Friday, April 9, 2010

कुछ और मौतें, कुछ और मोमबत्तियां

गृहमंत्री पी। चिदंबरम ने काम संभालने के बाद नक्सल मामले में कहा था कि हम इसकी गंभीरता का सही अनुमान नहीं लगा पाए। तब मेरे एक लेखक मित्र ने कहा था कि यह बहुत अच्छा बयान है। आगे उनसे समाधान की कुछ उम्मीद की जा सकती है। अब दंतेवाड़ा घटना के बाद उन्होंने कहा कि चिदंबरम की गंभीरता दिख नहीं रही। राजा का अच्छा होना काफी नहीं। उसे अच्छा दिखना भी चाहिए। चिदंबरम हम छत्तीसगढ़ में बैठे लोगों से बहुत दूर हैं। हम यहां बैठकर यह अनुमान नहीं लगा सकते कि वे कितने संवेदनशील, कितने जानकार और कितने गंभीर हैं। लेकिन मेरे खयाल से छत्तीसगढ़ में बैठे हम लोगों को सोचना चाहिए कि हम खुद कितने गंभीर हैं। सच तो यह है कि हमें किसी की मौत पर ओह कहने का अभ्यास हो गया है। और खाली समय में हम बहस कर लेते हैं। वरना बस्तर से ढाई तीन सौ किलोमीटर दूर रायपुर में ज्यादातर लोगों को दंतेवाड़ा की घटना से कोई फर्क नहीं पड़ा है। रायपुर बंद और मोमबत्ती जलाने जैसे प्रतीकात्मक काम जरूर किए जा रहे हैं लेकिन वे सिर्फ प्रतीकात्मक हैं। मेरा यह नितांत निजी आब्जरवेशन है कि किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा है। जिस रोज घटना हुई वह सत्तारूढ़ भाजपा का स्थापना दिवस था। पार्टी के प्रदेश कार्यालय में एक कार्यक्रम का आयोजन था। नक्सली वारदात में बड़ी संख्या में जवानों के मारे जाने की खबर आने के बाद पता नहीं किस समझदार नेता के कहने पर इसे श्रद्धांजलि सभा में बदल दिया गया। इसमें मैंने पार्टी के एक जिम्मेदार पदाधिकारी का भाषण खुद सुना और एक मंत्री का भाषण अखबार में पढ़ा। पदाधिकारी ने शुरूआत की दो चार लाइनें नक्सली घटना के बारे में कहीं फिर अपनी लाइन पर आ गए। उन्होंने बताया कि भाजपा ने कहां से शुरुआत करके यहां तक का सफर तय किया है। कार्यकर्ताओं ने तालियां बजाईं। 83 लोगों की मौत भी उन्हें भाजपा की कामयाबी पर ताली बजाने से रोक नहीं सकी। किसी को यह नहीं सूझा कि यह समय तालियां बजाने का नहीं है। पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी पूरे जोश से भाषण दे रहे थे। नक्सल मामलों पर पार्टी की गंभीरता दिख रही थी। दंतेवाड़ा की घटना के बाद लगातार प्रतिक्रियाएं देखने सुनने में आ रही हैं। यह बहुत दुखद है कि बहुत से जिम्मेदार लोग घिसी पिटी बातें कहकर अपने संवेदनहीन होने का सबूत दे रहे हैं। नक्सली कायर हैं, हम उन्हें कामयाब नहीं होने देंगे, ऐसे बयान बार बार इस्तेमाल होकर अपना प्रभाव खो चुके हैं । इनसे अब बयान देने वालों की जड़ता प्रकट होती है। सुनने वालों को इससे चिढ़ हो चली है। अगर नक्सली कायर हैं तो यह बात कहने का यह उचित समय नहीं है। यह तो नक्सलियों का दुस्साहस है कि उन्होंने इतनी सक्षम फोर्स पर हमला कर दिया और इतना नुकसान पहुंचा दिया। यह तो दुश्मन का रणनीतिक कौशल है कि उसने जो चाहा कर डाला। नक्सली कायर हैं या नक्सली क्रूर हैं- इन बयानों का मतलब मुझे समझ में नहीं आया। आप उन लोगों के बारे में सोचिए जो नक्सली प्रभाव वाले इलाकों में रहते हैं। जिन्हें दोनों तरफ की बंदूकों के साए में जीना पड़ रहा है। क्या आप यह कहकर उनको राहत दे सकते हैं कि नक्सली कायर या क्रूर हैं? या शहीद जवानों के परिवारों को इससे सांत्वना मिल सकती है? नक्सली तो जो हैं सो हैं, आप बताओ कि आप क्या हो? पिछले दो दिनों में नक्सलियों को खत्म करने के बारे में कई अनौपचारिक बहसों में मैं शामिल हो चुका हूं। भाजपा से जुड़े एक व्यक्ति से मेरी मुलाकात हुई जिसने घटना स्थल के पास कभी शिक्षक के रूप में काम किया था। उसने मेरे एक सवाल के जवाब में बताया कि नक्सलियों का सूचना तंत्र बहुत मजबूत है। गांव वाले उनसे जुड़े हुए हैं। और यह सिर्फ डर की वजह से नहीं है। नक्सली उनको अपने विचारों से प्रभावित करते हैं और उनको प्रशिक्षित करते हैं। गांव वालों से अच्छे संबंध बनाने का काम तो फोर्स का भी है। और मोटे तौर पर पूरे सरकारी तंत्र का है। इस बारे में आम जनता की राय बहुत अच्छी नहीं है। आप किसी भी पार्टी के आदमी से अनौपचारिक चर्चा में पूछ लीजिए। कोई आदमी यह नहीं कहेगा कि सरकारी तंत्र के कामकाज से जनता खुश है। आखिर सरकारी भ्रष्टाचार की खबरों को जनता नक्सली घटनाओं से अलग करके कैसे देख सकती है? उसकी यह राय बनती है कि सरकारी तंत्र घोटाले करने में व्यस्त है, उसका नक्सलवाद से लडऩे में ध्यान नहीं है। जनता अफसरों नेताओं का विलासितापूर्ण जीवन भी देख रही है। अपनी रोजी रोटी के संघर्ष में जुटे लोगों को आप सरकारी विज्ञापनों से कितना भरमा सकते हैं? आम आदमी ऊबड़ खाबड़ सड़कों पर चलता है, अपमानजनक परिस्थितियों में नौकरी करता है, रिश्वत के बगैर उसका काम नहीं होता। शहर में रहने वाला पढ़ा लिखा आदमी इस अराजकता से परेशान और नाराज रहता है। फिर जंगल में रहने वाले अनपढ़ लोग कितने परेशान और नाराज होते होंगे इसकी कल्पना की जा सकती है।आप मेधा पाटकर की बात मत मानिए। लेकिन जो मुद्दे वे लोग उठा रहे हैं उनको नजर अंदाज मत करिए। यह आपके और मेधा पाटकर के बीच की लड़ाई नहीं है। मेधा पाटकर को यहां रहना भी नहीं है। जिन्हें रहना है उनके बारे में सोचिए।नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई के एक तो सिद्धांत बदलते रहते हैं। फिर खबरें बताती हैं कि अलग अलग सुरक्षा बलों के बीच समन्वय नहीं है। खबरें यह भी बताती हैं कि नक्सली इलाकों में पोस्टिंग रुकवाने के लिए अफसर लाखों खर्च करने के लिए तैयार हैं। इन विसंगतियों को क्या नक्सली आकर ठीक करेंगे? पिछले दो दिनों में कई लोगों ने कहा कि पुलिस को जगदलपुर या दंतेवाड़ा में मुख्यालय बना लेना चाहिए। बारीकी से मॉनिटरिंग होनी चाहिए। सरकार के पास काम करने की बहुत ताकत होती है। ईमानदारी से काम होगा तो जनता को कोई बात समझ में आएगी। लेकिन ज्यादातर लोगों की राय है कि यह भेडि़ए से यह कहने जैसा है कि वह घास खाकर गुजारा कर ले।

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