Wednesday, December 16, 2009

कुछ बुद्धिजीवियों की

हाल ही में राजधानी में एक नाट्य महोत्सव संपन्न हुआ। राज्य के संस्कृति विभाग ने इसका आयोजन किया। इसमें मुम्बई, उज्जैन और कोलकाता के नाट्य दलों ने पांच नाटक पेश किए। बीच में एक दिन परिचर्चा का भी आयोजन किया गया। इस महोत्सव ने नगर के रंगकर्मियों, बुद्धिजीवियों और साहित्य-संस्कृति में रुचि रखने वाले लोगों को एक जगह एकत्र होने का एक अवसर दिया। नाटकों का जहां तक सवाल है मुम्बई की संस्था एकजुट के नाटक जस्मा ओडऩ और कोलकाता की संस्था रंगकर्मी की प्रस्तुति काशीनामा को छोड़कर शेष नाटक दर्शकों को बहुत पसंद नहीं आए। कम से कम तालियों के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है। हिंदी रंगमंच के विस्तार पर परिचर्चा के दौरान रंगकर्मी सुभाष मिश्र द्वारा उठाया गया यह मुद्दा इस संबंध में काबिले गौर है। उन्होंने इस बात पर अफसोस प्रकट किया कि जिस दौर में किसान कर्ज में डूबे हुए हैं, हम ऐतिहासिक नाटक खेल रहे हैं। ऐतिहासिक नाटकों का महत्व अपनी जगह है। लेकिन सवाल प्राथमिकताओं का है। अगर दर्शकों ने जस्मा ओडऩ नाटक को पसंद किया तो इसकी एक वजह थी उसकी कहानी जिसकी नायिका एक मेहनतकश मजदूरनी है जो पति के लिए राजा का प्रस्ताव ठुकरा देती है और सबके साथ रहने के लिए स्वर्गदूतों को लौटा देती है। छत्तीसगढ़ नया नया राज्य बना है। जनता चाहती है कि राजा को मिट्टïी खोदना आना चाहिए। वह मेहनत की रोटी खाना पसंद करती है। वह सबके साथ मिलकर रहना चाहती है। उसे दूसरा कोई स्वर्ग नहीं चाहिए। उस रोज लगा कि मंच पर जस्मा नहीं बोल रही, छत्तीसगढ़ की कोई मजदूरनी बोल रही है। कोई कामकाजी लड़की बोल रही है। हमारे आसपास रहने वाले किसी गरीब आदमी की मेहनतकश और स्वाभिमानी बेटी बोल रही है। हाल में देर तक बजी तालियों के पीछे नाटक के कथानक व उसके संवादों का बड़ा योगदान था। यह नाटक छत्तीसगढ़ की वर्तमान परिस्थितियों से संबंध रखता था। परिचर्चा में दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह उठा था कि नाट्य महोत्सव में प्रदेश के किसी नाटक को जगह नहीं दी गई। बात ठीक थी। यहां के नाटक प्रदेश के बाहर जाकर पुरस्कार जीत कर लाते हैं। और यहां बाहर के नाटक बुलवाए जा रहे हैं। ऐसा नहीं कि लोग प्रदेश के नाटक रोज रोज देखकर तृप्त हो गए हों इसलिए बाहर के नाटक बुलाए गए हों। नाटकों का मंचन यहां कभी कभार होता है। जैसा कि नाटककारों ने बताया यहां कोई ऐसा प्रेक्षागृह नहीं जिसे नाट्यकर्मी अपना कह सकें। जो प्रेक्षागृह हैं उनमें ईको की समस्या है। उनका किराया बहुत ज्यादा है। वे मंचन के एक दिन पहले रिहर्सल के लिए भी नहीं खोले जाते। उषा गांगुली अनुभवी नाट्यकर्मी हैं। उन्होंने बताया कि नाटकों और नाट्यकर्मियों की ये समस्याएं सारी दुनिया में तकरीबन एक सी हैं। मुझे हाल ही में देखी एक फिल्म का जिक्र करना प्रासंगिक लग रहा है। ब्राइड एंड प्रीज्यूडिस में गोआ के एक दृश्य में संवाद है कि भारत को देखने के लिए पैसा नहीं लगता और अगर आपके पास पैसा है तो आप भारत नहीं देख सकते। कवियों, लेखकों, नाटककारों के साथ भी शायद यही बात है। अगर वे सुविधाओं के बारे में सोचने लगें तो उनकी रचनात्मक स्वतंतत्रता पर इसका असर पड़ता है। हालांकि कुछ लोग दोनों को साध लेते हैं। कुछ समस्याएं कलाकारों और कलाकार बिरादरी की भी हैं। इनमें एकजुटता नहीं है। अलग अलग खेमे हैं। कुछ के अपने आर्थिक हित हैं। कुछ की राजनीतिक प्रतिबद्धताएं हैं। कुछ के व्यक्तिगत अहम हैं। नगर में एक थिएटर बन भी गया तो इस बात के लिए तनातनी होने लगेगी कि उस पर कब्जा किस खेमे का हो। उसमें किस विचारधारा के नाटक खेले जाएं किस विचारधारा के नहीं। कोई लाइब्रेरी खुल गई तो झगड़ा होगा कि कौन की किताबें मंगवाई जाएं इसका फैसला कौन करेगा। किससे मंगाई जाएं यह भी झगड़े का विषय होगा। एक बुजुर्ग रंगकर्मी ने यह बात उठाई कि समीक्षा का काम कम होता जा रहा है। जो लोग नाटकों पर लिख रहे हंैं वे नाटकों के बारे में जानते नहीं। वे समीक्षा नहीं रिपोर्टिंग करते हैं। मैं अच्छे समीक्षकों को नहीं जानता। लेकिन अखबारों में किताबों की समीक्षाएं पढ़कर मैंने इतना समझा है कि इन्हें न छापना ही ठीक है। समीक्षाएं उन किताबों की होती हैं जो सामान्यत: पाठकों तक कभी नहीं पहुंचतीं या पाठक उन तक कभी नहीं पहुंचता। लेखक किताब के बारे में कम, अपने बारे में ज्यादा लिख मारते हैं। वे समीक्षा किसके लिए लिख रहे हैं यह कई बार स्पष्टï नहीं हो पाता। इन्हें पढऩा अपना समय खराब करना है। अखबार ऐसी समीक्षाएं क्यों छापे। कोई छोटा दूकानदार भी किसी निठल्ले आदमी को अपनी दूकान पर क्यों बैठने देगा जिसे देखकर आता हुआ ग्राहक भी बीच रास्ते से लौट जाए? नाटकों की अच्छी समीक्षा कोई लिखे, आम पाठकों के बीच लोकप्रिय होने लायक लिखे तो कोई भी अखबार उसे छापना चाहेगा। एक वाक्य उषा गांगुली ने कहा- नाटक एक ऐसा माध्यम है जिसने अपने को पूरे का पूरा बाजार में नहीं ला खड़ा किया है। उन्होंने चाहे जिस अर्थ में यह बात कही हो लेकिन मेरा खयाल है नाटककारों को बाजार से मुंह नहीं चुराना चाहिए। उन्हें अपने को बाजार में लाकर खड़ा कर देना चाहिए। बाजार में स्पर्धा है। बाजार में अपना माल बेचने की गरज है। बाजार में रिस्पांस का पता चलता है। बाजार से नफरत करने के कारण ही ऐसे ऐसे नाटक मंचित हो जाते हैं जिनके खत्म होने का पता तब चलता है जब सारे कलाकार हाथ जोड़कर स्टेज पर आ खड़े होते हैं। एक तर्क बड़ा चला हुआ है कि दर्शक अश्लीलता देखना चाहते हैं। अगर यह सही होता तो भौंडी फिल्में सबसे ज्यादा कमाई करतीं। या कोई अश्लील फिल्म किसी थिएटर में लगातार चार साल चलती। अगर यह तर्क सही होता तो चरणदास चोर की लोकप्रियता के बारे में आप क्या तर्क देंगे? दर्शकों से भी एक बात कही जा सकती है कि उन्हें नाटककारों से संवाद स्थापित करना चाहिए। लोग तारीफ तो ुखुलकर करते हैं पर कमियों की चर्चा करने से हिचकते हैं। कुछ अरसा पहले शहर में हबीब तनवीर के कुछ नाटक खेले गए। एक नाटक के संवाद बड़ी तेजी से बोले जा रहे थे। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। कुछ देर तक मैं यह सोचकर बैठा रहा कि गलती मुझी में होगी। बाद में आसपास के कुछ लोगों ने एक दूसरे से खुसुर फुसुर की कि संवाद समझ में नहीं आ रहे हैं। पता नहीं हबीब जी से यह बात किसी ने कही कि नहीं। मुक्तिबोध की कविताओं पर आप किसी बुद्धिजीवी से चर्चा करें तो वे बहुत जल्दी बिगड़ जाते हैं। क्या आपको इन कविताओं का अर्थ समझ में आया, यह सवाल उन्हें बड़ा खराब लगता है। मेरे कुछ परिचितों को तो आश्चर्य हुआ कि मुक्तिबोध को लेकर कोई ऐसे सवाल उठा सकता है। हालांकि उन्होंने स्पष्टï किया कि जिन कविताओं को लेकर चर्चा चल रही है वे उनकी भी समझ में नहीं आईं।

(कुछ साल पहले लिखा गया लेख)

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