Saturday, February 13, 2010

कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा

बरसों से मेले ठेले घूमने की इच्छा थी। नौकरी और गृहस्थी के चक्कर में यह हो नहीं पा रहा था। इस बार राजिम मेले में यह इच्छा थोड़ी सी पूरी हुई। थोड़ी सी इसलिए क्योंकि हम खुद ही थोड़ा सा घूम पाए। कभी धूप लगी, कभी थकान। कभी घर लौटने की जल्दी तो कभी गाड़ी की टाइमिंग। मीनाकुमारी ने क्या खूब कहा है- जिसका जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली।
इस बार राजिम मेले में कई बार जाना हुआ। दोपहर की चिलचिलाती धूप में भी घूमे और रात को ठंड में प्रवचन भी सुने। खाने का शौक बहरहाल पूरा नहीं हो सका। जिन लोगों के साथ गए थे वे या तो मेले में खाना पसंद नहीं करने वाले थे या उपवास करने वाले। इतने दिनों में एक बार गुपचुप खाया और एक दो बार चनाबूट। दो तीन बार कचौरियां खाईं लेकिन मेले के बाहर वाले कैंटीन में। दाल भात सेंटर में खाने की लालसा दिल में ही रह गई। केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी एक कविता में कहा है कि सूरज नहीं डूबता, घूमती हुई पृथ्वी खुद उसकी ओर से मुंह फेर लेती है। मेले में पचास से ज्यादा दाल भात सेंटर थे। और एक भूखा व्यक्ति वहां से यूं ही लौट गया। एक फिल्मी गीत भी है कि मेले में रह जाए जो अकेला, फिर वो अकेला ही रह जाता है। मेरे परिचितों में बहुत से लोग ऐसे ही हैं। वे मुंंह बनाकर मेला घूमते हैं। और अव्यवस्थाओं को याद करते हुए घर लौटते हैं।
बशीर बद्र का एक शेर है- आंखों में रहा, दिल में उतर कर नहीं देखा, कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा। मैंने और मेरे दोस्तों ने वाकई यह समंदर नहीं देखा। हम लोग नहीं जानतेे कि बगैर किसी के बुलावे के मीलों दूर के गांवों से कड़ी धूप में लोग क्यों मेले में चले आते हैं। भगवान राजिम लोचन से वे क्या मांगते हैं। कुलेश्वर महादेव से क्या प्रार्थना करते हैं। हम लोग नहीं जानते कि पॉलीथीन की थैलियों में पैक गुलाब जामुनों का स्वाद कैसा है। नदी किनारे बिक रहा राम कांदा कितना मीठा है। दाल भात केंद्र में मिलने वाली सब्जी कितनी स्वादिष्ट है। जगह जगह बिक रहे उखरा में मिठास कितनी है।
अमरीका और इराक के बारे में जानने वाले हम पढ़े लिखे लोग नहीं जानते कि मेले में चना मुर्रा, टिकली फुंदरी, पॉपकॉर्न, आइसक्रीम, भजिया-बड़ा बेचने वालों की कहानी क्या है? वे लोग कहां से आते हैं। मेले में कहां रुकते हैं। कितना खर्च करते हैं, कितना कमाते हैं। मेले के बाद वे क्या करते हैं। उन्हें राजिम मेला कैसा लगता है? ऐसे ढेरों लोग साल भर राजिम मेले की प्रतीक्षा करते हैं। ऐसे ही लोग किसी मेले को मेला बनाते हैं। और पूरा मेला घूमने के बाद भी हम उन्हें नहीं जानते। फिल्म ब्राइड एंड प्रिज्युडिस में एक पात्र ने बड़ी अच्छी बात कही है कि भारत देखने के लिए पैसा नहीं लगता और अगर आपके पास पैसा है तो आप भारत नहीं देख सकते।
मैंने अपने एक अग्रज के कहने पर नदी में स्नान कर लिया। धूप में घूमते घूमते थकने के बाद उस स्नान ने जो ताजगी, जो ऊर्जा दी वह किसी कूलर और एसी से नहीं मिल सकती। उस ऊर्जा के पीछे कुदरत का प्यार था, तीर्थ की पवित्रता थी, हजारों लोगों के साथ डुबकी लगाने से मिला समूह का बल था। उस स्नान से सिर्फ तन को ठंडक नहीं मिली, मन भी भीतर तक ठंडा हो गया। और यह सब कुछ मुफ्त था। टंकी में पानी खत्म हो जाने का डर वहां नहीं था। लाइन लगाने की जरूरत नहीं थी। प्रकृति के वैराट्य को मैंने वहां महसूस किया। मगर नदी की बिगड़ती सेहत को भी मैंने देखा। गांधीजी की बात याद आई कि धरती के पास हर व्यक्ति की जरूरत पूरी करने की क्षमता है। गड़बड़ तब होती है जब इस जरूरत की जगह लालच आ जाता है।
हर बार घर लौटने की जल्दी में मैंने एक बहुत बड़ा अवसर खोया। यह अवसर था अपनी धरती के कलाकारों को देखने सुनने का। बस, राजिम में रात रुकने की जरूरत थी। रेत के उस विस्तार में जगह की कोई कमी नहीं थी। मेले में खाने पीने का भी अभाव नहीं था। नहाने के लिए पानी भरपूर था। नदी में रात रुकना एक रोमांचक और यादगार अनुभव होता। मुझे अफसोस है कि मैंने यह सब खो दिया। और उस शहरी जीवन के लिए मैंने यह सब खोया जिसके फायदे उठाना मैं पिछले बीस बरस में नहीं सीख पाया हूं।

संतों के साथ सदाचरण आएगा:

राजिम कुंभ को इस भावना के साथ शुरू किया गया है ताकि यहां अधिक से अधिक संत आएं। उनके आशीर्वाद से राज्य की तरक्की हो। यहां सदाचरण आए। हमें संतोष है कि लोगों के सहयोग से राजिम कुंभ की महिमा सारे देश में बढ़ रही है। परंपरा से जो चार कुंभ होते हैं वे बारह साल में एक बार होते हैं। राजिम कुंभ की विशेषता यह है कि यह हर साल होता है। यहां हमारे लोगों की भक्ति का प्रकटीकरण होता है। इलाहाबाद के अलावा यह एक ऐसा स्थान है जहां लोग अस्थियां विसर्जन करते हैं और इसे प्रयागराज कहते हैं। यहां भगवान राजीवलोचन का मंदिर है। कुलेश्वर महादेव का मंदिर है जिसके बारे में मान्यता है कि इसकी स्थापना माता सीता के द्वारा की गई है। यहां लोमश ऋषि का आश्रम है। समीप ही वल्लभाचार्य जी की प्राकट्य भूमि है। छत्तीसगढ़ माता कौशल्या की जन्मभूमि है। भगवान राम यहां के भांजे हैं। यहां के लोग अपने भांजों को भगवान राम स्वरूप मानते हैं और उनके पांव छूते हैं। इस पुण्य धरती पर कुंभ प्रारंभ करने के पीछे भावना यह थी कि यहां साधु संत आएंगे। इस नए राज्य छत्तीसगढ़ को देश व दुनिया में एक पहचान मिलेगी। धार्मिक आस्था का प्रकटीकरण होगा। साधु संतों की चरणरज पड़ेगी, हम सबको आशीर्वाद मिलेगा। हम छत्तीसगढ़ को देश का सबसे सुंदर, सबसे सुखी राज्य बना पाएंगे। यहां के दुख दर्द समाप्त होंगे। लोगों में खुशहाली आएगी। हमें इस बात का संतोष है कि सभी लोगों के सहयोग से, साधु संतों के आशीर्वाद से राजिम कुंभ की महिमा पूरे देश में लगातार बढ़ती जा रही है। मेरा मानना है कि जितने ज्यादा साधु संतों के यहां चरण पड़ेंगे, छत्तीसगढ़ की उतनी ज्यादा तरक्की होगी। उतना ही ज्यादा यहां के लोगों में सदाचरण आएगा। मैं साधु संतों से उनके आशीर्वाद की ताकत मांगता हूं ताकि हम अपने प्रदेश को खुशहाल बना पाएं। यहां जो धर्म की गंगा बह रही है वह सारे देश तक पहुंचे। हमने इस मेले को कानूनी रूप दिया है ताकि यह अनवरत चलता रहे।

(राजिम कुम्भ २०१० में संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का संबोधन)

मेला मतलब घर में मेहमानों का आना

राजिम मेले के बगैर राजिम वासियों का जीवन अधूरा है। सबके पास मेले की सैकड़ों हजारों यादें हैं। मेले का मतलब होता था दूर दूर से मेहमानों का आना और घर में ठहरना। सबके लिए खाने पीेने का इंतजाम रहता था। और यह काम खुशी व उत्साह से किया जाता था। तब टेलीफोन का अधिक चलन नहीं था। लोगों की मुलाकात अक्सर ऐसे मेलों में होती थी। तब टूरिंग टाकीजें हुआ करती थीं। रात भर में कई कई शो हो जाते थे। हमारे जानकार दोस्त यार बताते हैं कि फिल्म दिखाने वाले रील काट काट कर फिल्म को छोटा कर देते थे। तब लोग मेलों में बैलगाडिय़ों से आते थे। आने में भी कई दिन लग जाते थे और मेले में कुछ दिन रुक कर लोग लौटते थे। तब मनोरंजन के अधिक साधन भी नहीं थे इसलिए लोग मेलों का भरपूर मजा उठाकर लौटना चाहते थे। मेले के वे दिन बहुत याद आते हैं।

(राजिम निवासी आशीष से बातचीत पर आधारित)

Monday, February 8, 2010

बैलगाडिय़ों की मीलों लंबी कतारें लगती थीं

(राजिम मेले की पुरानी यादें)
राजिम से 20 किलोमीटर दूर हमारा गांव है-भरदा। मेरा बचपन वहीं बीता। वहीं हम खेले कूदे, पढ़े लिखे और जीवन भर याद आने वाला समय बिताया। इन्हीं यादों में सुनहरे हर्फों में राजिम मेला भी दर्ज है। महीने भर पहले से मेले की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। बच्चों के उत्साह का कोई ठिकाना नहीं रहता था। उनकी बातचीत का प्रमुख विषय होता था मेला। सब अपने अपने घर में हो रही तैयारियों का बखान करते थे मेले के लिए सिर्फ बच्चे और घर वाले ही तैयार नहीं होते थे, बैलगाडिय़ों और बैलों को भी सजाया जाता था। मुझे याद है बैलों को बढिय़ा नहला धुला कर उनके सींगों पर पेंट लगाया जाता था। उसमें घुंघरू बांधे जाते थे। कुछ लोग रंगीन फीते भी बांधते थे। बैलगाडिय़ों में टाट का घेरा होता था। गाड़ी को बैठने के लिए आरामदायक बनाने के लिए उस पर पैरे से लेकर दरियां तक बिछाई जाती थीं। मेले में जाने के लिए पूरा गांव तैयार रहता था। जब मेला शुरू होता तो गांव सूने हो जाते थे। इन दिनों हमारे घर में काम करने वाले घर संभालते थे। मेले के लिए रवानगी रात में होती थी। गांव से राजिम तक बैलगाडिय़ों की कतार लगी रहती थी। बैलों को भी रास्ता बताने की जरूरत नहीं रहती थी। मेले में दो तीन दिन रुकना होता था। घर से राशन का सामान लेकर चलते थे। नदी की रेत पर खाना बनाया जाता था। बैलगाड़ी के भीतर और नीचे बिस्तर लगाकर लोग सोते थे। तब नदी में पर्याप्त पानी हुआ करता था। नदी के किनारों पर बैलगाडिय़ां ही बैलगाडिय़ां दिखती थीं। समय के साथ गांवों का जीवन बहुत बदला है। इसलिए मेले का स्वरूप भी बदला है। अब आवागमन के साधन बहुत हो गए हैं। लोग जब चाहे मेले पहुंच सकते हैं और रात को लौट सकते हैं। गांव के बहुत से लोग रोजी रोटी के लिए शहर चले गए हैं। वे दो तीन दिन रुकने के लिए नहीं आ पाते। मगर कभी कभी किसी से मेले में मुलाकात हो जाती है तो पुराने दिन बरबस याद आ जाते हैं।

(मेले में घूमते वरिष्ठ छायाकार प्रदीप साहू से बातचीत पर आधारित)
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Sunday, February 7, 2010

जहां संत पहुंच जाते हैं वहां कुंभ हो जाता है

संतों ने कहा- धर्म-धानी बनता जा रहा है छत्तीसगढ़

राजिम, 6 जनवरी। जहां संत पहुंच जाते हैं वहां उनकी वाणी का अमृत छलकने लगता है। जहां अमृत छलकता है वहां कुंभ होता है। यह बात संत समागम के शुभारंभ के अवसर पर स्वामी प्रज्ञानंद महाराज ने कही। इस मौके पर उपस्थित सभी संतों ने राजिम मेले के कुंभ स्वरूप का अनुमोदन किया और राज्य की निरंतर प्रगति की कामना की। स्वामी प्रज्ञानंद महाराज ने कहा कि आजकल धर्म और काम प्रधान पुरुषार्थ का प्रभाव बढ़ रहा है। काम धर्ममय होना चाहिए। छत्तीसगढ़ इस दिशा में बढ़ रहा है। वह धर्मधानी बनता जा रहा है। माटुंगा से आए संत शंकरानंद सरस्वती महाराज ने कहा कि संतों की शरण में जाए बगैर सुख नहीं मिलता। यहां तो देश के लगभग हर प्रांत से संत आए हुए हैं। उन्होंने राजिम कुंभ की उत्तरोत्तर प्रगति की कामना की। विवेकानंद आश्रम रायपुर के स्वामी सत्यस्वरूपानंद ने कहा कि धर्म ही भारत का मेरुदंड है। विदेशी आक्रमणों के बीच धर्म बचा रहा क्योंकि अनंत संतों की श्रंृखला इस देश में रही। उन्होंने कहा-आप धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म आपकी रक्षा करेगा। उन्होंने कामना की कि संत समागम धर्मजागरण में उपयोगी हो सकेगा। चंपारण्य में प्रवचन कर रहे जागेश्वर महाराज ने कहा कि संस्कृति आचरण में उतारने की चीज है। दवा की चर्चा से बीमारी दूर नहीं होती। उन्होंने कहा कि अपना आचरण ठीक करने के लिए अधिक कुछ नहीं लगता। सुबह जल्दी उठने में खर्च नहीं होता। माता पिता के चरण छूने के लिए पीएचडी करने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि आज लोग राम राम बोलना देहातीपन समझते हैं। यह दुर्भाग्य है। उन्होंने इस बात पर दुख प्रकट किया कि छत्तीसगढ़ में बहुत से युवा नशे की गिरफ्त में हैं। उन्होंने कहा कि धर्म अमृत है। यहां से अपना घड़ा भरकर ले जाएं। इसके लिए हृदय रूपी पात्र को शुद्ध करने की जरूरत है। संत समागम में उपस्थित न हो सके द्वारका पीठाधीश्वर स्वरूपानंद सरस्वती जी का संदेश मंच से पढ़कर सुनाया गया। इसमें उन्होंने कहा कि प्राचीनकाल से चली आ रही परंपरा का ऐसा संरक्षण अनुकरणीय है। पाटेश्वरधाम के बालकदास महात्यागी महाराज ने गोमाता की रक्षा का आह्वान किया। उन्होंने नक्सलवाद के समाधान के लिए संतों से शहर छोड़कर जंगलों की ओर जाने की अपेक्षा की। उन्होंने कहा कि जंगलों में संतों के आश्रम खुलेंगे तो वनवासियों के भीतर का अध्यात्म जागेगा। एक बेहतर छत्तीसगढ़ का निर्माण होगा। उन्होंने छत्तीसगढ़ में आज भी मौजूद जात पांत व छुआछूत पर चोट की और बताया कि पाटेश्वर धाम में बन रहे मंदिर में सभी धर्म-पंथों के देवी देवता महापुरुष एक साथ उपस्थित होंगे। कबीरपंथ के असंगजी साहेब ने कहा कि मनुष्य जब संभलता है तो धरती को स्वर्ग बना देता है। मनुष्य को संभालने के लिए राजिम कुंभ का आयोजन किया गया है। यह छत्तीसगढ़ के सुधार का कुुंभ है। हमारे आपके कल्याण का कुंभ है। इसे मान्यता मिलनी ही चाहिए। उन्होंने आह्वान किया कि लोग मांस-मछली, शराब, पुडिय़ा सब संतों के चरणों में समर्पित कर इनसे दूर रहने का संकल्प लें।

Saturday, February 6, 2010

वहां जोत जगाएं जहां अंधेरा है


(राजिम कुंभ में संत समागम के पहले दिन पाटेश्वर धाम के संत बालकदास महात्यागी द्वारा दिया गया उद्बोधन)


मेहमानों को भगवान मानना छत्तीसगढ़ की परिपाटी है जिसे हम निभाते आए हैं। राजिम कुंभ भी इसी परिपाटी के तहत चल रहा है। यहां आने वाले सभी अतिथि हमारे भगवान होते हैं। चाहे वे संत हों या जनता, सबके सम्मान की व्यवस्था इस मेले में की जाती है। छत्तीसगढ़ भगवान राम की भ्रमणस्थली है। यहां वे जंगल जंगल घूमे हैं। मैं छत्तीसगढ़ से बाहर जाता हूं तो यह कहते हुए मेरी छाती चौड़ी हो जाती है कि छत्तीसगढ़ मेरी जन्मभूमि है, मेरी कर्मभूमि है, मेरी दीक्षाभूमि है। यह वह छत्तीसगढ़ है जिसे आज इस मंच पर उपस्थित संत आकर सम्मानित कर रहे हैं। कहीं पर किसी ने मुझसे कहा कि छत्तीसगढ़ में एक ही कमी है, वहां तीर्थ नहीं है। मैंने कहा कि यह माता कौशल्या की जन्मस्थली है जिन्होंने जगत को प्रकाशित करने वाले, रघुकुल के सूर्य भगवान राम को जन्म दिया। स्वामी प्रज्ञानंद महाराज ने अपने संबोधन में माता कौशल्या के नाम पर एक भवन बनाने का प्रस्ताव दिया है। मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि 1 अप्रैल 2009 को विधानसभा के पास स्थित चंदखुरी गांव में माता कौशल्या की जन्मस्थली पर एक बड़ा आयोजन हुआ था। छत्तीसगढ़ शासन और क्षेत्रीय जनता का इसमें सहयोग रहा। आज हमें कौशल्या माता के नाम पर कोई स्मारक बनाने की आवश्यकता नहीं है। चंदखुरी में माता कौशल्या तालाब के बीच में रामलला को गोद में लेकर बैठी हैं। वे हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं कि इस स्थल के गौरव को पुनस्र्थापित करें। भविष्य में माता कौशल्या महोत्सव के नाम से वहां आयोजन होंगे। वहां सभी संतों के पूज्य चरणों में हम निवेदन करेंगे कि आपके आशीर्वचन वहां हमें प्राप्त हों। राजिम को कुंभ कहने के बारे में अब भी प्रश्न किए जाते हैं। अब कोई प्रश्न रह नहीं गया है। जब यह कुंभ शुरू किया गया था, मैं पूरे भारतवर्ष में संतों के चरणों में निवेदन लेकर गया। कई तरह की बातें मुझे सुनने को मिलीं लेकिन साथ ही आशीर्वाद भी मिला। शुभकामनाएं मिलीं कि राजिम कुंभ का आयोजन किया जाए। कुंभ को संतों ने इसे स्थापित किया है। प्रमाणित किया है। इसे विराट स्वरूप भी संतों ने दिया है। आज हरिद्वार में कुंभ होने के पश्चात भी बड़ी संख्या में यहां संपूर्ण भारत के संतगण विराजमान हैं। राजिम कुंभ की जितनी चिंता छत्तीसगढ़ शासन को, छत्तीसगढ़ के संतों को और बृजमोहन अग्रवाल को है उससे ज्यादा चिंता पूज्य आचार्यों को है कि हम नहीं जाएंगे तो राजिम कुंभ सूना हो जाएगा। इसलिए हरिद्वार को भी छोड़कर यहां बैठे हुए हैं। आज विभिन्न रूपों में सारे देश में छत्तीसगढ़ का गौरव जा रहा है। एक गौरव और जाना चाहिए। वह है गोरक्षा का। संपूर्ण छत्तीसगढ़ में गो माता को काटने का एक भी कत्लखाना नहीं है। एक प्रण यहां मुझे, आपको, छत्तीसगढ़ शासन को और प्रतिपक्ष को भी लेना पड़ेगा, सभी राजनीतिक पार्टियों को लेना पड़ेगा, सभी समाज संगठन के लोगों को लेना पड़ेगा। केवल कथा, पूजा, यज्ञ से कल्याण नहीं होगा। गोमाता की रक्षा का प्रश्न है जो ऐसे मंचों से उठना आवश्यक है। और साथ ही संकल्प आवश्यक है। छत्तीसगढ़ में गो वध पर पाबंदी लग चुकी है लेकिन हर बार मैं यह विषय उठाता हूं कि छत्तीसगढ़ से आसपास के सभी प्रदेशों में गौमाता बेची जाती है और वहां ले जाकर काटी जाती है। इसी राजिम कुंभ में चंद्रशेखर साहू ने एक प्रस्ताव किया था, यह शासन को सौंपा गया था और लागू भी होना है कि सीमांत क्षेत्रों में गोमाता को काटने के लिए बेचने वाले बाजारों पर प्रतिबंध लगे। यह स्पष्ट नीति बने कि मात्र कृषि योग्य जानवर बेचे जाएं। सीमांत क्षेत्रों में पशु जांच चौकी बनाकर कटने के लिए ले जायी जा रही गायों को रोका जाए। हम तो संत हैं। भिक्षा मांगकर जीवन यापन करते हैं। अगर हमें भिक्षा देना चाहते हैं तो एक संकल्प लीजिए-अगर हमारी गाय या बैल बूढ़े हो जाएं तो अपने धर्म का सौदा करके उसे बाजार में मत बेच देना। उसको जीवन भर सेवा देना। तब गौमाता की रक्षा होगी। पूज्य संतों के चरणों में दूसरा निवेदन करूंगा। आज समरसता की बात हम करते हैं। जैसा कि तुलसी ने कहा- सियाराम मय सब जग जानी। घासीदास बाबा ने कहा-मनखे मनखे एक। रामानंद जी ने कहा-जाति पाति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई। लेकिन आज भी कहीं कहीं नवधा रामायण जैसे मंचों पर जाति पांति, छुआ-छूत के नाम पर रामभक्तों को चढऩे नहीं दिया जाता। हम केवल प्रवचनों के माध्यम से इसे नहीं सुधार सकते। इसके लिए राजिम कुंभ जैसा वातावरण चाहिए जहां समस्त पंथ-संत विराजमान हैं। सबकी मर्यादा एक साथ विराजमान होती है। उसी तरह हमारे उपासना स्थल में सभी मत-धर्मों के देवी देवता, महापुरुष विद्यमान हों। आज करमा माता, परमेश्वरी माता को आप एक मंदिर में बिठा नहीं पाते हो। एक मंदिर में कबीरदास जी को, बाबा घासीदास जी को, नानक जी, महावीर जी को बिठाने में क्या हमें दिक्कत होती है? अगर हम समरसता की बात करते हैं, अगर हम कहते हैं कि सभी हमारे बंधु हैं तो हमारे उपासना स्थलों में भी ऐसी बात हो। पाटेश्वर धाम में ऐसा हो रहा है। जशपुर और बस्तर के सुदूर क्षेत्रों में हम अशांति से जूझ रहे हैं। मुझसे उड़ीसा में पत्रकारों ने पूछा था कि आज जंगलों में विघटनकारी तत्व क्यों बच गए हैं? मैंने कहा-पहले जंगलों में महात्मा रहा करते थे, संत रहा करते थे। तब जंगलों की पवित्र हवा शहरों को मिला करती थी। जब से संतों ने जंगल छोड़ दिया और शहरों में डेरा जमाना शुरू कर दिया तब से असामाजिक तत्व वहां आकर बसने लगे। पुन: एक बार हमारे संत जंगलों की ओर चलेंगे, वनवासी क्षेत्रों की ओर चलेंगे तो जंगल पवित्र हो जाएंगे और गलत तत्वों को जगह नहीं मिलेगी। ेएक बार राजिम में बात उठी थी कि यहां सभी अखाड़ों को, सभी संतों को भूमि प्रदान की जाए, सबके आश्रम बनाए जाएं तो मैंने कह दिया था कि राजिम में क्यूं? आज सभी आश्रम हरिद्वार या वृंदावन में क्यूं बनते हैं? ऐसे आश्रम बस्तर,सरगुजा, अंबिकापुर, जशपुर, दंतेवाड़ा में बनें। कालाहांडी में बनें जहां बच्चे बिकते हैं। समस्त आदिवासी क्षेत्रों में, अभावग्रस्त क्षेत्रों में बनें जहां शासन की सुविधाएं भी नहीं पहुंच पाती हैं।मैं अपने प्रणेता संतजनों से निवेदन करना चाहूंगा कि छत्तीसगढ़ केवल राजिम में नहीं है। वह बस्तर और सरगुजा में भी है। वह भोले भाले आदिवासियों के चेहरे और दिल में भी है। आप सबके चरण वहां भी पडऩे चाहिए। आपके ज्ञान की धारा वहां भी होनी चाहिए। आपकी वाणी का अमृत वहां भी बरसना चाहिए। आपके गुरुकुल, आपके अस्पताल, आपके आश्रम, आपकी संस्थाएं, इन सबके लिए शासन की ओर से खुला आमंत्रण होना चाहिए कि सभी संत उन क्षेत्रों में जाकर जोत जगाएं जहां अंधेरा है। हमारे आदिवासी, वनवासी बंधुओं के भीतर का भी अध्यात्म जागे जिन्हें बरगलाया जा रहा है। तब छत्तीसगढ़ का जो दृश्य बनेगा वह भारत के लिए आदर्श होगा।