Sunday, June 6, 2010

एक महान नाटक की अकाल मौत

कल रात रंगमंदिर में हबीब तनवीर का नाटक चरणदास चोर खेला गया।
यह एक चोर की कहानी है जो अपने गुरु के आगे सच बोलने का संकल्प ले लेता है और इसे निभाते हुए उसकी जान चली जाती है।
इस कहानी में कई संदेश छिपे हैं। यह कि सच बोलने के साथ खतरे हमेशा जुड़े रहते हैं। सच बोलने वाला सत्ता की आंखों की किरकिरी बन जाता है। लेकिन वह जनता के दिलों में दर्ज हो जाता है। जनता उसे पसंद करती है जो उसके काम आता है।
महान साहित्य की यह पहचान होती है कि बदलता हुआ समय उसकी प्रासंगिकता को प्रभावित नहीं कर पाता। आज आप बस्तर में औद्योगीकरण से जुड़े सवाल उठाना चाहें तो आपको डर लगेगा कि कोई आपको नक्सली न कह दे। चरणदास चोर नाटक देखते हुए आपको लगेगा कि इसे आज सुबह ही किसी ने बस्तर के संदर्भ में लिखा है।
नाटक का एक प्रसंग है जिसमें चरणदास चोर धन की थैली चढ़ावे में चढ़ाता है। पुजारी उससे उसका नाम और पेशा पूछता है। जवाब मिलता है -नाम चरणदास और काम चोरी। पुजारी कहता है- तुम चोर नहीं हो सकते।
आज कितने नेताओं के बारे में जनता यह बात कह सकती है?
यह कथा समाज की छोटी बड़ी विसंगतियों को बहुत खूबी से उजागर करते चलती है। चरणदास का लालची गुरु, चोर को न पकड़ सकने वाला सिपाही, अमानत में खयानत करने वाला सरकारी कर्मचारी- ये सब ऐसे पात्र हैं जिन्हें हम अपने आसपास देख सकते हैं।

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लेकिन यह सब मैं अपने पिछले अनुभव के आधार पर बता रहा हूं। कल रात अगर मैंने इस नाटक को पहली बार देखा होता तो कुछ भी नहीं बता पाता।
यह एक महान नाटक की हत्या थी। मैं इससे कम कड़ी बात लिख सकता हूं लेकिन जानबूझकर कड़ी बात लिख रहा हूं।
मैंने इस नाटक को टेप रेकॉर्डर पर बचपन में करीब बीस बार सुना होगा। यह आज से तीस पैंतीस साल पहले की बात होगी। हमारे घर इसका एक आडियो टेप था। तब फिदाबाई जैसे कलाकार इसमें थे। हमारा पूरा परिवार इसे एक साथ बैठकर सुनता था। मुझे इस नाटक के संवाद लगभग याद हो गए थे। हम लोग धमतरी में रहते थे जो एक कस्बा था। हम बच्चों को गावों के सांस्कृतिक वैभव का बहुत पता नहीं था। लोक नाट्य की ताकत के बारे में जो जानकारी हमारे पास थी उसमें चरणदास चोर के आडियो कैसेट का महत्वपूर्ण स्थान था। धमतरी में एक बार इसका मंचन भी देखा था।
कल रंगमंदिर में जो नाटक खेला गया वह हबीब तनवीर की स्मृति में आयोजित एक समारोह का पहला नाटक था। अगर मैं चरणदास चोर की पिछली प्रस्तुति से इसकी तुलना न भी करूं तो भी यह निहायत घटिया प्रस्तुति थी। मुझे और मेरी पत्नी को इसका लगभग कोई संवाद समझ में नहीं आया।
यह नाटक खेलने वालों और आयोजकों, दोनों की गलती थी। क्या उनका कोई आदमी दर्शकों के बीच बैठकर इस बात की सूचना नहीं दे सकता था कि संवाद सुनाई नहीं दे रहे हैं? हबीब तनवीर के नाटकों का एक समारोह पहले भी यहां हो चुका है। उसमें खेले गए एक नाटक के साथ भी मेरा यही अनुभव रहा है।
कुछ हिंदी फिल्मों और अमिताभ बच्चन जैसे कुछ कलाकारों से मेरी शिकायत रही है कि उनके संवाद समझ मे नहीं आते। हाल ही में सरकार फिल्म का कुछ हिस्सा देखा। इसमें अमिताभ और अभिषेक ने मानो कसम खा रखी थी कि डायलाग समझ में नहीं आने देंगे।
कुछ रोज पहले टाकीज में मैंने वेक अप सिड देखी। क्या टेक्नोलॉजी थी पता नहीं लेकिन फिल्म का एक एक संवाद समझ में आया और पहली बार मैं टाकीज से इतना गदगद होकर निकला। इसी तरह रायपुर के मुक्ताकाशी मंच में पॉपकॉर्न नाम का नाटक देखा, इसका एक एक संवाद समझ में आया। यह शायद रेकॉर्डेड संवादों पर खेला गया नाटक था।
रंगमंदिर में कल रात जो हुआ उसमें कलाकारों की भी कमजोरी थी और साउंड सिस्टम एकदम फेल था। कुछ कलाकारों में पुराने कलाकारों जैसी गहराई भी नहीं थी, यह मैं टुकड़े टुकड़ों में समझ आ रहे संवादों से महसूस कर सकता था। पर यह तो बाद की बात है।

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जब आयोजक नाटक से बड़े हो जाते हैं तब ऐसा होता है जैसा कल हुआ। चरणदास चोर नाटक के स्टेज पर बैकग्राउंड में हबीब तनवीर स्मृति समारोह का बैनर लगा हु्आ था। चरणदास चोर नाटक के सेट पर इस बैनर का क्या काम?

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दर्शक दीर्घा में कुछ लोग अपने दूध पीते बच्चे लेकर आए थे। उनका अलग नाटक चल रहा था। लेकिन उन पर इतना गुस्सा नहीं आया। उनका बच्चा चुप भी हो जाता तब भी नाटक के संवाद समझ में नहीं आते।

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मैं बहुत संकोची आदमी हूं। और बहुत एडजस्टिव। समय से पहले हॉल में पहुँचता हूं। एक जगह बैठा तो बैठ गया। जगह तलाशने के लिए घूमता नहीं रहता। अपना मोबाइल बहुत पहले से बंद कर लेता हूं। नाटक देखने के दौरान बात नहीं करता। पत्नी से हर बार इसे लेकर विवाद होता है। बीच बीच में खाने पीने के बारे में तो सोच भी नहीं सकता। मगर कल पत्नी बीच में उठकर हाल से गई। पापकार्न लेकर लौटी। मैंने उससे बात की। पॉपकॉर्न भी खाए।

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नाटक खेलने वाले ग्रुप तक हो सके तो कोई मेरी बात पहुंचा दे। आयोजकों से कहना बेकार है। मेरा पिछला अनुभव उनके साथ ठीक नहीं है। वे लोग सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। क्योंकि मैं तो दर्शक हूँ। इसका किस्सा फिर कभी।

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Tuesday, June 1, 2010

इंस्पेक्टर कौन बनना चाहता है

हम लोग आज का काम खत्म करके सांस ले रहे थे। अचानक एक जूनियर सहयोगी ने कहा- एक बड़ी खबर है। अमुक आदमी की बेटी को एक लड़का भगा के ले गया।
व्यक्तिगत रूप से मुझे ऐसी भाषा पसंद नहीं है। ऐसी घटनाओं के बारे में चटखारे लेकर बात करना भी मुझे अच्छा नहीं लगता। क्योंकि बहनें और बेटियां सबकी होती हैं। मेरी भी हैं।
अखबार को चटपटा मसाला चाहिए होता है। ऐसी खबरें मिलने पर मैं अक्सर दुविधा में पड़ जाता हूं। उत्साही रिपोर्टरों से मैं पूछना चाहता हूं- तुम्हारी बहन होती तो खबर कैसी बनाते? खबर बनाते भी कि नहीं?
मगर मेरे मन पर एक और चोट होनी थी। जूनियर ने आगे कहा- रातो रात करोड़पति बन गया साला। उसकी आवाज में अफसोस था। वह अफसोस जो पड़ोसी की लाटरी लग जाने पर होता है।
मेरी चेतना झनझना गई। ये किस तरह की सोच है। ये कैसा रोजगार है। क्या इस नौजवान में जरा भी आत्मगौरव नहीं है? आत्मनिर्भर होने का भाव नहीं है? अपनी मेहनत की कमाई खाने का कोई आग्रह नहीं है?
मैंने उस लड़के से यह सब नहीं कहा। शायद वह मन ही मन कहता- आपने शायद यह मेहनत करके नहीं देखी। वरना फल खा रहे होते।
बहुत पहले वाली आसी का एक शेर सुना था-
किसी आवाज पर ठहरे तो हो जाओगे पत्थर के।कि इस जंगल में चारो ओर जादूगरनियां होंगी।।
मैं अपने सहयोगी से कहना चाहता था कि सट्टे और लाटरी की यह मानसिकता बदलो। मेहनत से कमाओ। सिर उठा के जियो।
फिर मुझे वह लतीफा याद आया- किसी इंस्पेक्टर ने हवलदार से कहा- इतनी मत पिया करो, अपना काम सुधारो तो एक दिन मेरी तरह इंस्पेक्टर बन जाओगे। हवलदार ने कहा- इंस्पेक्टर कौन बनना चाहता है। एक पैग पीने के बाद मैं खुद को आईजी से कम नहीं समझता।
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मैं भी लंगोटी पहन लूं?

छत्तीसगढ़ भाजपा के नए बनाए गए अध्यक्ष रामसेवक पैकरा हांगकांग गए हैं। उनके साथ संगठन महामंत्री रामप्रताप भी गए हैं। टीवी पर समाचार आया कि कुछ दूसरे नेता श्रीलंका जा रहे हैं। मुझे लगता है कि ये दोनों प्रवास छत्तीसगढ़ की प्राथमिकता में नहीं हैं।
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मेरे एक मित्र ने कुछ भाजपा नेताओं से बात की। इनमें से एक नाराज हो गए। उनका कहना था कि मीडिया को किसी के व्यक्तिगत जीवन में नहीं झांकना चाहिए। हर किसी को यात्रा पर जाने का हक है।
मेरा खयाल है कि सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों की कुछ जिम्मेदारियां होती हैं। अगर वह राजनेता है तो समाज को दिशा देता है। डरे हुए समाज को संबल देता है। दुखी समाज को सर टिकाने के लिए अपना कंधा देता है।
मुझे लग रहा है कि भाजपा अध्यक्ष मौज कर रहे हैं। राजनीतिक रिपोर्टिंग करने वाले मेरे मित्रों की राय है कि रामसेवक पैकरा एक डमी अध्यक्ष हैं। पर्दे के पीछे से कुछ प्रभावी नेता फैसले लेंगे। अध्यक्ष का काम होगा उन पर मुहर लगाना। नए अध्यक्ष के लिए ऐसा आदमी ढंूढा गया जिसके विद्रोह करने की संभावना कम से कम हो। इस मापदंड पर पैकरा सबसे काबिल पाए गए। उन्हें और काबिल बना कर रख देने के लिए हांगकांग ले जाया गया है।
अपनी अल्पज्ञता के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं लेकिन मुझे इन बातों पर विश्वास होता है। मुझे वास्तव में कोई वजह नजर नहीं आती जिसके लिए नए भाजपा अध्यक्ष को हांगकांग जाना चाहिए।
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भाजपा की संवेदनहीनता के कुछ उदाहरण मैं देख चुका हूं। जिस दिन बस्तर में नक्सली विस्फोट से सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए थे, भाजपा अपना स्थापना दिवस मना रही थी। एकात्म परिसर में शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने के बाद पार्टी के नेता पार्टी की राजनीतिक उपलब्धियों के बारे में पहले से सोचा गया भाषण दे रहे थे और कार्यकर्ता तालियां बजा रहे थे।
पार्टी के कुछ नेताओं से व्यक्तिगत बातचीत में मैं पाता हूं कि गरीबों और आम जनता के लिए उनके मन में बहुत हिकारत है। वे गरीबों को राशन की दुकान के आगे लाइन लगाए देखना चाहते हैं। उन्हें खुशी होगी अगर सारे वोटर शराब के आदी हो जाएं और मतदान से पहले वाली रात शराब बांटकर उनके वोट खरीद लिए जाएं। ये मेरा कुछ नेताओं के बारे में व्यक्तिगत अनुभव है। और कांग्रेस के कुछ नेताओं को भी मैंने इसी सोच का पाया। यह सत्ता का नशा होता है। आदमी को अपने सिवा कुछ दिखाई नहीं देता। उसकी फिलॉसफी बुश जैसी हो जाती है- या तो आप हमारे साथ हो या सद्दाम के साथ।
राजनीति के बारे में एक और खतरनाक बात का मैं जिक्र करना चाहूंगा। कुछ दिनों पहले मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह व छत्तीसगढ़ के मौजूदा मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर चला था। इससे यह बात सामने आई थी कि नक्सल इलाकों में नक्सलियों से सांठ गांठ कर चुनाव जीते जाते हैं।
तो राजनीति के इस दौर में किसी को भाजपा अध्यक्ष का हांगकांग जाना बुरा न लगे लेकिन मेरे जैसे कुछ लोगों को बुरा लगता है।
गांधी का फलसफा था-जब तक मेरे देश का एक भी आदमी लंगोटी पहनता है, मुझे उससे ज्यादा कपड़े पहनने का हक नहीं है। अभी के नेताओं का फलसफा है- तुम लंगोटी में रह गए हो तो क्या मैं भी लंगोटी पहन लूं?