Saturday, January 30, 2010

चार कुंभ में हो राजिम का अनुसरण


(पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने राजिम कुंभ 2010 के औपचारिक उद्घाटन समारोह में एक यादगार संबोधन दिया। इसका एक अंश)


त्रिवेणी के तट पर यह जो कुंभ कल्प आयोजित किया गया है, इसका बहुत महत्व है और इसकी कुछ विशेषता है जो मुझे बहुत प्रमुदित करती है। यहां एक मंच है। अन्यत्र आप जाएंगे, एक मंच नहीं सुलभ होगा। हजारों मंच होंगे, हजारों तरह की परस्पर विपरीत धाराएं सुलभ होंगी। इतना कोलाहल होगा कि एक दूसरे की बात को दबाने का ही प्रयास करेगा। यहां एक मंच है, एक समय एक ही वक्ता बोलते हैं। संत महात्मा हों या राजनीति से संबद्ध महानुभाव हों, परस्पर सद्भाव है। संवाद के कारण एकरूपता है। एक मंच और सभी वक्ताओं का मंतव्य भी एक। वेदादि शास्त्रों के अनुरूप पूरे विश्व का उत्कर्ष देखने की भावना से यहां की पहचान अद्भुत हो गई है। इस विशेषता को परंपरा से जो चार कुंभ के स्थान कहे जाते हैं, वहां पर उतारने का प्रयास किया जाए । इसकी अनुकृति नासिक, प्रयाग, उज्जैन और हरिद्वार में भी होनी चाहिए, यह हमारी भावना है। हम सब भगवान राम के पावन सानिध्य में विराजमान हैं। भगवान सर्वरूप हैं, सर्वव्यापक हैं, सर्वांतर्यामी हैं सर्वातीत हैं। लेकिन शास्त्र रीति से हम उनको मूर्ति के रूप में भी प्रतिष्ठित करते हैं। मंत्रों के बल पर जो हमारे देवी देवताओं की प्रतिष्ठा होती है, उनमें भगवान का उज्जवल तेज प्रतिष्ठित होता है, उनकी पूजा से मनोरथ की सिद्धि होती है अत: हमें मूर्ति के रूप में भी भगवान का समादर करना ही चाहिए। जैसे अग्नि तत्व या तेज तत्व तो सर्वत्र विद्यमान है लेकिन जब तक हम घर्षण के द्वारा उसको व्यक्त नहीं करते, तब तक यज्ञ की सिद्धि नहीं होती। भोजन की सिद्धि नहीं होती, प्रकाश की प्राप्ति नहीं होती, उष्णता की प्राप्ति नहीं होती। अत: शास्त्र सम्मत रीति से जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई है, वहां भी भगवान को अवश्य देखना चाहिए। रामचरित मानस के आधार पर सूत्र रूप में हम छह संदेश देना चाहते हैं। शासन और सामाजिक तंत्र से संबद्ध जितने महानुभाव हैं, ध्यान से सुनें। भगवान राम के जीवन में शील और स्नेह की प्रतिष्ठा और पराकाष्ठा है। हमारे जीवन में, परिवार में, समाज में, छत्तीसगढ़ में, विश्व में शील और स्नेहपूर्ण वातावरण होना चाहिए। इसके बाद शुचिता और सुंदरता की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। शुचिता का मतलब है शुद्धता। जीवन में शुचिता हो, स्वच्छता हो, घर में शुचिता हो, स्वच्छता हो, सर्वत्र शुचिता का समादर होना चाहिए। सुंदरता का सन्निवेश होना चाहिए। संपत्ति और सुमति से व्यक्ति और समाज का जीवन युक्त होना चाहिए। और हर व्यक्ति सुरक्षित होना चाहिए। शासन तंत्र का पहला दायित्व है कि भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव, त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय और जो विवाह के लिए अधिकृत हैं उनको विवाह की समुचित सुविधा उपलब्ध हो। नागरिकों को सुबुद्ध बनाना, स्वावलंबी बनाना और सहिष्णु बनाना उसका कर्तव्य है। मैं भारत और नेपाल को राजनीति की परिभाषा देना चाहता हूं। इन दो प्रमुख हिंदू बहुल राष्ट्रों में राजनीति की परिभाषा क्या होनी चाहिए? अन्यों के हित का ध्यान रखते हुए हिंदुओं के अस्तित्व और आदर्श की रक्षा, देश की सुरक्षा और अखंडता। और जो राजनीतिक दल तथा राजनेता इस सिद्धांत में आस्था रखता हो, उसी का राजनीति में प्रवेश होना चाहिए। पूरे विश्व स्तर पर राजनीति की क्या परिभाषा होनी चाहिए? जहां परंपरा से जिस वर्ग की प्रमुखता हो, वहां अन्यों के हित का ध्यान रखते हुए उस वर्ग के अस्तित्व और आदर्श की रक्षा। देश की सुरक्षा और अखंडता। मनुस्मृति में राजनीति का पर्याय है राजधर्म। दंड नीति, अर्थशास्त्र। सनातन मान्यता के अनुसार सर्वे भवंतु सुखिन: की भावना को शासकीय विधा का आलंबन लेकर भूतल पर उतारने की प्रक्रिया का नाम राजनीति है। अराजक तत्वों की बपौती का नाम कहीं भी राजनीति नहीं है। शंकराचार्यों का, संतों का दायित्व यह देखना है कि राजनीति दिशाहीन न हो। राजनेता दिशाहीनता से बचें, धर्म नियंत्रित, शोषण विनिर्मुक्त, पक्षपातविहीन शासन तंत्र की स्थापना में सहभागिता का परिचय दें। राजनेताओं का अनुगमन करके उनके मिथ्या, अनर्गल प्रलाप का समर्थन करना संतों का दायित्व नहीं है। एक बात का संकेत करना चाहता हूं। किसी दल के किसी प्रधानमंत्री के शासनकाल में सात बरसों तक पंजाब उग्रवाद की आग में झुलसता था। उसी दल के एक प्रधानमंत्री के कार्यकाल में उग्रवाद का दमन कर दिया गया। मैं किसी का निंदक या प्रशंसक नहीं हूं। इस घटना के बाद मैंने शिक्षा ग्रहण की कि राजनेताओं की चाल से राजनीति में जो दिशाहीनता आती है उस पर पानी फेरने का काम भी राजनेता ही कर सकते हैं।

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