Monday, February 8, 2010

बैलगाडिय़ों की मीलों लंबी कतारें लगती थीं

(राजिम मेले की पुरानी यादें)
राजिम से 20 किलोमीटर दूर हमारा गांव है-भरदा। मेरा बचपन वहीं बीता। वहीं हम खेले कूदे, पढ़े लिखे और जीवन भर याद आने वाला समय बिताया। इन्हीं यादों में सुनहरे हर्फों में राजिम मेला भी दर्ज है। महीने भर पहले से मेले की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। बच्चों के उत्साह का कोई ठिकाना नहीं रहता था। उनकी बातचीत का प्रमुख विषय होता था मेला। सब अपने अपने घर में हो रही तैयारियों का बखान करते थे मेले के लिए सिर्फ बच्चे और घर वाले ही तैयार नहीं होते थे, बैलगाडिय़ों और बैलों को भी सजाया जाता था। मुझे याद है बैलों को बढिय़ा नहला धुला कर उनके सींगों पर पेंट लगाया जाता था। उसमें घुंघरू बांधे जाते थे। कुछ लोग रंगीन फीते भी बांधते थे। बैलगाडिय़ों में टाट का घेरा होता था। गाड़ी को बैठने के लिए आरामदायक बनाने के लिए उस पर पैरे से लेकर दरियां तक बिछाई जाती थीं। मेले में जाने के लिए पूरा गांव तैयार रहता था। जब मेला शुरू होता तो गांव सूने हो जाते थे। इन दिनों हमारे घर में काम करने वाले घर संभालते थे। मेले के लिए रवानगी रात में होती थी। गांव से राजिम तक बैलगाडिय़ों की कतार लगी रहती थी। बैलों को भी रास्ता बताने की जरूरत नहीं रहती थी। मेले में दो तीन दिन रुकना होता था। घर से राशन का सामान लेकर चलते थे। नदी की रेत पर खाना बनाया जाता था। बैलगाड़ी के भीतर और नीचे बिस्तर लगाकर लोग सोते थे। तब नदी में पर्याप्त पानी हुआ करता था। नदी के किनारों पर बैलगाडिय़ां ही बैलगाडिय़ां दिखती थीं। समय के साथ गांवों का जीवन बहुत बदला है। इसलिए मेले का स्वरूप भी बदला है। अब आवागमन के साधन बहुत हो गए हैं। लोग जब चाहे मेले पहुंच सकते हैं और रात को लौट सकते हैं। गांव के बहुत से लोग रोजी रोटी के लिए शहर चले गए हैं। वे दो तीन दिन रुकने के लिए नहीं आ पाते। मगर कभी कभी किसी से मेले में मुलाकात हो जाती है तो पुराने दिन बरबस याद आ जाते हैं।

(मेले में घूमते वरिष्ठ छायाकार प्रदीप साहू से बातचीत पर आधारित)
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