदाचरण आएगा। मैं साधु संतों से उनके आशीर्वाद की ताकत मांगता हूं ताकि हम अपने प्रदेश को खुशहाल बना पाएं। यहां जो धर्म की गंगा बह रही है वह सारे देश तक पहुंचे। हमने इस मेले को कानूनी रूप दिया है ताकि यह अनवरत चलता रहे।

(राजिम कुम्भ २०१० में संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का संबोधन)

मेला मतलब घर में मेहमानों का आना

राजिम मेले के बगैर राजिम वासियों का जीवन अधूरा है। सबके पास मेले की सैकड़ों हजारों यादें हैं। मेले का मतलब होता था दूर दूर से मेहमानों का आना और घर में ठहरना। सबके लिए खाने पीेने का इंतजाम रहता था। और यह काम खुशी व उत्साह से किया जाता था। तब टेलीफोन का अधिक चलन नहीं था। लोगों की मुलाकात अक्सर ऐसे मेलों में होती थी। तब टूरिंग टाकीजें हुआ करती थीं। रात भर में कई कई शो हो जाते थे। हमारे जानकार दोस्त यार बताते हैं कि फिल्म दिखाने वाले रील काट काट कर फिल्म को छोटा कर देते थे। तब लोग मेलों में बैलगाडिय़ों से आते थे। आने में भी कई दिन लग जाते थे और मेले में कुछ दिन रुक कर लोग लौटते थे। तब मनोरंजन के अधिक साधन भी नहीं थे इसलिए लोग मेलों का भरपूर मजा उठाकर लौटना चाहते थे। मेले के वे दिन बहुत याद आते हैं।

(राजिम निवासी आशीष से बातचीत पर आधारित)

Monday, February 8, 2010

बैलगाडिय़ों की मीलों लंबी कतारें लगती थीं

(राजिम मेले की पुरानी यादें)
राजिम से 20 किलोमीटर दूर हमारा गांव है-भरदा। मेरा बचपन वहीं बीता। वहीं हम खेले कूदे, पढ़े लिखे और जीवन भर याद आने वाला समय बिताया। इन्हीं यादों में सुनहरे हर्फों में राजिम मेला भी दर्ज है। महीने भर पहले से मेले की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। बच्चों के उत्साह का कोई ठिकाना नहीं रहता था। उनकी बातचीत का प्रमुख विषय होता था मेला। सब अपने अपने घर में हो रही तैयारियों का बखान करते थे मेले के लिए सिर्फ बच्चे और घर वाले ही तैयार नहीं होते थे, बैलगाडिय़ों और बैलों को भी सजाया जाता था। मुझे याद है बैलों को बढिय़ा नहला धुला कर उनके सींगों पर पेंट लगाया जाता था। उसमें घुंघरू बांधे जाते थे। कुछ लोग रंगीन फीते भी बांधते थे। बैलगाडिय़ों में टाट का घेरा होता था। गाड़ी को बैठने के लिए आरामदायक बनाने के लिए उस पर पैरे से लेकर दरियां तक बिछाई जाती थीं। मेले में जाने के लिए पूरा गांव तैयार रहता था। जब मेला शुरू होता तो गांव सूने हो जाते थे। इन दिनों हमारे घर में काम करने वाले घर संभालते थे। मेले के लिए रवानगी रात में होती थी। गांव से राजिम तक बैलगाडिय़ों की कतार लगी रहती थी। बैलों को भी रास्ता बताने की जरूरत नहीं रहती थी। मेले में दो तीन दिन रुकना होता था। घर से राशन का सामान लेकर चलते थे। नदी की रेत पर खाना बनाया जाता था। बैलगाड़ी के भीतर और नीचे बिस्तर लगाकर लोग सोते थे। तब नदी में पर्याप्त पानी हुआ करता था। नदी के किनारों पर बैलगाडिय़ां ही बैलगाडिय़ां दिखती थीं। समय के साथ गांवों का जीवन बहुत बदला है। इसलिए मेले का स्वरूप भी बदला है। अब आवागमन के साधन बहुत हो गए हैं। लोग जब चाहे मेले पहुंच सकते हैं और रात को लौट सकते हैं। गांव के बहुत से लोग रोजी रोटी के लिए शहर चले गए हैं। वे दो तीन दिन रुकने के लिए नहीं आ पाते। मगर कभी कभी किसी से मेले में मुलाकात हो जाती है तो पुराने दिन बरबस याद आ जाते हैं।

(मेले में घूमते वरिष्ठ छायाकार प्रदीप साहू से बातचीत पर आधारित)
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Sunday, February 7, 2010

जहां संत पहुंच जाते हैं वहां कुंभ हो जाता है

संतों ने कहा- धर्म-धानी बनता जा रहा है छत्तीसगढ़

राजिम, 6 जनवरी। जहां संत पहुंच जाते हैं वहां उनकी वाणी का अमृत छलकने लगता है। जहां अमृत छलकता है वहां कुंभ होता है। यह बात संत समागम के शुभारंभ के अवसर पर स्वामी प्रज्ञानंद महाराज ने कही। इस मौके पर उपस्थित सभी संतों ने राजिम मेले के कुंभ स्वरूप का अनुमोदन किया और राज्य की निरंतर प्रगति की कामना की। स्वामी प्रज्ञानंद महाराज ने कहा कि आजकल धर्म और काम प्रधान पुरुषार्थ का प्रभाव बढ़ रहा है। काम धर्ममय होना चाहिए। छत्तीसगढ़ इस दिशा में बढ़ रहा है। वह धर्मधानी बनता जा रहा है। माटुंगा से आए संत शंकरानंद सरस्वती महाराज ने कहा कि संतों की शरण में जाए बगैर सुख नहीं मिलता। यहां तो देश के लगभग हर प्रांत से संत आए हुए हैं। उन्होंने राजिम कुंभ की उत्तरोत्तर प्रगति की कामना की। विवेकानंद आश्रम रायपुर के स्वामी सत्यस्वरूपानंद ने कहा कि धर्म ही भारत का मेरुदंड है। विदेशी आक्रमणों के बीच धर्म बचा रहा क्योंकि अनंत संतों की श्रंृखला इस देश में रही। उन्होंने कहा-आप धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म आपकी रक्षा करेगा। उन्होंने कामना की कि संत समागम धर्मजागरण में उपयोगी हो सकेगा। चंपारण्य में प्रवचन कर रहे जागेश्वर महाराज ने कहा कि संस्कृति आचरण में उतारने की चीज है। दवा की चर्चा से बीमारी दूर नहीं होती। उन्होंने कहा कि अपना आचरण ठीक करने के लिए अधिक कुछ नहीं लगता। सुबह जल्दी उठने में खर्च नहीं होता। माता पिता के चरण छूने के लिए पीएचडी करने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि आज लोग राम राम बोलना देहातीपन समझते हैं। यह दुर्भाग्य है। उन्होंने इस बात पर दुख प्रकट किया कि छत्तीसगढ़ में बहुत से युवा नशे की गिरफ्त में हैं। उन्होंने कहा कि धर्म अमृत है। यहां से अपना घड़ा भरकर ले जाएं। इसके लिए हृदय रूपी पात्र को शुद्ध करने की जरूरत है। संत समागम में उपस्थित न हो सके द्वारका पीठाधीश्वर स्वरूपानंद सरस्वती जी का संदेश मंच से पढ़कर सुनाया गया। इसमें उन्होंने कहा कि प्राचीनकाल से चली आ रही परंपरा का ऐसा संरक्षण अनुकरणीय है। पाटेश्वरधाम के बालकदास महात्यागी महाराज ने गोमाता की रक्षा का आह्वान किया। उन्होंने नक्सलवाद के समाधान के लिए संतों से शहर छोड़कर जंगलों की ओर जाने की अपेक्षा की। उन्होंने कहा कि जंगलों में संतों के आश्रम खुलेंगे तो वनवासियों के भीतर का अध्यात्म जागेगा। एक बेहतर छत्तीसगढ़ का निर्माण होगा। उन्होंने छत्तीसगढ़ में आज भी मौजूद जात पांत व छुआछूत पर चोट की और बताया कि पाटेश्वर धाम में बन रहे मंदिर में सभी धर्म-पंथों के देवी देवता महापुरुष एक साथ उपस्थित होंगे। कबीरपंथ के असंगजी साहेब ने कहा कि मनुष्य जब संभलता है तो धरती को स्वर्ग बना देता है। मनुष्य को संभालने के लिए राजिम कुंभ का आयोजन किया गया है। यह छत्तीसगढ़ के सुधार का कुुंभ है। हमारे आपके कल्याण का कुंभ है। इसे मान्यता मिलनी ही चाहिए। उन्होंने आह्वान किया कि लोग मांस-मछली, शराब, पुडिय़ा सब संतों के चरणों में समर्पित कर इनसे दूर रहने का संकल्प लें।

Saturday, February 6, 2010

वहां जोत जगाएं जहां अंधेरा है


(राजिम कुंभ में संत समागम के पहले दिन पाटेश्वर धाम के संत बालकदास महात्यागी द्वारा दिया गया उद्बोधन)


मेहमानों को भगवान मानना छत्तीसगढ़ की परिपाटी है जिसे हम निभाते आए हैं। राजिम कुंभ भी इसी परिपाटी के तहत चल रहा है। यहां आने वाले सभी अतिथि हमारे भगवान होते हैं। चाहे वे संत हों या जनता, सबके सम्मान की व्यवस्था इस मेले में की जाती है। छत्तीसगढ़ भगवान राम की भ्रमणस्थली है। यहां वे जंगल जंगल घूमे हैं। मैं छत्तीसगढ़ से बाहर जाता हूं तो यह कहते हुए मेरी छाती चौड़ी हो जाती है कि छत्तीसगढ़ मेरी जन्मभूमि है, मेरी कर्मभूमि है, मेरी दीक्षाभूमि है। यह वह छत्तीसगढ़ है जिसे आज इस मंच पर उपस्थित संत आकर सम्मानित कर रहे हैं। कहीं पर किसी ने मुझसे कहा कि छत्तीसगढ़ में एक ही कमी है, वहां तीर्थ नहीं है। मैंने कहा कि यह माता कौशल्या की जन्मस्थली है जिन्होंने जगत को प्रकाशित करने वाले, रघुकुल के सूर्य भगवान राम को जन्म दिया। स्वामी प्रज्ञानंद महाराज ने अपने संबोधन में माता कौशल्या के नाम पर एक भवन बनाने का प्रस्ताव दिया है। मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि 1 अप्रैल 2009 को विधानसभा के पास स्थित चंदखुरी गांव में माता कौशल्या की जन्मस्थली पर एक बड़ा आयोजन हुआ था। छत्तीसगढ़ शासन और क्षेत्रीय जनता का इसमें सहयोग रहा। आज हमें कौशल्या माता के नाम पर कोई स्मारक बनाने की आवश्यकता नहीं है। चंदखुरी में माता कौशल्या तालाब के बीच में रामलला को गोद में लेकर बैठी हैं। वे हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं कि इस स्थल के गौरव को पुनस्र्थापित करें। भविष्य में माता कौशल्या महोत्सव के नाम से वहां आयोजन होंगे। वहां सभी संतों के पूज्य चरणों में हम निवेदन करेंगे कि आपके आशीर्वचन वहां हमें प्राप्त हों। राजिम को कुंभ कहने के बारे में अब भी प्रश्न किए जाते हैं। अब कोई प्रश्न रह नहीं गया है। जब यह कुंभ शुरू किया गया था, मैं पूरे भारतवर्ष में संतों के चरणों में निवेदन लेकर गया। कई तरह की बातें मुझे सुनने को मिलीं लेकिन साथ ही आशीर्वाद भी मिला। शुभकामनाएं मिलीं कि राजिम कुंभ का आयोजन किया जाए। कुंभ को संतों ने इसे स्थापित किया है। प्रमाणित किया है। इसे विराट स्वरूप भी संतों ने दिया है। आज हरिद्वार में कुंभ होने के पश्चात भी बड़ी संख्या में यहां संपूर्ण भारत के संतगण विराजमान हैं। राजिम कुंभ की जितनी चिंता छत्तीसगढ़ शासन को, छत्तीसगढ़ के संतों को और बृजमोहन अग्रवाल को है उससे ज्यादा चिंता पूज्य आचार्यों को है कि हम नहीं जाएंगे तो राजिम कुंभ सूना हो जाएगा। इसलिए हरिद्वार को भी छोड़कर यहां बैठे हुए हैं। आज विभिन्न रूपों में सारे देश में छत्तीसगढ़ का गौरव जा रहा है। एक गौरव और जाना चाहिए। वह है गोरक्षा का। संपूर्ण छत्तीसगढ़ में गो माता को काटने का एक भी कत्लखाना नहीं है। एक प्रण यहां मुझे, आपको, छत्तीसगढ़ शासन को और प्रतिपक्ष को भी लेना पड़ेगा, सभी राजनीतिक पार्टियों को लेना पड़ेगा, सभी समाज संगठन के लोगों को लेना पड़ेगा। केवल कथा, पूजा, यज्ञ से कल्याण नहीं होगा। गोमाता की रक्षा का प्रश्न है जो ऐसे मंचों से उठना आवश्यक है। और साथ ही संकल्प आवश्यक है। छत्तीसगढ़ में गो वध पर पाबंदी लग चुकी है लेकिन हर बार मैं यह विषय उठाता हूं कि छत्तीसगढ़ से आसपास के सभी प्रदेशों में गौमाता बेची जाती है और वहां ले जाकर काटी जाती है। इसी राजिम कुंभ में चंद्रशेखर साहू ने एक प्रस्ताव किया था, यह शासन को सौंपा गया था और लागू भी होना है कि सीमांत क्षेत्रों में गोमाता को काटने के लिए बेचने वाले बाजारों पर प्रतिबंध लगे। यह स्पष्ट नीति बने कि मात्र कृषि योग्य जानवर बेचे जाएं। सीमांत क्षेत्रों में पशु जांच चौकी बनाकर कटने के लिए ले जायी जा रही गायों को रोका जाए। हम तो संत हैं। भिक्षा मांगकर जीवन यापन करते हैं। अगर हमें भिक्षा देना चाहते हैं तो एक संकल्प लीजिए-अगर हमारी गाय या बैल बूढ़े हो जाएं तो अपने धर्म का सौदा करके उसे बाजार में मत बेच देना। उसको जीवन भर सेवा देना। तब गौमाता की रक्षा होगी। पूज्य संतों के चरणों में दूसरा निवेदन करूंगा। आज समरसता की बात हम करते हैं। जैसा कि तुलसी ने कहा- सियाराम मय सब जग जानी। घासीदास बाबा ने कहा-मनखे मनखे एक। रामानंद जी ने कहा-जाति पाति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई। लेकिन आज भी कहीं कहीं नवधा रामायण जैसे मंचों पर जाति पांति, छुआ-छूत के नाम पर रामभक्तों को चढऩे नहीं दिया जाता। हम केवल प्रवचनों के माध्यम से इसे नहीं सुधार सकते। इसके लिए राजिम कुंभ जैसा वातावरण चाहिए जहां समस्त पंथ-संत विराजमान हैं। सबकी मर्यादा एक साथ विराजमान होती है। उसी तरह हमारे उपासना स्थल में सभी मत-धर्मों के देवी देवता, महापुरुष विद्यमान हों। आज करमा माता, परमेश्वरी माता को आप एक मंदिर में बिठा नहीं पाते हो। एक मंदिर में कबीरदास जी को, बाबा घासीदास जी को, नानक जी, महावीर जी को बिठाने में क्या हमें दिक्कत होती है? अगर हम समरसता की बात करते हैं, अगर हम कहते हैं कि सभी हमारे बंधु हैं तो हमारे उपासना स्थलों में भी ऐसी बात हो। पाटेश्वर धाम में ऐसा हो रहा है। जशपुर और बस्तर के सुदूर क्षेत्रों में हम अशांति से जूझ रहे हैं। मुझसे उड़ीसा में पत्रकारों ने पूछा था कि आज जंगलों में विघटनकारी तत्व क्यों बच गए हैं? मैंने कहा-पहले जंगलों में महात्मा रहा करते थे, संत रहा करते थे। तब जंगलों की पवित्र हवा शहरों को मिला करती थी। जब से संतों ने जंगल छोड़ दिया और शहरों में डेरा जमाना शुरू कर दिया तब से असामाजिक तत्व वहां आकर बसने लगे। पुन: एक बार हमारे संत जंगलों की ओर चलेंगे, वनवासी क्षेत्रों की ओर चलेंगे तो जंगल पवित्र हो जाएंगे और गलत तत्वों को जगह नहीं मिलेगी। ेएक बार राजिम में बात उठी थी कि यहां सभी अखाड़ों को, सभी संतों को भूमि प्रदान की जाए, सबके आश्रम बनाए जाएं तो मैंने कह दिया था कि राजिम में क्यूं? आज सभी आश्रम हरिद्वार या वृंदावन में क्यूं बनते हैं? ऐसे आश्रम बस्तर,सरगुजा, अंबिकापुर, जशपुर, दंतेवाड़ा में बनें। कालाहांडी में बनें जहां बच्चे बिकते हैं। समस्त आदिवासी क्षेत्रों में, अभावग्रस्त क्षेत्रों में बनें जहां शासन की सुविधाएं भी नहीं पहुंच पाती हैं।मैं अपने प्रणेता संतजनों से निवेदन करना चाहूंगा कि छत्तीसगढ़ केवल राजिम में नहीं है। वह बस्तर और सरगुजा में भी है। वह भोले भाले आदिवासियों के चेहरे और दिल में भी है। आप सबके चरण वहां भी पडऩे चाहिए। आपके ज्ञान की धारा वहां भी होनी चाहिए। आपकी वाणी का अमृत वहां भी बरसना चाहिए। आपके गुरुकुल, आपके अस्पताल, आपके आश्रम, आपकी संस्थाएं, इन सबके लिए शासन की ओर से खुला आमंत्रण होना चाहिए कि सभी संत उन क्षेत्रों में जाकर जोत जगाएं जहां अंधेरा है। हमारे आदिवासी, वनवासी बंधुओं के भीतर का भी अध्यात्म जागे जिन्हें बरगलाया जा रहा है। तब छत्तीसगढ़ का जो दृश्य बनेगा वह भारत के लिए आदर्श होगा।

Saturday, January 30, 2010

चार कुंभ में हो राजिम का अनुसरण


(पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने राजिम कुंभ 2010 के औपचारिक उद्घाटन समारोह में एक यादगार संबोधन दिया। इसका एक अंश)


त्रिवेणी के तट पर यह जो कुंभ कल्प आयोजित किया गया है, इसका बहुत महत्व है और इसकी कुछ विशेषता है जो मुझे बहुत प्रमुदित करती है। यहां एक मंच है। अन्यत्र आप जाएंगे, एक मंच नहीं सुलभ होगा। हजारों मंच होंगे, हजारों तरह की परस्पर विपरीत धाराएं सुलभ होंगी। इतना कोलाहल होगा कि एक दूसरे की बात को दबाने का ही प्रयास करेगा। यहां एक मंच है, एक समय एक ही वक्ता बोलते हैं। संत महात्मा हों या राजनीति से संबद्ध महानुभाव हों, परस्पर सद्भाव है। संवाद के कारण एकरूपता है। एक मंच और सभी वक्ताओं का मंतव्य भी एक। वेदादि शास्त्रों के अनुरूप पूरे विश्व का उत्कर्ष देखने की भावना से यहां की पहचान अद्भुत हो गई है। इस विशेषता को परंपरा से जो चार कुंभ के स्थान कहे जाते हैं, वहां पर उतारने का प्रयास किया जाए । इसकी अनुकृति नासिक, प्रयाग, उज्जैन और हरिद्वार में भी होनी चाहिए, यह हमारी भावना है। हम सब भगवान राम के पावन सानिध्य में विराजमान हैं। भगवान सर्वरूप हैं, सर्वव्यापक हैं, सर्वांतर्यामी हैं सर्वातीत हैं। लेकिन शास्त्र रीति से हम उनको मूर्ति के रूप में भी प्रतिष्ठित करते हैं। मंत्रों के बल पर जो हमारे देवी देवताओं की प्रतिष्ठा होती है, उनमें भगवान का उज्जवल तेज प्रतिष्ठित होता है, उनकी पूजा से मनोरथ की सिद्धि होती है अत: हमें मूर्ति के रूप में भी भगवान का समादर करना ही चाहिए। जैसे अग्नि तत्व या तेज तत्व तो सर्वत्र विद्यमान है लेकिन जब तक हम घर्षण के द्वारा उसको व्यक्त नहीं करते, तब तक यज्ञ की सिद्धि नहीं होती। भोजन की सिद्धि नहीं होती, प्रकाश की प्राप्ति नहीं होती, उष्णता की प्राप्ति नहीं होती। अत: शास्त्र सम्मत रीति से जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई है, वहां भी भगवान को अवश्य देखना चाहिए। रामचरित मानस के आधार पर सूत्र रूप में हम छह संदेश देना चाहते हैं। शासन और सामाजिक तंत्र से संबद्ध जितने महानुभाव हैं, ध्यान से सुनें। भगवान राम के जीवन में शील और स्नेह की प्रतिष्ठा और पराकाष्ठा है। हमारे जीवन में, परिवार में, समाज में, छत्तीसगढ़ में, विश्व में शील और स्नेहपूर्ण वातावरण होना चाहिए। इसके बाद शुचिता और सुंदरता की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। शुचिता का मतलब है शुद्धता। जीवन में शुचिता हो, स्वच्छता हो, घर में शुचिता हो, स्वच्छता हो, सर्वत्र शुचिता का समादर होना चाहिए। सुंदरता का सन्निवेश होना चाहिए। संपत्ति और सुमति से व्यक्ति और समाज का जीवन युक्त होना चाहिए। और हर व्यक्ति सुरक्षित होना चाहिए। शासन तंत्र का पहला दायित्व है कि भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव, त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय और जो विवाह के लिए अधिकृत हैं उनको विवाह की समुचित सुविधा उपलब्ध हो। नागरिकों को सुबुद्ध बनाना, स्वावलंबी बनाना और सहिष्णु बनाना उसका कर्तव्य है। मैं भारत और नेपाल को राजनीति की परिभाषा देना चाहता हूं। इन दो प्रमुख हिंदू बहुल राष्ट्रों में राजनीति की परिभाषा क्या होनी चाहिए? अन्यों के हित का ध्यान रखते हुए हिंदुओं के अस्तित्व और आदर्श की रक्षा, देश की सुरक्षा और अखंडता। और जो राजनीतिक दल तथा राजनेता इस सिद्धांत में आस्था रखता हो, उसी का राजनीति में प्रवेश होना चाहिए। पूरे विश्व स्तर पर राजनीति की क्या परिभाषा होनी चाहिए? जहां परंपरा से जिस वर्ग की प्रमुखता हो, वहां अन्यों के हित का ध्यान रखते हुए उस वर्ग के अस्तित्व और आदर्श की रक्षा। देश की सुरक्षा और अखंडता। मनुस्मृति में राजनीति का पर्याय है राजधर्म। दंड नीति, अर्थशास्त्र। सनातन मान्यता के अनुसार सर्वे भवंतु सुखिन: की भावना को शासकीय विधा का आलंबन लेकर भूतल पर उतारने की प्रक्रिया का नाम राजनीति है। अराजक तत्वों की बपौती का नाम कहीं भी राजनीति नहीं है। शंकराचार्यों का, संतों का दायित्व यह देखना है कि राजनीति दिशाहीन न हो। राजनेता दिशाहीनता से बचें, धर्म नियंत्रित, शोषण विनिर्मुक्त, पक्षपातविहीन शासन तंत्र की स्थापना में सहभागिता का परिचय दें। राजनेताओं का अनुगमन करके उनके मिथ्या, अनर्गल प्रलाप का समर्थन करना संतों का दायित्व नहीं है। एक बात का संकेत करना चाहता हूं। किसी दल के किसी प्रधानमंत्री के शासनकाल में सात बरसों तक पंजाब उग्रवाद की आग में झुलसता था। उसी दल के एक प्रधानमंत्री के कार्यकाल में उग्रवाद का दमन कर दिया गया। मैं किसी का निंदक या प्रशंसक नहीं हूं। इस घटना के बाद मैंने शिक्षा ग्रहण की कि राजनेताओं की चाल से राजनीति में जो दिशाहीनता आती है उस पर पानी फेरने का काम भी राजनेता ही कर सकते हैं।

Thursday, January 28, 2010

आदिवासियों को नहीं मिलते औद्योगीकरण के लाभ


(पूर्व सांसद-केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम से हाल ही में यह लंबी चर्चा हुई। )


कांकेर से 30 किलोमीटर दूर जंगल के एक गांव में मेरा जन्म हुआ। ग्रैंड फादर ट्राइबल कम्युनिटी के चीफ थे। फादर तीन बार एमएलए रहे। मेरा परिवार राजनीति की बजाय सामाजिक कार्यकर्ता ज्यादा रहा है। हमें यह गुण विरासत में मिला। आज राजनीति में रहकर भी हम सामाजिक पहलू को हमेशा ध्यान में रखते हैं। मेरी प्राथमिक शिक्षा गांव में हुई। कांकेर में हाई स्कूल पढ़े। कालेज रायपुर से किया।


राजनीति विरासत में मिली

पारिवारिक वातावरण के कारण छात्र जीवन से ही राजनीति और सामाजिक कामों में रुचि लेने लगे। मध्यप्रदेश के जमाने में हम लोगों ने आदिवासी छात्रों का एक संगठन बनाया था। डा। भंवरसिंह पोर्ते, दिलीप सिंह भूरिया जैसे लोग उसमें थे। बाद में उसमें से कुछ लोग राजनीति में चले गए, कुछ प्रशासन में। यह हमारा पहला प्रयास था। इसके चलते प्रदेश में आदिवासियों का एक नेटवर्क तैयार हुआ। वरना ग्वालियर के आदिवासी का बस्तर के आदिवासी से कोई लेना देना नहीं होता था। बाद में हमें राजनीति में भी इसका लाभ मिला और सामाजिक कामों में भी। मध्यप्रदेश में आदिवासियों की एक राजनीतिक ताकत महसूस होती थी। उनका दबाव बनता था, असर दिखता था। छत्तीसगढ़ में उनकी बहुलता होते हुए भी यह बात नजर नहीं आती। अच्छे लोगों को बढ़ावा नहीं मिलता पहले देश और प्रदेश की राजनीति में लोग अच्छे लोगों को एनकरेज करते थे। वे चाहते थे कि आदिवासी समाज से भी अच्छे लोग सामने आएं। बाद में ऐसा लगने लगा कि कुछ दूरी तक तो जाने देंगे, उसके आगे जाने नहीं देंगे। ऐसा सभी पार्टियों में है। बलीराम कश्यप, नंदकुमार साय जैसे वरिष्ठ नेताओं को क्या मिला? क्या उन्हें देश और प्रदेश की राजनीति में पर्याप्त महत्व मिला? महेंद्र कर्मा नेता प्रतिपक्ष रहे, उसके बाद? इससे देश में मौजूद एक सोच का पता चलता है। मेरी यह धारणा है कि अब देश की राजनीति हो या ट्राइबल पॉलिटिक्स, उसमें अच्छे लोगों को पिक-अप नहीं करेंगे। ये तो पक्का है। उसका नतीजा ये होगा कि आदिवासियों का असर नहीं दिखेगा। हर समाज पर यह बात लागू होती है।


रिएक्शन तो होगा

कभी न कभी इसका रिएक्शन तो होगा। देखिए, पिछड़े वर्ग की राजनीति ने आज देश में जगह बना ली है। पहले ओबीसी को कौन पूछता था? आदिवासी समाज से भी प्रतिक्रिया आएगी। इसका स्वरूप क्या होगा मैं नहीं जानता। नई पीढ़ी पढ़ लिख कर आ रही है। शिक्षा के कारण उसमें और हमारी पीढ़ी में अंतर दिख रहा है। वह अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों को जानती है। संवैधानिक प्रावधानों की चर्चा करती है। वह पूछेगी कि ये प्रावधान लागू क्यों नहीं हो रहे। ये अन्याय क्यों हो रहा है। अगर राजनीति में लोगों की आज जैसी सोच रही तो हो सकता है आने वाले दिनों में लोग सामाजिक स्तर पर राजनीति करने लग जाएं। आदिवासी नेताओं के बारे में मुझे नहीं लगता कि दिल्ली भोपाल की राजनीति करने वालों ने अपनी जमीन ही छोड़ दी। मुझे एक भी उदाहरण दिखता नहीं। मैं दूसरों की नहीं कह सकता, अपने समाज की तो कह सकता हूं। हम लोगों ने जो राजनीति की, जमीनी ताकत की वजह से की।


संस्कृति को बचाना मुश्किल


यह बात सही है कि संस्कृति और रीति रिवाज को इंटैक्ट रखना बहुत मुश्किल हो रहा है। इसके कई कारण हैं। जैसे टीवी का असर। यह सारे देश में हो रहा है। ट्राइबल भी अछूता नहीं रह सकता क्योंकि अब गांव गांव टीवी हो गया है। आदिवसी समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम नई पीढ़ी को एजुकेट नहीं कर पा रहे हैं, सामाजिक तौर पर। हर समाज की अपनी मान्यताएं होती हैं, पूजा विधियां होती हैं। यह शिक्षा समाज की ओर से मिलनी चाहिए। यह व्यवस्था धीरे धीरे कमजोर होती जा रही है। मेरे जैसा पढ़ा लिखा आदमी यह महसूस करता है कि पढ़ लिख कर भी अपनी संस्कृति पर कायम रहा जा सकता है। हम भी पढ़े लिखे हैं पर अपनी संस्कृति के बारे में बहुत अडिग हैं। समझौता नहीं करते। चाहे पूजा पद्धति हो, शादी ब्याह हो, रीति रिवाज हो। पर आने वाली पीढ़ी यह नहीं करेगी। भले ही वह पढ़ी लिखी हो। हम से पहले वाली पीढ़ी में लोग निरक्षर रहे लेकिन अपने रीति रिवाजों पर डटे रहे। हमारी पीढ़ी में कुछ लोग डटे रहे कुछ हिले। नई पीढ़ी इतना भी नहीं करेगी। एंथ्रोपोलॉजी सब्जेक्ट दुनिया से धीरे धीरे खत्म हो जाएगा ऐसा लगता है।


विकास कैसा हो?

ट्राइबल कम्युनिटी का विकास कैसा हो, यह बहुत कठिन विषय है। इसके अलग अलग उत्तर मिलते हैं। एक उद्योगपति से पूछो तो वह कहेगा औद्योगीकरण से विकास होगा। एक सोशल एक्टिविस्ट से, एक पर्यावरणवादी से पूछोगे तो कहेगा नहीं भई, इससे नुकसान होगा। आप विकास को रोक नहीं सकते। उदारीकरण से यह हुआ है कि दुनिया का कोई भी इनवेस्टर इस देश में इनवेस्ट कर सकता है। लेकिन ये जो हैवी इनवेस्टमेंट है प्राइवेट सेक्टर में, यह गरीब आदमी का कभी खयाल नहीं रख सकता। यह बात दुनिया की हिस्ट्री में है। यह नफे का ही खयाल रखेगा, बाकी कुछ नहीं। औद्योगीकरण से कभी आदिवासी समाज को लाभ नहीं मिला। आप झारखंड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश में देख लीजिए। कितने आदिवासियों को नौकरी मिली? बैलाडीला के आसपास के गांवों को जितना मिलना था, नहीं मिला। इतने साल का मेरा राजनीतिक अनुभव कहता है कि आदिवासियों को औद्योगीकरण का लाभ नहीं मिलता, वह दूसरों को मिलता है। कारपोरेट सेक्टर की सोच से हम सरीखे आदमी को डर लगता है कि कहीं हम अपरूट न हो जाएं। ट्राइबल के बारे में लोगों की एक धारणा है कि अरे भई पैसा ले लो और कहीं भी बस जाओ। देखिए, इस जमीन पर हमारे बाप दादाओं की कब्र है, देवी देवताओं के स्थान हैं, खेत हैं। जमीन से जैसा मोह आदिवासी का होता है, दुनिया के किसी समाज में आप नहीं पाएंगे। इसलिए अपरूट होना, डिस्प्लेस होना सबसे तकलीफदेह बात होती है। सेंटीमेंट को, भावनाओं को इस देश में क्या, दुनिया में बहुत कम लोग समझते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है। इसलिए मैं बहुत ज्यादा इंडस्ट्रियलाइजेशन के पक्ष में नहीं हूं। इंडस्ट्रियलाइजेशन हो तो सेफगार्ड भी होनी चाहिए। आजादी के इतने साल बाद अब यह बात कानून में आई है कि विस्थापित होंगे तो पुनर्वास भी होगा। पहले ऐसा नहीं था।


नक्सलवाद का इलाज बंदूक नहीं

नक्सलवाद मेरे हिसाब से एक राजनीतिक मूवमेंट है। एक्सट्रीम लेफ्ट का मूवमेंट है। मैंने इस विषय पर बहुत किताबें पढ़ी हैं। पार्लियामेंट की लाइब्रेरी में और बाहर भी। इसका निचोड़ यह है कि जहां गरीबी, भुखमरी, बेकारी और शोषण हो वहां नक्सलवाद जरूर आएगा। आजादी के इन साठ बरस में देश के आदिवासी इलाकों के लिए कोई गंभीर नजर नहीं आया। मुझे इंदिराजी के साथ काम करने का मौका मिला। वे इन मामलों में थोड़ा टची थीं। राजीव जी को अधिक अवसर नहीं मिला। मैं लगातार प्रधानमंत्रियों से इस बारे में कहता रहा पर कोई गंभीर दिखा नहीं मुझे। नक्सलवाद का सबसे बड़ा कारण है शोषण। चाहे वह सरकारी अमले की तरफ से हो चाहे व्यापारियों की तरफ से। दोनों तरफ से शोषण होगा तो आखिर होगा क्या? आज भी बस्तर में चले जाइए, मुझे एक भी विभाग के बारे में बता दीजिए कि उसकी कुछ उपलब्धि है। ग्रामीण उसका फायदा उठा रहे हों। इतने साल बाद भी हम आधे से भी कम लोगों को शिक्षित कर पाए। दुनिया के कई देश, जिनमें अफ्रीका के देश भी शामिल हैं, हमसे बाद में आजाद हुए और शिक्षा के क्षेत्र में हमसे आगे निकल गए। शोषण का जो आलम है, उसमें नक्सलवाद का पैदा होना मुझे स्वाभाविक लगता है। नक्सलवाद कोई आज का थोड़े ही है। आजादी के पहले भी मूवमेंट रहा है, कम्युनिस्ट एक्स्ट्रीम लेफ्ट का। एक सवाल है कि बंगाल में नक्सलवाद क्यों नहीं रहा? अभी मैं ज्योति बाबू के बारे में पढ़ रहा था कि वे 27 साल चीफ मिनिस्टर रहे। उन्होंने गरीबों के लिए कुछ तो किया होगा? उन्होंने भूमि सुधार किया। बाकी राज्यों में यह क्यों नहीं हुआ? नक्सलियों की अपनी प्लानिंग होती है कि पांच साल में हमको क्या करना है, दस साल में क्या करना है, पंद्रह साल में क्या करना है। सत्तर के दशक तक वहां नक्सली नहीं थे। वे अपनी योजना के तहत वहां आए। उनको काउंटर करने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं रही। आने दो, आने दो, आने दो, देखेंगे, यह उनकी सोच रही। उस बादशाह का किस्सा सुना होगा आपने जो दुश्मन फौजों के आने की खबर सुनकर कहता रहा कि अभी दिल्ली दूर है। उसके हाथ से दिल्ली जाती रही। नक्सली कोई एक दिन में पैदा नहीं होते। सरकार को भी मालूम है कि उसे पैर जमाने में कम से कम पांच-दस साल लगते हैं। सरकार की ऐसी सोच बनी कि उसे कैसे काउंटर किया जाए? आप देखिए कि साठ साल में बस्तर पर कितना खर्च हुआ? आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 1933 के सेटलमेंट का रिकार्ड तो आपको मिल जाएगा लेकिन उसके बाद हुए दो सेटलमेंट का रिकार्ड नहीं है। राजस्व विभाग का यह बुनियादी काम है। यही काम नहीं किया तो आखिर काम क्या किया? पोतों के बीच बटवारा हो चुका है और जमीन दादा के नाम पर ही दर्ज है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में बुरा हाल है। पीने के पानी का बुरा हाल है। हम आधे लोगों को भी शिक्षित नहीं कर पाए। खेती में भी शहरों के आसपास तो आपको असर दिखेगा, लेकिन सरकार की योजनाएं अंदर के गांवों तक पहुंच नहीं पायीं। क्या पहुंचा है यह तो देखिए? यह अखबारों के लिए शोध का अच्छा विषय है। इन्हीं इलाकों में नक्सलवाद क्यों पैदा हुआ? उन्होंने जनता का विश्वास क्यों अर्जित कर लिया। हमें सोचना होगा कि क्या प्रशासनिक बदलाव किए जाएं। क्या प्राथमिकताएं रखी जाएं। लोगों को प्रशासन में कैसे शामिल करें, जैसा कि रियासत के समय होता था। ऐसी बहुत सी चीजें हैं। बंदूक इसका समाधान नहीं है। लोगों की जान-माल की रक्षा राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। उसके निर्वहन के लिए तो ठीक है लेकिन कोई कहे कि नक्सलवाद का समाधान बंदूक से हो सकता है तो मैं इससे सहमत नहीं हूं। आप दुनिया का इतिहास उठा कर देख लीजिए। किसी प्लानिंग प्रोसेस से, बातचीत से आप इस समस्या का समाधान निकाल सकते हैं। आदिवासी इलाकों की समस्याओं के बारे में राजनेताओं के पास वक्त नहीं है। जब वक्त नहीं है तो आप ध्यान भी नहीं देंगे। यह चिंता का विषय है। चिदंबरम जी के आने से थोड़ी सी उम्मीद जगी है, उन्होंने कहा है कि पुलिस कार्रवाई के साथ साथ विकास भी करेंगे। अभी यह कहीं पढऩे को नहीं मिला कि किस तरह का विकास करेंगे। कभी मुलाकात होगी तो पूछना पड़ेगा। अगर अभी तक जैसा होता आया कि करोड़ों खर्च करने के बाद भी रिजल्ट जीरो, तब तो कोई मतलब नहीं। सरकार में कोई भी रहा हो, चूक तो हुई है। वरना ये लोग इतना बढ़ते कैसे? आज भी कितने हथियार लगेंगे इसकी चर्चा हो रही है। विकास योजनाओं की चर्चा नहीं हो रही। हो भी रही तो पेपर पर। बस्तर में जंगल कम होते जा रहे हैं। वैसे अब जंगल इस देश में रह कहां गया? थोड़ा बहुत है। लेकिन जो रिकार्ड में है वह नहीं है। जंगल पर पापुलेशन का दबाव बहुत है। जंगल बचाना और पापुलेशन को भी फीड करना-ये बहुत टेढ़ी खीर होगी। या तो आप पापुलेशन की जरूरतें देख लीजिए या जंगल को बचा लीजिए। दोनों में से एक हो सकता है। आदिवासी को जमीन चाहिए। भारत सरकार ने पट्टा देने की जो बात कही है उसका कारण यही है।


अब मिल बैठ कर चर्चा नहीं होती

बारह तेरह साल तक हम पार्लियामेंटरी फोरम के अध्यक्ष रहे। एससी-एसटी का कंबाइंड होता था। अखिल भारतीय विकास परिषद से भी जुड़े रहे। इनमें बहुत से मुद्दों पर चर्चा करते थे, सरकार तक बातें पहुंचाते थे। नारायणन साहब के लिए हम लोगों ने आल पार्टी फोरम की ओर से मांग की कि हमें दलित-आदिवासी समाज से प्रेसिडेंटशिप चाहिए। सभी राजनीतिक दलों से बात की। सभी पार्टियों ने कहा- प्रेसिडेंट तो नहीं, हम आपको वाइस प्रेसिडेंट देंगे। तो हमें यह कामयाबी मिली। यह कोई छोटी मोटी घटना नहीं थी। हमने रिसेप्शन में नारायणन साहब से कहा- अब आपको प्रेसिडेंट बनने से कोई नहीं रोक सकता। पहले के सांसद पार्टी के ऊपर से उठकर गंभीरता से बात करते थे। मुद्दों पर हम अपनी आवाज बुलंद करते थे। अब वह बात नहीं दिखती। आदिवासी इलाकों के लिए अब कमिटेड ब्यूरोके्रट्स भी नहीं मिलते। पहले ब्रह्मदेव शर्मा, भूपिंदर सिंह, शंकरन जैसे अफसर होते थे जिन्होंने अपना जीवन इन इलाकों के लिए समर्पित कर दिया। अब ऐसे अफसर ढूंढे से नहीं मिलेंगे। राजनीति में भी यही हाल है। एक बड़ी समस्या यह है कि आदिवासी का विकास कैसा होना चाहिए, यह आदिवासी से कोई नहीं पूछता। पहले मुझको प्लानिंग कमीशन में बुलाते थे। चर्चा होती थी। पंचवर्षीय योजनाओं मेंं योजनाकार आदिवासी इलाकों के लिए बजट बढ़ाते थे और यह भी तय कर देते थे कि पैसे कहां कहां खर्च होंगे। आज भी योजनाएं आफिस के बाबू बनाते हैं। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ने चीफ सेक्रेटरी को लिखा, चीफ सेक्रेटरी ने कलेक्टर को भेज दिया, कलेक्टर ने ट्राइबल डिपार्टमेंट के डिप्टी डायरेक्टर को भेज दिया, उन्होंने बाबू को भेज दिया। बिलकुल यही होता है। यह विडंबना है।


परिवार के लोग अपने बूते पर आएंगे

हमारा परिवार सामाजिक कामों में ज्यादा रहा है। इसमें ऐसा है कि समाज से अंतिम सांस तक जुड़ाव रहता है। आप खाट पर भी पड़े हों तो लोग मिलने जुलने आते हैं और सामाजिक चर्चा हो जाती है। मैं देश भर के सामाजिक कार्यक्रमों में जाता रहता हूं और एक बात जरूर कहता हूं कि सरकारी नौकरियों के दरवाजे अब बंद हो रहे हैं। समाज में पढ़े लिखे बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है। बेरोजगारों की फौज खड़ी होती जा रही है। यह बड़ी समस्या है। पालक सोचते हैं कि बच्चा पढ़ लिख जाएगा तो तुरंत नौकरी मिल जाएगी। अब वह बात नहीं रही। यह संक्रमण काल है। समाज को इसे गंभीरता से लेना चाहिए। जब नौकरी ही नहीं रहेगी तो सरकार से क्या उम्मीद करें। इन दिनों ज्यादातर जगदलपुर में रहना होता है। सामाजिक कामों में रहते हैं। कुछ कांग्रेस पार्टी का काम भी कर लेते हैं। अब राहुल जी का जमाना है। वे युवा हैं, उनकी सोच आम राजनीतिज्ञों से हटकर है। वे बदलाव लाएंगे, इसमें दो मत नहीं। बदलाव होना भी चाहिए। हमारी नई पीढ़ी को राजनीति में लाने के बारे में लोग पूछते हैं। हम तो अपने परिवार के लोगों से कहते नहीं। रुचि होगी तो अपने बलबूते पर आएंगे।

Friday, January 22, 2010

हम भी तो अपनी बात लिखें अपने हाथ से

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी इन दिनों राजनीति को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश में लगे हैं। हर युवा की तरह देश और दुनिया को लेकर उनके पास साफ सुथरे सपने हैं। हालात में बदलाव लाने के लिए उनमें जरूरी ऊर्जा भी है और उम्र भी उनके साथ है। यह युवाओं के लिए एक अच्छा मौका है कि वे राजनीति में अपनी भूमिका के बारे में सोचें। उसमें बदलाव लाने के लिए अपना योगदान देने के बारे में विचार करें। वह बदलाव जिससे देश और समाज का भला होगा और अंतत: खुद युवाओं को भी रहने के लिए एक बेहतर दुनिया मिलेगी। वह दुनिया जिसमें उनकी प्रतिभा का सम्मान होगा, उनकी विशेषज्ञता का उपयोग होगा और उनके आगे बढऩे के रास्ते आसान होंगे। वंचित युवाओं को मार्गदर्शन मिलेगा, प्रशिक्षण मिलेगा और रोजगार भी। जिसमें आधी दुनिया की भागीदारी सुनिश्चित होगी जो अभी तक उपेक्षित है। जिस भागीदारी से राजनीति ममतामयी होगी, करुणामयी होगी, सुव्यवस्थित होगी। जिसे हम घर जैसा महसूस करेंगे। यह सब बातें करने के लिए राहुल गांधी एक बहाना हैं। ऐसी दुनिया का सपना हर युवा के मन में होता है। लेकिन इनमें से ज्यादातर लोग राजनीति से जुडऩे की बात भी नहीं सोचते। किसी जमाने में एक्टिंग से जुडऩा खराब माना जाता था। महिलाओं का पढऩा लिखना अच्छा नहीं माना जाता था। खेल कूद को भी खराब होने का रास्ता माना जाता था। क्या आज हम इन बातों को स्वीकार कर सकते हैं? इसी तरह राजनीति से जुडऩा भी आज की जरूरत है। इसे न हम अस्वीकार कर सकते हैं न नजरअंदाज। युवा पीढ़ी को यह समझना होगा कि वह लोकतंत्र में रह रही है। यहां हम ही सरकार हैं, हमें ही काम करना है, हमें ही अपनी तकदीर का फैसला करना है। और इसके लिए जाहिर है कि हमें ही जिम्मेदारियां उठानी होंगी। आज राजनीति में ऐसे बहुत से लोग सक्रिय हैं जो किसी विषय के विशेषज्ञ नहीं हैं। वे जिनके पास देश, समाज और दुनिया के लिए कोई सपना नहीं है, सिर्फ अपनी तरक्की की योजनाएं हैं। राजनीति में ऐसे लोगों की बहुतायत का ही नतीजा है कि हमें चलने के लिए खराब सड़कें मिलती हैं, सांस लेने के लिए प्रदूषित हवा। सरकारी दफ्तरों में रिश्वत ली जाती है और गलत लोगों को ठेके मिलते हैं। यह सब चलन इतना हावी है कि हममें से बहुतों को यह पता ही नहीं होता कि अच्छा काम होता क्या है? आज युवाओं की जो फौज राजनीति में सक्रिय है, उसमें से ज्यादातर युवाओं की पहचान किसी स्थापित नेता के पिछलग्गू की है। उनकी ऊर्जा इन नेताओं के पीछे घूमने, शक्ति प्रदर्शन करने और पुतले जलाने में खर्च हो रही है। ऐसे उदाहरण कम हैं कि इन युवाओं ने किसी एक गांव में जनकल्याण की सरकारी योजनाओं को ईमानदारी से लागू करवा कर दिखाया हो। वे खुद सोचें कि उनका जीवन किस तरह बीत रहा है? वे अपनी जिंदगी जी रहे हैं या किसी और की? एक और महत्वपूर्ण बात। अच्छे लोगों की परिभाषा क्या है? हममें से बहुत से लोग यह मानते हुए बड़े होते हैं कि अपने काम से काम रखना, किसी से विवाद न करना अच्छा होना है। इस परिभाषा की आड़ में हम आत्मकेंद्रित हो जाते हैं, अपनी जिम्मेदारियों से मुंह फेर कर निकल जाते हैं। अच्छा आदमी वह होता है जो जरूरतमंदों के काम आता है, अन्याय के खिलाफ खड़े होने का साहस रखता है। और इसके नतीजों का सामना करने का जिसमें धैर्य है। आज राजनीति में बहुत से ऐसे लोग हैं जो भ्रष्ट हैं लेकिन चुनाव जीतते हैं। इसकी वजह यह है कि तथाकथित अच्छे लोगों की तुलना में ये लोग जनता के लिए अधिक उपयोगी भी हैं। लोगों के काम के लिए वे नगर निगम के दफ्तर तक चले जाते हैं, मोहल्ले में सफाई कर्मी बुलवा देते हैं, किसी अस्पताल का बिल कम करवा देते हैं, पुलिस का कोई मामला हो तो वे पीडि़त के साथ खड़े नजर आते हैं। अनजान लोगों को भी वे सड़क से उठा कर अस्पताल पहुंचा देते हैं, जरूरत पडऩे पर खून भी दे देते हैं। जो लोग अपने को अच्छा मानते हैं वे ऐसे कितने काम करते हैं? कितनों के काम आते हैं? कितने लोग हैं जिनका साहस, जिनकी सेवा एनसीसी का सर्टिफिकेट मिलने के बाद भी जारी रहती है? अगर हममें ये गुण नहीं हैं, हम किसी के काम नहीं आते तो अपने को किस लिए सराहते हैं? किसी को बुरा कहकर किसलिए कोसते हैं? राहुल गांधी के बहाने से हमें राजनीति में अपनी भूमिका के बारे में विचार करना चाहिए। यह वक्त की जरूरत है और हमारी भी।

Sunday, January 17, 2010

हमने क्या दिया?

गणतंत्र दिवस के मौके पर हम अक्सर अपने गणतंत्र के बारे में सोच विचार करते हैं। हम अक्सर यह सोचते हैं कि इतने बरस बाद हमने अपनी गणतांत्रिक व्यवस्था से क्या पाया? और यह सोचते हुए हम अक्सर निराशा या फिर नाराजगी से भर जाते हैं।
हमारे आसपास निराश और नाराज करने की बहुत सी वजहें मौजूद हैं। लेकिन यह देखना होगा कि हमारी निराशा से क्या कोई समाधान निकलता है? हमारी नाराजगी क्या हमारी दुनिया को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाने में काम आ रही है?
अपने गणतंत्र से हमारी निराशा या नाराजगी अक्सर किसी काम की नहीं होती। उससे किसी का भला नहीं होता। खुद अपने को भी इससे कोई फायदा नहीं मिलता। अक्सर हम व्यवस्था में सुधार तो करना चाहते हैं लेकिन चाहते हैं कि सुधार का काम नगर निगम करे, पुलिस करे, राजनीतिक दल करें, सामाजिक संगठन करें। लेकिन बहुत से सुधार हैं जो हम खुद भी कर सकते हैं। अपने घर से इसकी शुरुआत कर सकते हैं। तेज आवाज में रेडियो न बजाएं। कचरा सड़क पर न फेंकें। कुछ पेड़ -पौधे लगाकर रखें। ेएक तर्क यह दिया जाता है कि हम ही क्यों करें? दूसरे लोग तो कुछ नहीं कर रहे। यह सिर्फ नीयत का सवाल है। अगर आप कुछ करना चाहें तो आपको अपने जैसे लोग मिलते जाएंगे। अगर आप मंदिर जा रहे हों तो आपको रास्ते में कुछ लोग मिल जाएंगे जो मंदिर जा रहे होंगे। अगर आप शराब खरीदने जा रहे हैं तो रास्ते में आपको दो चार लोग मिल ही जाएंगे जो शराब खरीदने जा रहे हों। एक तर्क अक्सर दिया जाता है कि इतनी बड़ी व्यवस्था को हम अकेले कैसे सुधार पाएंगे। व्यवस्था को सुधारने के लिए पहले खुद को सुधारना पड़ता है। जिस दिन हम खुद को बदलने लगेंगे हमारी यह धारणा बदल जाएगी कि देश के लिए एक भी आदमी नहीं सोचता। आपको पता होगा कि कम से कम एक आदमी तो सोचता है। और वो आप हैं।
गणतंत्र का अर्थ है जनता का शासन। जनता अपने काम करने के लिए प्रतिनिधि चुनती है। वे जनता के बीच से चुने जाते हैं। जनता के लिए काम करते हैं। हमने लंबे समय तक राजतंत्र को जिया है। सामंती व्यवस्था में जीते आए हैं। इसलिए हम अपने प्रतिनिधियों को राजा-महाराजाओं का दर्जा दे देते हैं। जब वे हमारा पैसा महंगी गाडिय़ों, अनावश्यक दौरों और अपने लाव लश्कर की जरूरतों पर खर्च करते हैं तो हम उनका विरोध नहीं करते, उन्हें फूलों के हार पहनाते हैं। हम भूल जाते हैं कि यह हमारी सरकार है, यह व्यक्ति हमारा काम करने के लिए चुना गया है, यह जो अपव्यय कर रहा है यह हमारा ही पैसा है। जिस दिन हम यह सोचने लग जाएंगे, हमारे गणतंत्र को मजबूती मिलने लगेगी।
हम ऐसी विसंगतियां अपने आसपास रोज देखते हैं, लेकिन उनमें सुधार के लिए कोई योगदान नहीं देते। अपने घर के आसपास कूड़ा हम ही फैलाते हैं और शहर की गंदगी के लिए म्यूनिसिपल को कोसते हैं। हम तेज आवाज में रेडियो और टीवी चलाते हैं और ध्वनि प्रदूषण पर चिंता करते हैं। हम अपनी बारात अधिक से अधिक सड़क घेर कर निकालना चाहते हैं और दूसरों की बारात निकलती है तो हमें बुरा लगता है। हमारे घर के नाबालिग बच्चे जानलेवा रफ्तार से गाडिय़ां चलाते हैं और जब ट्रैफिक पुलिस उन्हें पकड़ती है तो उन्हें छुड़वाने के लिए अपनी पहुंच का इस्तेमाल करते हैं। हम अपनी दूकान का सामान सड़क पर फैला देते हैं। हम कचहरी के क्लर्क को रिश्वत देकर अपना काम निकलवा लेते हैं और व्यवस्था को गालियां देते हुए वहां से निकलते हैं। हमारे कारखाने धुआं उगलते हैं और हम सरकारी अफसरों से सांठ गांठ कर ईएसपी बंद रखते हैं। हममें से ही कुछ लोग इसके खिलाफ आंदोलन करते हैं और फिर कुछ दिनों बाद रहस्यमय ढंग से खामोश हो जाते हैं।
हमारे आसपास झुग्गी बस्तियों में सैकड़ों बच्चे अशिक्षा के अंधकार में पूरा जीवन गुजार देते हैं। हम अपने ज्ञान का थोड़ा सा उजाला उन्हें देना नहीं चाहते। हम बाजार के कहने में आकर खुद को सजाने के लिए महंगे जूते कपड़े पहनते हैं और कामवालियों से, सब्जीवालियों से, रिक्शेवालों से दो रुपए के लिए मोलभाव करते हैं। सड़क पर ठेले वाले ब्लू फिल्मों की सीडी हमें ही बेचते हैं, हम ही जिस्म के बाजार को पालते हैं ।
और इसके बाद हम सवाल करते हैं कि लोकतंत्र ने हमें क्या दिया। हमें सवाल करना चाहिए कि हमने लोकतंत्र को क्या दिया। कितना समय इसे मजबूत करने में लगाया? इसके लिए कितना खून बहाया? कितने बच्चों को पढ़ाया? कितने लोगों को रोजगार से लगाया? कितने लोगों को बीमारी से बचाया?
हमारी लड़ाई के दो जरूरी मोर्चे हैं। एक तो बाहर की विसंगतियों से लड़ाई और दूसरे खुद के स्वार्थ, आलस्य और भय से। गणतंत्र दिवस के मौके पर बस इतना ही सोच लें और गर्व से कहें- जय हिंद।

(एक पत्रिका के लिए लिखा गया संपादकीय)