Thursday, December 17, 2009
सुब्रत बसु को याद करते हुए
रायपुर के पुराने रंगकर्मी सुब्रत बोस से एक बार मिलना हुआ था। वे मर्डर जैसी चर्चित फिल्मों के निर्देशक अनुराग बसु के पिता हैं। उनका पूरा परिवार एक्टिंग से लेकर फिल्म बनाने तक के कामों में जुटा हुआ है। अनुराग आज मुंबई के सबसे व्यस्त निर्देशकों में से हैं। बड़े बड़े फिल्मकार उनसे अपनी फिल्में बनवाना चाहते हैं। सुब्रत से चर्चा के दौरान मुझे अपनी बरसों पुरानी एक धारणा के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत महसूस हुई। हमने उनसे सवाल किया था कि छत्तीसगढ़ी लोककला बहुत ज्यादा सामने नहीं आ पाई है। इसकी क्या वजह है और इसे सामने लाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? हमने यह भी पूछा था कि क्या नाचा को अधिक महत्व देकर ऐसा किया जा सकता है? जवाब में सुब्रत ने कहा कि जो लोग छत्तीसगढ़ की संस्कृति को सामने ला सकते थे उन्होंने सबसे बड़ा नुकसान किया। उन्होंने छत्तीसगढ़ी संस्कृति के नाम पर अपने को प्रोजेक्ट किया। यहां के कवियों ने, संगीतकारों ने यही किया। सुब्रत किसी से दुश्मनी नहीं मोल लेना चाहते थे लेकिन फिर उन्होंने दिल की बात कह ही डाली कि दाऊ रामचंद्र देशमुख के चंदैनी गोंदा समेत, छत्तीसगढ़ी के सांस्कृतिक मंचों में जो गीत संगीत पेश किया जाता था, उस पर गीत-संगीतकारों के अपने अपने दावे होते थे कि ये मोर गीत हे, ये मोर संगीत हे। इसे आप कैसे लोकसंगीत कहेंगे? असली लोकसंगीत को तो उसके पवित्र रूप में कभी आगे ही नहीं आने दिया गया। दाऊ रामचंद्र देशमुख के घर मैं बचपन में एक-दो बार गया हूं। वे वैद्य भी थे और पिताजी को उनसे कंधे की तकलीफ की दवा लेनी थी। उनके घर पर नाच-गाना होते भी मैंने देखा। उनका चंदैनी गोंदा मैंने अपनी आंखों से कभी नहीं देखा, सिर्फ उसकी रिकार्डिंग सुनी। और उसके बारे में उससे जुड़े लोगों ं के संस्मरण मैं लगातार सुनता रहा। और इनके आधार पर मेरी देशमुखजी के बारे में जो धारणा बनी उसमें सम्मान ही सम्मान था। और वह अपनी तरह का एक गरिमामय, अधिक प्रामाणिक छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मंच था यह धारणा मेरी अभी भी है। लेकिन मोर गीत, मोर संगीत वाली बात मुझे जमी है। तब शायद लोक गीत-संगीत का तत्व भी इतना रहा होगा, इससे जुड़े लोग इतने गंभीर रहे होंगे कि तोर-मोर वाली बात को उतना महत्व नहीं मिला होगा। आज यह बात अधिक स्पष्टï होकर दिखती है। और इस तोर मोर में मुंबई से आयातित मसाला मिला कर तल-भूनकर बाजार में पेश किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक परिदृश्य के इस हिस्से को देखें तो वह शराबखाने के बाहर लगी अंडा दूकान जैसा लगता है।
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