तस्लीमा नसरीन मेरे शहर में आई और लौट गई। उसके आने की खबर कई दिन पहले से थी। मन में उत्सुकता तो थी कि देखें करीब से कि वह किस मिट्टïी की बनी है, बोलती कैसा है, क्या बोलती है और आखिर वह है क्या चीज जिसकी वजह से सारी दुनिया के कट्टïरपंथियों ने उसके खिलाफ फतवे दे रखे हैं। कोई उसके मुंह पर कालिख पोतने वाले को इनाम देने के लिए तैयार खड़ा हुआ है तो कोई उसे मुर्दा देखना चाहता है। मैंने तस्लीमा को करीब से देखा। वह आसमान से उतरी कोई देवी नहीं थी। उसमें कोई सुरखाब के पर नहीं लगे हुए थे। उसके हाथों में जादू की छड़ी नहीं थी। लेकिन वह दुनिया भर में जुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद कर रही है। मुझे अपने आप पर बड़ी शर्म आई। हम लोग एकदम नाकारा लोगों की तरह जी रहे हैं। दफ्तर में बॉस की, सड़क पर पुलिसवाले की और जहां तहां जिसकी तिसकी झिड़कियां और डांट सुनते हैं और चुप रह जाते हैं। जुल्म करने वाले के खिलाफ उंगलियां उठती नहीं और अपने ही भाइयों की टांग खींचते रहते हैं। तस्लीमा को देखकर मैंने सोचा- हमें भी लडऩा चाहिए। जब यह बेचारी लड़ सकती है तो हम मुस्टंडे क्यों नहीं लड़ सकते। मुझे मालूम था तस्लीमा के जाने के बाद फिर मैं अपनी पर लौट आऊंगा। मैंने देखा-वह भी हम लोगों की तरह हाड़ मांस की पुतली है। एकदम आम इंसानों की तरह जो स्टेशन पर लेने आए लोगों को देखकर चहक उठती है। दुनिया भर में मशहूर लेखिका को इस तरह रायपुर के रेलवे स्टेशन पर देखना एक ऐतिहासिक अनुभव था। तस्लीमा मेरे शहर में दो तीन दिन रही। उसने यहां कविताएं भी पढ़ीं और अपना वक्तव्य भी पढ़ा। इंटरव्यू भी दिए। लेकिन उनसे पूछे जाने वाले सवालों में कुछ भी नया नहीं था।उससे इस तरह के सवाल हजार बार किए जा चुके होंगे। तस्लीमा के बारे में चर्चा करने वाले बहुत से लोगों ने मुझसे बताया कि उन्होंने तस्लीमा की कोई किताब नहीं पढ़ी है। इनमें से कई ऐसे थे जो ज्यादातर समय इस बात में खपा रहे थे कि वह कैसी दिखती है और उसके कितने लोगों से ताल्लुकात हैं। तस्लीमा से मिलने के लिए इस शहर की वे औरतें नहीं आईं जो फुर्सत मिलने पर काव्य गोष्ठिïयां और अपने सुभीते से आंदोलन करती हैं। बुक स्टालों पर कभी कभार दिख जाने वाले चेहरों में से भी अधिकतर ऐसे थे जो किसी न किसी काम में मसरूफ थे। मेरे एक दोस्त ने बताया कि उसने तस्लीमा को किताब मेले मे ंलगभग अकेले खड़े देखा। बहुत कम लोग उसके आसपास थे। जो थे उनमें से कम ही ऐसे थे जो तस्लीमा के वहां होने के कारण आए थे। तस्लीमा की किताबें भी स्टाल पर थीं। उसके रहते उसकी किताबें बिकीं लेकिन उसके जाते ही वहां सन्नाटा छा गया। मैंने राजेश जोशी की एक कविता कभी पढ़ी थी। इसमें वसंत शहर में आता है। उसे कोई पहचानता नहीं। कोई ऐसा पेड़ उसे नहीं दिखता जिसे वह हरा भरा कर दे। उदास और थका हुआ सा वहां से वसंत लौट जाता है। तस्लीमा भी ठीक उसी तरह मेरे शहर में आई और लौट गई।
तस्लीमा को यह देखकर दुख हुआ होगा कि उससे पूछने के लिए यहां सवाल भी नहीं हैं। प्लेटफार्म पर स्वागत के बाद उसे मीडिया ने घेर लिया। एक लंबा सा सवाल उससे किया गया जो इतना लंबा था कि उसका अनुवाद करने वाले को उसका सार निकालकर तस्लीमा को बताना पड़ा। तस्लीमा ने कुछ देर तक सोचा और जवाब दिया कि इतने गंभीर सवाल पर प्लेटफार्म पर चर्चा शायद नहीं हो पाएगी। इस पर बाद में चर्चा करेंगे। दूसरा सवाल था- आप रायपुर के बारे में कुछ बोल दीजिए। जवाब मिला- अभी तो आए हैं। पहले देख लें फिर बोलेंगे। वह कुछ आगे बढ़ी तो कुछ और पत्रकार उसके साथ हो लिए। उससे उसकी आत्मकथा को लेकर उठे विवाद के बारे में पूछा गया। वह हजार बार इस सवाल के जवाब दे चुकी होगी। उसकी भलमनसाहत कि उसने एक बार और इसे दोहरा दिया। अगला सवाल कट्टïरपंथियों के बारे में था। इसका जवाब वही था जो कट्टïरपंथ से पंगा लेने वाला कोई भी आदमी या कोई भी औरत दे सकती थी। तस्लीमा को शहर में सबसे ज्यादा सवालों की कमी खली होगी।
(तसलीमा नसरीन के रायपुर प्रवास की एक याद)
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1 comment:
गुड वन. लास्ट लाइन तो बहुत ही सही थी. ये मूरख कहाँ से पत्रकार बन जाते हैं समझ में नहीं आता. एक बार एक ने अमिताभ से पूछा आपकी स्फूर्ति का राज क्या है, अमिताभ ने कहा मैं शहद खाता hoon, उस पागल ने पूछा कैसे खाते हैं, अमिताभ हैरान- कहा- या तो ऊँगली से या चमच्च से. .. .. ये बिलकुल आंकिन देखि घटना है. बताइए ये साले पत्रकार हैं
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