Saturday, March 13, 2010

यूं ही गर रोता रहा गालिब...



मैं महादेव घाट पर अकेला बैठा था। एक पुराने दोस्त का फोन आया। उसने कहा कि वह परेशानी में है। क्या मैं उसके पास पहुंच सकता हूं? वह रायपुर की एक सड़क किनारे ठेला लगाकर फल बेचता है। मैं थोड़ी देर बाद उसके पास पहुंचा। मुझे देखकर वह रोने लगा। बीस साल में पहली बार उसे रोते देखा। उसने बताया कि सुबह एक महिला उसकी दुकान से केले ले गई। थोड़ी देर बाद वह वापस आई। उसने दोस्त से कहा कि तुमने मुझे दस रुपए वापस नहीं किए। दोस्त का कहना था कि उसे अच्छी तरह याद है कि रुपए वापस किए हैं। वे अपने पर्स में देख सकती हैं। वह महिला किसी प्रभावशाली व्यक्ति की बहन थी। घर जाकर उसने अपने लोगों को बताया। थोड़ी देर बाद कुछ लोग वहां पहुंचे और दोस्त पर बदतमीजी का आरोप लगाकर उसे खूब मारा।
मेरा दोस्त मुझसे क्या चाहता था पता नहीं। शायद वह उन लोगों को सजा दिलवाना चाहता था। मैंने उसे सांत्वना दी। यह पूछा कि वे लोग दोबारा तो नहीं आएंगे। मैने उसे घटना को भूल जाने कहा। और कहा कि कुछ चीजें ऊपर वाले पर छोड़ देनी चाहिए। लडऩे का समय न मेरे पास है न तुम्हारे पास। न इतनी ताकत है।
मेरा यह दोस्त मेरे गृहनगर धमतरी के पास एक गांव का रहने वाला है। मैंने धमतरी में जिस प्रेस से काम की शुरुआत की थी, उसने भी वहीं काम किया था। बाद में मैं रायपुर आ गया। यहां भी वह मुझे साथ में काम करता हुआ मिला।
वह प्रेस में पेस्टिंग करता था। तब उसकी नई नई शादी हुई थी। उसकी जिम्मेदारियां बढ़ गई थीं। और परेशानियां भी। वह घर चलाने के लिए ओवरटाइम काम करता था। दिन में भी और रात में भी। कभी कभी वह खड़े खड़े झपकी ले लेता था। इसका हम सब मजाक बनाते थे। वह अक्सर मुझे अपने घर ले जाता था, खाना खिलाने। घर ले जाने का मतलब था रास्ते में जरूरत का सामान खरीदा जाए। पैसे मेरे पास होते थे। बीच बीच में वह सौ दो सौ रुपए उधार लेता रहता था। प्रेस में तनख्वाह बहुत कम और देर देर से मिलती थी। वे उसके लिए बहुत कठिन दिन थे जो धीरे से उसकी जिंदगी का हिस्सा बन गए।
वह किसान परिवार से था। उन्हें कृषि मजदूर कहना ज्यादा सही होगा क्योंकि एक दो एकड़ जमीन वाला किसान आधा मजदूर ही होता है। उसका जीवन सीधा सादा था। बीच में वह पीने वालों की संगत में पड़ गया। पर शायद जल्द ही संभल गया। उसने परिचितों से कर्ज लेकर एक मकान खरीद लिया। और कर्ज चुका भी दिया। बीच बीच में वह कहता- उस नौकरी से यह धंधा अच्छा है। कम से कम मालिक बनकर तो बैठे हैं। नौकरी में रहता तो क्या मकान खरीदने के बारे में सोच पाता? अब उसके बच्चे बड़े हो रहे थे। इन दिनों उसकी चिंता बच्चों को लेकर ही रहती थी।
वह पेट रोजी में लगा एक आम आदमी था। जिसकी पत्नी उससे बहुत खुश नहीं रहती थी। वह घर चलाने में पत्नी का सहयोग चाहता था। बीच में उन्होंने एक फैंसी स्टोर भी खोला था। वह नहीं चल पाया। वह इसे लेकर पत्नी से नाखुश था। स्टोर का अनबिका सामान घर में पड़ा था। वह बताता था कि जब भी नजर उधर जाती है, मन खराब हो जाता है। रोज कमाने, रोज खाने की स्थिति मे पैसों की यह बरबादी उसे कचोटती है।
उसे रोते देखना इसलिए अधिक खराब अनुभव था क्योंकि वह एक जिंदादिल आदमी था। बहुत शौकीन। पता नहीं किस तरह पैसे जोड़ जोड़ कर वह एक बार अपनी पत्नी के साथ हवाई जहाज से पुरी गया था। फ्लाइट शायद भुवनेश्वर तक जाती है। बहरहाल, यह एक दिलचस्प घटना थी और मोहल्ले वाले उसे विदा करने के लिए जमा हो गए थे। मैंने उसकी इस यात्रा पर छत्तीसगढ़ी में एक वृत्तांत भी लिखा था जो अखबार में छपा था। दोस्त ने उसे फ्रेम करवाकर घर की दीवार पर टांग रखा है।
ुउसके घर से मेरी कुछ मीठी यादें भी जुड़ी हैं। एक बार उसने किसी काम से मुझे अपने घर भेजा। घर पर भाभी थी। उसने कहा- खाना बन गया है। लेकिन उससे पहले नहा लो। अच्छा लगेगा। फिर उसने यह भी जोड़ दिया- नहाए बगैर खाना नहीं मिलेगा। मैंने नहाकर खाना खाया। भाभी के रिश्ते को मैंने वहां पहले पहल महसूस किया। वह मां बहन और दोस्त के बीच का कोई प्यारा सा रिश्ता था। आने वाले दिनों में कम ही ऐसे मौके रहे जब मैं उनके घर से खाए बगैर लौटा।
शादी के बाद मैं जिन लोगों का अपने घर आना जाना देखना चाहता था उनमें से एक इस दोस्त का परिवार भी था। लेकिन शादी के बाद मेरे घर की परिस्थितियां भी एकदम बदल गईं। उनमें एक गरीब आदमी के लिए सम्मान की जगह नहीं थी। यह अलग बात है कि मैं भी रोजी रोटी की चिंता से आगे कभी सोच नहीं पाया।
जिस कालोनी के पास यह दोस्त फल का ठेला लगाता है वह पुराने मालगुजारों की कालोनी है। गांवों में जिनकी बाप दादाओं की जमीनें हैं, रोजी रोटी की जिन्हें चिंता नहीं है, जिनकी अपेक्षा यह रहती है कि आस पास के लोग उन्हें पांव परत हौं महाराज कहकर अभिवादन करें। ये बाहरी लोग नहीं हैं। ये अपने ही लोग हैं।
छत्तीसगढ़ में अक्सर स्थानीय और बाहरी का मुद्दा उठता रहता है। मुझे लगता है कि बाहरी लोगों से खतरा उन लोगों को है जो पहले से यहां के लोगों का शोषण कर रहे थे। बाहरी लोगों के आने से उनका एकाधिकार चला जाएगा। छोटे लोगों का क्या है। वे तो पहले भी शोषित रहे हैं। बाहर से लोग आएंगे तो शायद उनकी संगत में आकर यहां के लोग भी सिर उठाना सीख जाएंगे, प्रतिकार करना सीख जाएंगे।
दोस्त का रोना देखकर मुझे गालिब का शेर याद आया- यूं ही गर रोता रहा गालिब तो ऐ अहले जहां, देखना इन बस्तियों को तुम कि वीरां हो गईं। पलायन के दिनों में यहां के गांव वीरान हो जाते हैं। नक्सलवाद या सलवाजुडूम के चलते बस्तर में कई गांव शायद हमेशा के लिए वीरान हो गए हैं।
मेरे कुछ जानकार दोस्त बताते हैं कि वहां आने वाले उद्योगों को यही तो चाहिए।




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