Wednesday, December 16, 2009

अगले बरस तू जल्दी आ

उस रोज मैं बहुत तनाव में था। घर से नाराज होकर निकला था। शरीर कुछ भारी भारी लग रहा था। शहर में ऐसा कोई दोस्त नहीं जिसके पास जाकर बतिया लिया जाए और मन हो तो घूम लिया जाए। फिर भी ऐसा एक दोस्त ढूंढ़ निकाला। उसे लेकर महादेव घाट पहुंचा। नौकरी और गृहस्थी के जंजाल में गणेशजी की एक झलक भी नहीं पा सका था। आज एक नजर देख लेना चाहता था। घाट के करीब हम दोनों दो घंटे एक जगह खड़े रहे। संयोग से मेरा दोस्त भी मेरी तरह सोचने वाला था। हम लोग ऐसी ही मुफ्त की चीजों में आनंद लेते थे। हम लोगों की विचारधारा है कि दौलत और उससे खरीदी जा सकने वाली चीजों की तरफ भागना ठीक नहीं है। मेरी तरह उसकी जेब में भी पैसे नहीं रहते। वह भी अपने घर का नालायक लड़का है। घाट पर मेला लगा था। न जाने कहां कहां से लोग चले आ रहे थे। ट्रालियों पर गणेश की प्रतिमाएं लेकर नाचते गाते लड़कों की टोलियां थीं। उनमें जवान भी थे और बच्चे भी। सिनेमा के गानों पर झूमते हुए। उन्हें मतलब नहीं था कि गानों का गणेशजी से कोई संबंध है कि नहीं। और लगता था कि इस बात से किसी को कोई मतलब नहीं था। कुछ टोलियां गणेश विसर्जित कर लौट रही थीं। जो लोग नदी में उतरे थे वे भीगे हुए कपड़े पहने हुए थे और उन्हें उतारना नहीं चाहते थे। घाट पर भीड़ बढ़ती जा रही थी। सिर पर गणेश की प्रतिमाएं लिए टोलियां आ रही थीं। कुछ बड़ी मूर्तियों को पांच सात लोग मिलकर ला रहे थे। किसी कोने में एक नवविवाहित जोड़ा बड़ी देर से गणेश की पूजा कर रहा था। कुछ संपन्न घरों के लोग अपनी चारपहिया गाडिय़ों से परिवार सहित आए। एक ही घाट पर सबको देखकर बहुत अच्छा लग रहा था। बच्चों का उत्साह तो देखते बनता था। कुछ टोलियां तो बच्चों की ही थीं। पता नहीं कितनी दूर से ठेलों पर प्रतिमाएं लेकर चले आ रहे थे। नंगे पांव। कुछ ने अपनी कमीजें भी उतार रखी थीं। यानी नदी में उतरने की तैयारी थी। आसपास रहने वाले बच्चों के लिए यह त्योहार रोजी रोटी लेकर आया था। वे पैसे लेकर छोटी मूर्तियों को विसर्जित कर रहे थे। कुछ बालक विसर्जित मूर्तियों के लकडिय़ों के ढांचे इक_ïा कर रहे थे। बड़ी मूर्तियां पुल पर खड़ी क्रेन की मदद से नदी में उतारी जा रही थीं। नीचे एक प्लेटफार्म पर खड़े गोताखोर उनकी जंजीरें खोलते और उन्हें विसर्जित कर देते। एक कोने में खड़े कुछ प्रेस फोटोग्राफर तस्वीरें ले रहे थे। वे पानी में उतरने को तैयार नहीं थे। उन्हें कोई पूछ भी नहीं रहा था। लोग यहां फोटो खिंचवाने नहीं आए थे। मेरा तनाव गायब हो चुका था। लगा कि अपने परिवार में लौट आया हूं। हम लोगों ने मांग मांग कर प्रसाद खाया। लोग बांटकर खुश हो रहे थे। वैसे आजकल बांटने वाले को पागल समझा जाता है। बटोरने वाले को होशियार। मैं एक और चीज देख रहा था। जिन्हें हम विपन्न कहते हैं उनके बलिष्ठï शरीर। कमीज उतार कर घूम रहे कुछ नौजवानों के बदन तो ऐसे थे मानो किसी कलाकार के तराशे हुए हों। दूसरी तरफ मैं था। मेरी कमीज के भीतर एक बीमार शरीर था। संभवत: डायबिटीज का शिकार। एक और बात मुझे रास्ते भर कचोटती रही। मैं क्यों इन बच्चों की तरह नाच नहीं सकता। चालबाजियों से भरी दुनिया से अलग यह एक खूबसूरत दुनिया थी जिसमें लोगों के दिल में उत्साह था, हाथ प्रणाम करने के लिए जुड़ रहे थे, सर श्रद्धा से झुक रहे थे, कदम एक तीर्थ यात्रा में शामिल थे। कोई किसी को डांट नहीं रहा था, किसी की टांग नहीं खींच रहा था, किसी की शिकायत नहीं कर रहा था। जिधर देखो उधर जयजयकार हो रही थी। मेरा मन नहीं कर रहा था कि इस दुनिया से लौटूं। लौटते वक्त मेरा भी मन कह रहा था- अगले बरस तू जल्दी आ।

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