Thursday, January 28, 2010

आदिवासियों को नहीं मिलते औद्योगीकरण के लाभ


(पूर्व सांसद-केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम से हाल ही में यह लंबी चर्चा हुई। )


कांकेर से 30 किलोमीटर दूर जंगल के एक गांव में मेरा जन्म हुआ। ग्रैंड फादर ट्राइबल कम्युनिटी के चीफ थे। फादर तीन बार एमएलए रहे। मेरा परिवार राजनीति की बजाय सामाजिक कार्यकर्ता ज्यादा रहा है। हमें यह गुण विरासत में मिला। आज राजनीति में रहकर भी हम सामाजिक पहलू को हमेशा ध्यान में रखते हैं। मेरी प्राथमिक शिक्षा गांव में हुई। कांकेर में हाई स्कूल पढ़े। कालेज रायपुर से किया।


राजनीति विरासत में मिली

पारिवारिक वातावरण के कारण छात्र जीवन से ही राजनीति और सामाजिक कामों में रुचि लेने लगे। मध्यप्रदेश के जमाने में हम लोगों ने आदिवासी छात्रों का एक संगठन बनाया था। डा। भंवरसिंह पोर्ते, दिलीप सिंह भूरिया जैसे लोग उसमें थे। बाद में उसमें से कुछ लोग राजनीति में चले गए, कुछ प्रशासन में। यह हमारा पहला प्रयास था। इसके चलते प्रदेश में आदिवासियों का एक नेटवर्क तैयार हुआ। वरना ग्वालियर के आदिवासी का बस्तर के आदिवासी से कोई लेना देना नहीं होता था। बाद में हमें राजनीति में भी इसका लाभ मिला और सामाजिक कामों में भी। मध्यप्रदेश में आदिवासियों की एक राजनीतिक ताकत महसूस होती थी। उनका दबाव बनता था, असर दिखता था। छत्तीसगढ़ में उनकी बहुलता होते हुए भी यह बात नजर नहीं आती। अच्छे लोगों को बढ़ावा नहीं मिलता पहले देश और प्रदेश की राजनीति में लोग अच्छे लोगों को एनकरेज करते थे। वे चाहते थे कि आदिवासी समाज से भी अच्छे लोग सामने आएं। बाद में ऐसा लगने लगा कि कुछ दूरी तक तो जाने देंगे, उसके आगे जाने नहीं देंगे। ऐसा सभी पार्टियों में है। बलीराम कश्यप, नंदकुमार साय जैसे वरिष्ठ नेताओं को क्या मिला? क्या उन्हें देश और प्रदेश की राजनीति में पर्याप्त महत्व मिला? महेंद्र कर्मा नेता प्रतिपक्ष रहे, उसके बाद? इससे देश में मौजूद एक सोच का पता चलता है। मेरी यह धारणा है कि अब देश की राजनीति हो या ट्राइबल पॉलिटिक्स, उसमें अच्छे लोगों को पिक-अप नहीं करेंगे। ये तो पक्का है। उसका नतीजा ये होगा कि आदिवासियों का असर नहीं दिखेगा। हर समाज पर यह बात लागू होती है।


रिएक्शन तो होगा

कभी न कभी इसका रिएक्शन तो होगा। देखिए, पिछड़े वर्ग की राजनीति ने आज देश में जगह बना ली है। पहले ओबीसी को कौन पूछता था? आदिवासी समाज से भी प्रतिक्रिया आएगी। इसका स्वरूप क्या होगा मैं नहीं जानता। नई पीढ़ी पढ़ लिख कर आ रही है। शिक्षा के कारण उसमें और हमारी पीढ़ी में अंतर दिख रहा है। वह अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों को जानती है। संवैधानिक प्रावधानों की चर्चा करती है। वह पूछेगी कि ये प्रावधान लागू क्यों नहीं हो रहे। ये अन्याय क्यों हो रहा है। अगर राजनीति में लोगों की आज जैसी सोच रही तो हो सकता है आने वाले दिनों में लोग सामाजिक स्तर पर राजनीति करने लग जाएं। आदिवासी नेताओं के बारे में मुझे नहीं लगता कि दिल्ली भोपाल की राजनीति करने वालों ने अपनी जमीन ही छोड़ दी। मुझे एक भी उदाहरण दिखता नहीं। मैं दूसरों की नहीं कह सकता, अपने समाज की तो कह सकता हूं। हम लोगों ने जो राजनीति की, जमीनी ताकत की वजह से की।


संस्कृति को बचाना मुश्किल


यह बात सही है कि संस्कृति और रीति रिवाज को इंटैक्ट रखना बहुत मुश्किल हो रहा है। इसके कई कारण हैं। जैसे टीवी का असर। यह सारे देश में हो रहा है। ट्राइबल भी अछूता नहीं रह सकता क्योंकि अब गांव गांव टीवी हो गया है। आदिवसी समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम नई पीढ़ी को एजुकेट नहीं कर पा रहे हैं, सामाजिक तौर पर। हर समाज की अपनी मान्यताएं होती हैं, पूजा विधियां होती हैं। यह शिक्षा समाज की ओर से मिलनी चाहिए। यह व्यवस्था धीरे धीरे कमजोर होती जा रही है। मेरे जैसा पढ़ा लिखा आदमी यह महसूस करता है कि पढ़ लिख कर भी अपनी संस्कृति पर कायम रहा जा सकता है। हम भी पढ़े लिखे हैं पर अपनी संस्कृति के बारे में बहुत अडिग हैं। समझौता नहीं करते। चाहे पूजा पद्धति हो, शादी ब्याह हो, रीति रिवाज हो। पर आने वाली पीढ़ी यह नहीं करेगी। भले ही वह पढ़ी लिखी हो। हम से पहले वाली पीढ़ी में लोग निरक्षर रहे लेकिन अपने रीति रिवाजों पर डटे रहे। हमारी पीढ़ी में कुछ लोग डटे रहे कुछ हिले। नई पीढ़ी इतना भी नहीं करेगी। एंथ्रोपोलॉजी सब्जेक्ट दुनिया से धीरे धीरे खत्म हो जाएगा ऐसा लगता है।


विकास कैसा हो?

ट्राइबल कम्युनिटी का विकास कैसा हो, यह बहुत कठिन विषय है। इसके अलग अलग उत्तर मिलते हैं। एक उद्योगपति से पूछो तो वह कहेगा औद्योगीकरण से विकास होगा। एक सोशल एक्टिविस्ट से, एक पर्यावरणवादी से पूछोगे तो कहेगा नहीं भई, इससे नुकसान होगा। आप विकास को रोक नहीं सकते। उदारीकरण से यह हुआ है कि दुनिया का कोई भी इनवेस्टर इस देश में इनवेस्ट कर सकता है। लेकिन ये जो हैवी इनवेस्टमेंट है प्राइवेट सेक्टर में, यह गरीब आदमी का कभी खयाल नहीं रख सकता। यह बात दुनिया की हिस्ट्री में है। यह नफे का ही खयाल रखेगा, बाकी कुछ नहीं। औद्योगीकरण से कभी आदिवासी समाज को लाभ नहीं मिला। आप झारखंड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश में देख लीजिए। कितने आदिवासियों को नौकरी मिली? बैलाडीला के आसपास के गांवों को जितना मिलना था, नहीं मिला। इतने साल का मेरा राजनीतिक अनुभव कहता है कि आदिवासियों को औद्योगीकरण का लाभ नहीं मिलता, वह दूसरों को मिलता है। कारपोरेट सेक्टर की सोच से हम सरीखे आदमी को डर लगता है कि कहीं हम अपरूट न हो जाएं। ट्राइबल के बारे में लोगों की एक धारणा है कि अरे भई पैसा ले लो और कहीं भी बस जाओ। देखिए, इस जमीन पर हमारे बाप दादाओं की कब्र है, देवी देवताओं के स्थान हैं, खेत हैं। जमीन से जैसा मोह आदिवासी का होता है, दुनिया के किसी समाज में आप नहीं पाएंगे। इसलिए अपरूट होना, डिस्प्लेस होना सबसे तकलीफदेह बात होती है। सेंटीमेंट को, भावनाओं को इस देश में क्या, दुनिया में बहुत कम लोग समझते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है। इसलिए मैं बहुत ज्यादा इंडस्ट्रियलाइजेशन के पक्ष में नहीं हूं। इंडस्ट्रियलाइजेशन हो तो सेफगार्ड भी होनी चाहिए। आजादी के इतने साल बाद अब यह बात कानून में आई है कि विस्थापित होंगे तो पुनर्वास भी होगा। पहले ऐसा नहीं था।


नक्सलवाद का इलाज बंदूक नहीं

नक्सलवाद मेरे हिसाब से एक राजनीतिक मूवमेंट है। एक्सट्रीम लेफ्ट का मूवमेंट है। मैंने इस विषय पर बहुत किताबें पढ़ी हैं। पार्लियामेंट की लाइब्रेरी में और बाहर भी। इसका निचोड़ यह है कि जहां गरीबी, भुखमरी, बेकारी और शोषण हो वहां नक्सलवाद जरूर आएगा। आजादी के इन साठ बरस में देश के आदिवासी इलाकों के लिए कोई गंभीर नजर नहीं आया। मुझे इंदिराजी के साथ काम करने का मौका मिला। वे इन मामलों में थोड़ा टची थीं। राजीव जी को अधिक अवसर नहीं मिला। मैं लगातार प्रधानमंत्रियों से इस बारे में कहता रहा पर कोई गंभीर दिखा नहीं मुझे। नक्सलवाद का सबसे बड़ा कारण है शोषण। चाहे वह सरकारी अमले की तरफ से हो चाहे व्यापारियों की तरफ से। दोनों तरफ से शोषण होगा तो आखिर होगा क्या? आज भी बस्तर में चले जाइए, मुझे एक भी विभाग के बारे में बता दीजिए कि उसकी कुछ उपलब्धि है। ग्रामीण उसका फायदा उठा रहे हों। इतने साल बाद भी हम आधे से भी कम लोगों को शिक्षित कर पाए। दुनिया के कई देश, जिनमें अफ्रीका के देश भी शामिल हैं, हमसे बाद में आजाद हुए और शिक्षा के क्षेत्र में हमसे आगे निकल गए। शोषण का जो आलम है, उसमें नक्सलवाद का पैदा होना मुझे स्वाभाविक लगता है। नक्सलवाद कोई आज का थोड़े ही है। आजादी के पहले भी मूवमेंट रहा है, कम्युनिस्ट एक्स्ट्रीम लेफ्ट का। एक सवाल है कि बंगाल में नक्सलवाद क्यों नहीं रहा? अभी मैं ज्योति बाबू के बारे में पढ़ रहा था कि वे 27 साल चीफ मिनिस्टर रहे। उन्होंने गरीबों के लिए कुछ तो किया होगा? उन्होंने भूमि सुधार किया। बाकी राज्यों में यह क्यों नहीं हुआ? नक्सलियों की अपनी प्लानिंग होती है कि पांच साल में हमको क्या करना है, दस साल में क्या करना है, पंद्रह साल में क्या करना है। सत्तर के दशक तक वहां नक्सली नहीं थे। वे अपनी योजना के तहत वहां आए। उनको काउंटर करने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं रही। आने दो, आने दो, आने दो, देखेंगे, यह उनकी सोच रही। उस बादशाह का किस्सा सुना होगा आपने जो दुश्मन फौजों के आने की खबर सुनकर कहता रहा कि अभी दिल्ली दूर है। उसके हाथ से दिल्ली जाती रही। नक्सली कोई एक दिन में पैदा नहीं होते। सरकार को भी मालूम है कि उसे पैर जमाने में कम से कम पांच-दस साल लगते हैं। सरकार की ऐसी सोच बनी कि उसे कैसे काउंटर किया जाए? आप देखिए कि साठ साल में बस्तर पर कितना खर्च हुआ? आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 1933 के सेटलमेंट का रिकार्ड तो आपको मिल जाएगा लेकिन उसके बाद हुए दो सेटलमेंट का रिकार्ड नहीं है। राजस्व विभाग का यह बुनियादी काम है। यही काम नहीं किया तो आखिर काम क्या किया? पोतों के बीच बटवारा हो चुका है और जमीन दादा के नाम पर ही दर्ज है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में बुरा हाल है। पीने के पानी का बुरा हाल है। हम आधे लोगों को भी शिक्षित नहीं कर पाए। खेती में भी शहरों के आसपास तो आपको असर दिखेगा, लेकिन सरकार की योजनाएं अंदर के गांवों तक पहुंच नहीं पायीं। क्या पहुंचा है यह तो देखिए? यह अखबारों के लिए शोध का अच्छा विषय है। इन्हीं इलाकों में नक्सलवाद क्यों पैदा हुआ? उन्होंने जनता का विश्वास क्यों अर्जित कर लिया। हमें सोचना होगा कि क्या प्रशासनिक बदलाव किए जाएं। क्या प्राथमिकताएं रखी जाएं। लोगों को प्रशासन में कैसे शामिल करें, जैसा कि रियासत के समय होता था। ऐसी बहुत सी चीजें हैं। बंदूक इसका समाधान नहीं है। लोगों की जान-माल की रक्षा राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। उसके निर्वहन के लिए तो ठीक है लेकिन कोई कहे कि नक्सलवाद का समाधान बंदूक से हो सकता है तो मैं इससे सहमत नहीं हूं। आप दुनिया का इतिहास उठा कर देख लीजिए। किसी प्लानिंग प्रोसेस से, बातचीत से आप इस समस्या का समाधान निकाल सकते हैं। आदिवासी इलाकों की समस्याओं के बारे में राजनेताओं के पास वक्त नहीं है। जब वक्त नहीं है तो आप ध्यान भी नहीं देंगे। यह चिंता का विषय है। चिदंबरम जी के आने से थोड़ी सी उम्मीद जगी है, उन्होंने कहा है कि पुलिस कार्रवाई के साथ साथ विकास भी करेंगे। अभी यह कहीं पढऩे को नहीं मिला कि किस तरह का विकास करेंगे। कभी मुलाकात होगी तो पूछना पड़ेगा। अगर अभी तक जैसा होता आया कि करोड़ों खर्च करने के बाद भी रिजल्ट जीरो, तब तो कोई मतलब नहीं। सरकार में कोई भी रहा हो, चूक तो हुई है। वरना ये लोग इतना बढ़ते कैसे? आज भी कितने हथियार लगेंगे इसकी चर्चा हो रही है। विकास योजनाओं की चर्चा नहीं हो रही। हो भी रही तो पेपर पर। बस्तर में जंगल कम होते जा रहे हैं। वैसे अब जंगल इस देश में रह कहां गया? थोड़ा बहुत है। लेकिन जो रिकार्ड में है वह नहीं है। जंगल पर पापुलेशन का दबाव बहुत है। जंगल बचाना और पापुलेशन को भी फीड करना-ये बहुत टेढ़ी खीर होगी। या तो आप पापुलेशन की जरूरतें देख लीजिए या जंगल को बचा लीजिए। दोनों में से एक हो सकता है। आदिवासी को जमीन चाहिए। भारत सरकार ने पट्टा देने की जो बात कही है उसका कारण यही है।


अब मिल बैठ कर चर्चा नहीं होती

बारह तेरह साल तक हम पार्लियामेंटरी फोरम के अध्यक्ष रहे। एससी-एसटी का कंबाइंड होता था। अखिल भारतीय विकास परिषद से भी जुड़े रहे। इनमें बहुत से मुद्दों पर चर्चा करते थे, सरकार तक बातें पहुंचाते थे। नारायणन साहब के लिए हम लोगों ने आल पार्टी फोरम की ओर से मांग की कि हमें दलित-आदिवासी समाज से प्रेसिडेंटशिप चाहिए। सभी राजनीतिक दलों से बात की। सभी पार्टियों ने कहा- प्रेसिडेंट तो नहीं, हम आपको वाइस प्रेसिडेंट देंगे। तो हमें यह कामयाबी मिली। यह कोई छोटी मोटी घटना नहीं थी। हमने रिसेप्शन में नारायणन साहब से कहा- अब आपको प्रेसिडेंट बनने से कोई नहीं रोक सकता। पहले के सांसद पार्टी के ऊपर से उठकर गंभीरता से बात करते थे। मुद्दों पर हम अपनी आवाज बुलंद करते थे। अब वह बात नहीं दिखती। आदिवासी इलाकों के लिए अब कमिटेड ब्यूरोके्रट्स भी नहीं मिलते। पहले ब्रह्मदेव शर्मा, भूपिंदर सिंह, शंकरन जैसे अफसर होते थे जिन्होंने अपना जीवन इन इलाकों के लिए समर्पित कर दिया। अब ऐसे अफसर ढूंढे से नहीं मिलेंगे। राजनीति में भी यही हाल है। एक बड़ी समस्या यह है कि आदिवासी का विकास कैसा होना चाहिए, यह आदिवासी से कोई नहीं पूछता। पहले मुझको प्लानिंग कमीशन में बुलाते थे। चर्चा होती थी। पंचवर्षीय योजनाओं मेंं योजनाकार आदिवासी इलाकों के लिए बजट बढ़ाते थे और यह भी तय कर देते थे कि पैसे कहां कहां खर्च होंगे। आज भी योजनाएं आफिस के बाबू बनाते हैं। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ने चीफ सेक्रेटरी को लिखा, चीफ सेक्रेटरी ने कलेक्टर को भेज दिया, कलेक्टर ने ट्राइबल डिपार्टमेंट के डिप्टी डायरेक्टर को भेज दिया, उन्होंने बाबू को भेज दिया। बिलकुल यही होता है। यह विडंबना है।


परिवार के लोग अपने बूते पर आएंगे

हमारा परिवार सामाजिक कामों में ज्यादा रहा है। इसमें ऐसा है कि समाज से अंतिम सांस तक जुड़ाव रहता है। आप खाट पर भी पड़े हों तो लोग मिलने जुलने आते हैं और सामाजिक चर्चा हो जाती है। मैं देश भर के सामाजिक कार्यक्रमों में जाता रहता हूं और एक बात जरूर कहता हूं कि सरकारी नौकरियों के दरवाजे अब बंद हो रहे हैं। समाज में पढ़े लिखे बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है। बेरोजगारों की फौज खड़ी होती जा रही है। यह बड़ी समस्या है। पालक सोचते हैं कि बच्चा पढ़ लिख जाएगा तो तुरंत नौकरी मिल जाएगी। अब वह बात नहीं रही। यह संक्रमण काल है। समाज को इसे गंभीरता से लेना चाहिए। जब नौकरी ही नहीं रहेगी तो सरकार से क्या उम्मीद करें। इन दिनों ज्यादातर जगदलपुर में रहना होता है। सामाजिक कामों में रहते हैं। कुछ कांग्रेस पार्टी का काम भी कर लेते हैं। अब राहुल जी का जमाना है। वे युवा हैं, उनकी सोच आम राजनीतिज्ञों से हटकर है। वे बदलाव लाएंगे, इसमें दो मत नहीं। बदलाव होना भी चाहिए। हमारी नई पीढ़ी को राजनीति में लाने के बारे में लोग पूछते हैं। हम तो अपने परिवार के लोगों से कहते नहीं। रुचि होगी तो अपने बलबूते पर आएंगे।

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