Thursday, March 4, 2010

धूप के घर में छांव का क्या काम

दिनेश कुमार साहू को मैं पिछले चालीस बरस से जानता हूं। वे हमारे पड़ोसी थे और हमारे परिवारों में घर जैसे संबंध थे। ये संबंध आज भी वैसे ही हैं। चालीस साल बाद यह पता चलना एक सुखद अनुभव है कि वे बेहद संवेदनशील, सजग और सशक्त कवि हैं। हाल ही में उनका एक नया कविता संग्रह आया है- धूप के घर में छांव का क्या काम। उनकी चिंताएं हजारों कस्बाई नागरिकों की चिंताओं से मेल खाती हैं और उन विषयों पर उनकी समझ परिपक्व है। उनकी कल्पना की उड़ान भी कुछ न कुछ सार्थक लेकर लौटती है। बनावट के इस दौर में दिनेशजी की कविताओं में सचमुच की अनुभूतियां हैं और वे उन्हें बहुत खूबसूरती से व्यक्त करते हैं।
कविता संग्रह की पहली कविता है खुशबू वाली आशा। गांव कस्बे से निकलकर महानगरों की पथरीली बस्तियों में जीने वाले हर इंसान को कभी न कभी किसान, खेत और मिट्टी की सौंधी खुशबू याद आती है। यह कविता इसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। सूखे खेतों को कवि फटे होठों की एक नई उपमा देता है।
मनुष्य के स्वार्थ व अभिमान और फलस्वरूप धरती के नष्ट होते पर्यावरण की चिंता मर्जी आदमी की कविता में साफ तौर पर व्यक्त होती है। कवि कहता है-

सागर और जमीन पर
आदमी का एकछत्र
राज है...
मर्जी उसकी
जिस तरह चाहे
आत्महत्या कर ले।

ट्रेन में झाड़ू लगाते बच्चों पर हर सहृदय व्यक्ति का ध्यान जाता है। उनके बारे में लोग अलग अलग बातें सोचते हैं। दिनेशजी बरसात में अपनी हरियाली पर इतराती धरती को आधार बनाकर बच्चे की मजबूरी को व्यक्त करते हैं-

धरती को भी पेट भरने के लिए
ट्रेन में बुहारने होते मूंगफली के छिलके
तब वह भी नहीं पहन पाती
हर साल नए
हरे रंग के कपड़े
जिस पर बने होते हैं
रंग बिरंगे
फूलों के प्रिंट


गुलाब और ताजमहल जैसे प्रेम प्रतीकों को लेकर निराला और साहिर जैसे कवियों ने जिस तेवर की कविता लिखी है वह तेवर दिनेशजी की इस कविता में देखा जा सकता है। इस संग्रह की सबसे खूबसूरत कविता वह है जिस पर संग्रह का नाम रखा गया है। बल्कि कविता का यह शीर्षक ही अपने आप में पूरी कविता है। जीवन संघर्षों में उलझा आदमी अपने कारण अपनी पत्नी को विषमताओं से जूझते देखता है तो भीतर ग्लानि, सहानुभूति, करुणा, अपराधबोध जैसे बहुत तरह के विचार पैदा होते हैं। यह कविता ऐसे ही एक विचार की सुंदर अभिव्यक्ति है।

कवि की संवेदना ऑस्ट्रेलिया में पिटने वाले छात्रों तक जाती है। इन घटनाओं को कवि गोरेपन के प्रति मोह के एक नए परिप्रेक्ष्य में देखता है। वह कहता है-

विदेश जाकर पिटा हुआ लड़का
विदेश से वापस आने पर
कोई गोरी लड़की ढूंढेगा
रंगभेद को गाली देता
फिर वहीं वापस पिटने
हवाई जहाज पर चढ़ जाएगा।


विरह का दुख इस संग्रह की एक प्यारी कविता है। एकदम मौलिक। संभवत: यह सचमुच के किसी वार्तालाप का वर्णन है इसीलिए इतना प्रभावी बन पड़ा है। परिवार से दूर रहते हुए, सब्जी बनाता हुआ कवि पत्नी से टेलीफोन पर कहता है-

तुम लोगों की याद में
आग में पक रहा हूं...
टेलीफोन के तार से
तुरंत चली आओ।


कवि की संवेदना कभी पहचान खोते जा रहे शहर की चिंता करती है तो कभी बूढ़ी पीली पत्तियों के दुख दर्द में शामिल हो जाती है। वह अपनी मां को लेकर बहुत कुछ सोचती विचारती रहती है। तेजी से बदलते हुए समय में बहुत सी चीजें सिर्फ कविता में जीवित रह पाती हैं। ऐसी बहुत सी चीजें दिनेशजी की कविताओं में देखी जा सकती हैं।

कवि रोजमर्रा के जीवन की छोटी बड़ी विसंगतियों को तरह तरह से व्यक्त करता है। वह महाभारत के कर्ण को सामने रखकर मौजूदा दौर के चाल चलन पर निशाना साधता है। कर्ण पर केंद्रित उनकी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं-

बहुत कठिन होता है
अस्पृश्य सत्य को
स्वयं से जोड़ लेना
और कृष्ण से
मुख मोड़ लेना


दिनेशजी ग्रामीण-कस्बाई पृष्ठभूमि से निकले हैं और घर से बाहर जाकर उन्होंने अपने लिए एक बेहद परिष्कृत भाषा कमाई है। उन्हें इस भाषा के उपयोग का पूरा अधिकार है। लेकिन यह भी लगता है कि उन्हें शब्दों के जंगल में अपनी मौलिक भाषा को ढूंढना चाहिए। यह कॉलोनी में रहते हुए अपनी बूढ़ी मां की सेवा करने जैसा काम है। मां की सेवा तो वे कर ही रहे हैं।

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