Saturday, February 13, 2010

कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा

बरसों से मेले ठेले घूमने की इच्छा थी। नौकरी और गृहस्थी के चक्कर में यह हो नहीं पा रहा था। इस बार राजिम मेले में यह इच्छा थोड़ी सी पूरी हुई। थोड़ी सी इसलिए क्योंकि हम खुद ही थोड़ा सा घूम पाए। कभी धूप लगी, कभी थकान। कभी घर लौटने की जल्दी तो कभी गाड़ी की टाइमिंग। मीनाकुमारी ने क्या खूब कहा है- जिसका जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली।
इस बार राजिम मेले में कई बार जाना हुआ। दोपहर की चिलचिलाती धूप में भी घूमे और रात को ठंड में प्रवचन भी सुने। खाने का शौक बहरहाल पूरा नहीं हो सका। जिन लोगों के साथ गए थे वे या तो मेले में खाना पसंद नहीं करने वाले थे या उपवास करने वाले। इतने दिनों में एक बार गुपचुप खाया और एक दो बार चनाबूट। दो तीन बार कचौरियां खाईं लेकिन मेले के बाहर वाले कैंटीन में। दाल भात सेंटर में खाने की लालसा दिल में ही रह गई। केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी एक कविता में कहा है कि सूरज नहीं डूबता, घूमती हुई पृथ्वी खुद उसकी ओर से मुंह फेर लेती है। मेले में पचास से ज्यादा दाल भात सेंटर थे। और एक भूखा व्यक्ति वहां से यूं ही लौट गया। एक फिल्मी गीत भी है कि मेले में रह जाए जो अकेला, फिर वो अकेला ही रह जाता है। मेरे परिचितों में बहुत से लोग ऐसे ही हैं। वे मुंंह बनाकर मेला घूमते हैं। और अव्यवस्थाओं को याद करते हुए घर लौटते हैं।
बशीर बद्र का एक शेर है- आंखों में रहा, दिल में उतर कर नहीं देखा, कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा। मैंने और मेरे दोस्तों ने वाकई यह समंदर नहीं देखा। हम लोग नहीं जानतेे कि बगैर किसी के बुलावे के मीलों दूर के गांवों से कड़ी धूप में लोग क्यों मेले में चले आते हैं। भगवान राजिम लोचन से वे क्या मांगते हैं। कुलेश्वर महादेव से क्या प्रार्थना करते हैं। हम लोग नहीं जानते कि पॉलीथीन की थैलियों में पैक गुलाब जामुनों का स्वाद कैसा है। नदी किनारे बिक रहा राम कांदा कितना मीठा है। दाल भात केंद्र में मिलने वाली सब्जी कितनी स्वादिष्ट है। जगह जगह बिक रहे उखरा में मिठास कितनी है।
अमरीका और इराक के बारे में जानने वाले हम पढ़े लिखे लोग नहीं जानते कि मेले में चना मुर्रा, टिकली फुंदरी, पॉपकॉर्न, आइसक्रीम, भजिया-बड़ा बेचने वालों की कहानी क्या है? वे लोग कहां से आते हैं। मेले में कहां रुकते हैं। कितना खर्च करते हैं, कितना कमाते हैं। मेले के बाद वे क्या करते हैं। उन्हें राजिम मेला कैसा लगता है? ऐसे ढेरों लोग साल भर राजिम मेले की प्रतीक्षा करते हैं। ऐसे ही लोग किसी मेले को मेला बनाते हैं। और पूरा मेला घूमने के बाद भी हम उन्हें नहीं जानते। फिल्म ब्राइड एंड प्रिज्युडिस में एक पात्र ने बड़ी अच्छी बात कही है कि भारत देखने के लिए पैसा नहीं लगता और अगर आपके पास पैसा है तो आप भारत नहीं देख सकते।
मैंने अपने एक अग्रज के कहने पर नदी में स्नान कर लिया। धूप में घूमते घूमते थकने के बाद उस स्नान ने जो ताजगी, जो ऊर्जा दी वह किसी कूलर और एसी से नहीं मिल सकती। उस ऊर्जा के पीछे कुदरत का प्यार था, तीर्थ की पवित्रता थी, हजारों लोगों के साथ डुबकी लगाने से मिला समूह का बल था। उस स्नान से सिर्फ तन को ठंडक नहीं मिली, मन भी भीतर तक ठंडा हो गया। और यह सब कुछ मुफ्त था। टंकी में पानी खत्म हो जाने का डर वहां नहीं था। लाइन लगाने की जरूरत नहीं थी। प्रकृति के वैराट्य को मैंने वहां महसूस किया। मगर नदी की बिगड़ती सेहत को भी मैंने देखा। गांधीजी की बात याद आई कि धरती के पास हर व्यक्ति की जरूरत पूरी करने की क्षमता है। गड़बड़ तब होती है जब इस जरूरत की जगह लालच आ जाता है।
हर बार घर लौटने की जल्दी में मैंने एक बहुत बड़ा अवसर खोया। यह अवसर था अपनी धरती के कलाकारों को देखने सुनने का। बस, राजिम में रात रुकने की जरूरत थी। रेत के उस विस्तार में जगह की कोई कमी नहीं थी। मेले में खाने पीने का भी अभाव नहीं था। नहाने के लिए पानी भरपूर था। नदी में रात रुकना एक रोमांचक और यादगार अनुभव होता। मुझे अफसोस है कि मैंने यह सब खो दिया। और उस शहरी जीवन के लिए मैंने यह सब खोया जिसके फायदे उठाना मैं पिछले बीस बरस में नहीं सीख पाया हूं।

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