Thursday, December 17, 2009

राज्योत्सव की यादें

एक और राज्योत्सव बीत गया। और अपने पीछे बहुत सी यादें, बहुत से सवाल छोड़ गया। यादें तो होंगी ही। इतने दिनों तक, इतने लोग कहां बार बार जुटते हैं? इतने सारे स्टाल कहां लगते हैं? पूरी सरकार सामने रहती है। पूरा बाजार सामने रहता है। चना जोर गरम से लेकर भिलाई इस्पात संयंत्र, टाटा, जिंदल सब वहां होते हैं। लेकिन इतना सब कुछ होने पर भी यह मेला बहुत से मामलों में खटकता रहा। अगर इन पर ध्यान दिया जाएगा तो आगे इसका भविष्य अच्छा होगा। वरना इतना सारा इंतजाम हो तो भीड़ तो कहीं भी जुट जाती है। राज्योत्सव के सरकारी आयोजनों को सरकारी आयोजन के घिसे पिटे अर्थ से बाहर आना चाहिए। सरकारी आयोजन का मतलब होता है चूंकि ऊपर से आदेश आया है इसलिए कुछ झांकी बनाकर पेश करनी है। राज्योत्सव के इतने बरस में देखा जा चुका है कि बहुत से वही वही चेहरे नजर आते हैं। और कुछ व्यक्तियों को आयोजन से बड़ा महत्व मिला होता है। सरकारी लोग आम लोगों से दूरी बनाकर रखते हैं। वे अलग दरवाजों से अंदर जाते हैं, अलग जगह गाड़ी खड़ी करते हैं, स्टाल पर सोफे लगाकर बैठते हैं। थके हारे बच्चे बूढ़े भले दो मिनट सुस्ताने के लिए जगह ढूंढते रहें। सोफे पर बैठ गए तो सवाल खड़ा हो जाता है- आप कौन हैं, क्या काम है आपको? ेमेले में खर्च अधिक होता है, उपयोगिता कम होती है। मेले में ज्यादातर स्टाल विभाग के कामकाज के बारे में अच्छी तरह जानकारी नहीं दे सके। कुछ में मुर्दा और बेहूदा किस्म के पुतले बनाकर रखे गए थे और लोग उन्हें देखकर हंस रहे थे। टीका टिप्पणियां कर रहे थे। सरकारी विभाग के लोग बेपरवाही में, मजबूरी में स्टाल पर या आसपास खड़े नजर आए। कहीं कहीं तो कोई कुछ बताने वाला नहीं था। बहुत से स्टालों में बहुत से उत्साही लोग थे जो कुछ बताने को उत्सुक थे, निजी क्षेत्र के स्टालों में भी ऐसे लोग थे और सरकारी क्षेत्रों में भी, लेकिन सारे लोग ऐसे नहीं थे। स्टालों पर जितना खर्च दिख रहा था, उनकी उपयोगिता उतनी ही कम थी। इतनी भीड़ थी कि कहीं खड़े रहकर कुछ पूछना मुश्किल हो रहा था। बहुत से स्टालों में नेताओं के फोटो लगे थे मानो उनका मंदिर बना दिया गया हो। और वही घिसा पिटा, कठिन हिंदी में सरकारी प्रचार। प्रदेश की संभावनाओं, उन संभावनाओं को सच करने की दिशा में हो रहे प्रयासों, चुनौतियों और कमियों का मौलिक सोच के साथ, संपूर्णता में प्रदर्शन बहुत कम दिखा। उत्सव के दौरान कुछ राजेनेता और उनके करीबी लोग बार बार मंच पर आते रहे। मंच पर आने के बहाने खोजते रहे। कभी कभी तो लगा कि इनके लिए उत्सव हो रहा है। यह सस्तापन खत्म होना चाहिए। मंच पर जिसका काम हो उसे ही रहना चाहिए। और कलाकारों से लेकर उद्घोषक तक, नए ढंूढने चाहिए। हर बार नए नए लोगों को मौका मिलना चाहिए। प्रदेश में प्रतिभावान, सक्षम लोगों की कमी नहीं है। मगर खुद को और अपने दरबारियों को खुश करने वाले लोगों को इससे क्या मतलब। प्रदेश के संस्कृति कर्मियों को मिलकर इस विषय पर गंभीर सोच विचार करना चाहिए कि राज्योत्सव के मंच पर किन लोगों को स्थान दिया जाना चाहिए, उनका स्तर क्या है, उन्हें पहले कितने अवसर मिल चुके हैं, क्या लोकतंत्र नाम की कोई चीज है कि नहीं या वह कुछ पैसे वालों की जेब में डाल दिया गया है? हालांकि जो लोग सत्ता की मलाई खाने के लिए खुद लाइन में लगे हुए हैं, ऐसे लोगों को हटा दिया जाए तो विचार करने के लिए बहुत कम लोग बचेंगे। राज्याश्रय का मोहताज मीडिया भी इस तरह के मुद्दों को छूता नहीं। वैसे अच्छा ही है। मीडिया पर हावी कुछ पैसे वाले बददिमाग लोग फिर जज बनकर संस्कृति के बारे में फैसले देने लगेंगे। राज्योत्सव में गंदगी देखकर मन खराब होता है। इतने कागज पड़े होते हैं, इतनी जूठन पड़ी होती है, कोई रोकने-टोकने वाला नहीं, कोई उठाकर साफ कर देने वाला नहीं। सब अपने अपने कपड़ों की फिक्र कर रहे हैं। मंत्रियों को तो खैर स्पेशल रास्ते से आना है, कार से उतरना है और मंच पर बैठ जाना है। उन्हें गंदगी से क्या लेना देना। मरे जनता गंदगी में। खाने पीने के स्टाल के बारे में कहना होगा कि छत्तीसगढ़ का राज्योत्सव है तो छत्तीसगढ़ को प्रमोट करने का एक अच्छा मौका है। एक स्टाल छत्तीसगढ़ी व्यंजन का लगाकर यह काम पूरा नहीं होता। चाट पकौड़ी और आइसक्रीम के स्टालों की भरमार के बीच कहीं तो लगना चाहिए कि छत्तीसगढ़ का उत्सव है। छत्तीसगढ़ में हजारों किस्म का धान होता है। यहां के कुछ इलाकों का दुबराज मशहूर रहा है। क्यों नहीं छत्तीसगढ़ की इस समृद्धि को इतनी ही जगह दी जाती जितनी फूहड़ और बेजान सरकारी विभागों को दी गई? जिनमें बिकने वाला सामान इतने घटिया ढंग से पेश किया गया मानो यह छत्तीसगढ़ की मूर्खता को प्रदर्शित करने की नीयत से किया जा रहा हो। बाजार में बिकने वाले चिप्स की पैकिंग की तुलना में घरेलू उद्योगों के प्रोडक्ट को देखकर रोना आ रहा था। ऐसा नहीं कि छत्तीसगढ़ ऐसा है। दरअसल सरकारी तंत्र ऐसा है।

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