Thursday, December 17, 2009
दिल की बात
मेरा एक दो रोज पहले रायपुर के सप्रे स्कूल मैदान पर जाना हुआ। खेल के मैदान पर समय गुजार कर मैं दफ्तर के काम की थकान उतार लेना चाहता था। मेरी किसी से जान पहचान नहीं थी। सो देखने के अलावा कोई चारा नहीं था। स्कूली लड़कों के, लड़कियों के दल अलग अलग फुटबॉल का अभ्यास कर रहे थे। मैं किसी जमाने में फुटबॉल का शौकीन रहा हूं। और मोहल्ले में खेलता रहा हूं। मुझे देखकर दुख हुआ कि मिडिल स्कूल की पांच छह बच्चियां बगैर किसी मार्गदर्शन के फुटबॉल का अभ्यास कर रही थीं। मैं एक दिन के अनुभव के आधार पर कुछ नहीं कहना चाहता। बच्चियों को खेल की कुछ तकनीकी जानकारियों से वाकिफ देखकर लगा कि इन्हें सिखाया तो जरूर गया है। लेकिन बगैर कोच या किसी जानकार की मौजूदगी के, उनके अभ्यास को देखकर मुझे लगा कि उनकी ताकत व्यर्थ अधिक हो रही है। वे सीख कम रही हैं। मैं नहीं जानता कि इन लड़कियों को सिखाने के लिए कोई कोच होता तो वह भी वे बारीकियां इन बच्चियों को सिखाता कि नहीं जिनके बारे में मैं सोच रहा था। मैंने बहुत मौकों पर शहर में बच्चों को, और बड़ों को भी फुटबॉल खेलते देखा है। मैच खेलते भी देखा है और अभ्यास करते भी देखा है। मुझे फुटबॉल का असली आनंद कभी नहीं आया। मुझे लगता है कि ज्यादातर लोग फुटबॉल के आनंद को जानते ही नहीं। और फुटबॉल खेलने के बारे में उनके पास कोई मौलिक विचार नहीं है। फुटबॉल खेलते बच्चों में मुझे सबसे बड़ी कमजोरी नजर आई, जो बड़ों में भी उतनी ही नजर आई, कि फुटबॉल उनके लिए खेल न होकर युद्ध हो जाता है या फिर भगदड़। किसी को देखकर यह नहीं लगता कि उसे फुटबॉल खेलने में मजा आ रहा हो और वह फुटबॉल पर इतना अधिकार रखता हो कि दूसरों को नचा कर खुद का भी और दर्शकों का भी मनोरंजन कर सके। फुटबॉल के साथ जो आनंद न मना सके, वह फुटबॉल क्या खेलेगा? फुटबॉल खेलने वालों में मुझे दूसरी सबसे बड़ी कमजोरी यह नजर आई कि कोई अपनी लय से खेलता नजर नहीं आता। कोई टीम एक लय से खेलते नजर नहीं आती। और कुल मिलाकर खेल की कोई लय नहीं बन पाती। खिलाड़ी बदहवास होकर गेंद के पीछे भागते हैं और गेंद कभी उनके नियंत्रण में नहीं रहती। वे लड़ते ऐसे हैं जैसे पशु लड़ते हैं और गेंद अक्सर साइड लाइन या गोल लाइन के बाहर जाती रहती है। पास, ड्रिबल, डॉज और मूव के साथ खेलते मुझे शायद ही कोई टीम दिखी। हालांकि मैं दावा नहीं करता कि रायपुर में खेलने वाली सारी टीमों का खेल मैंने देख लिया है। लेकिन बीस पचीस टीमों का खेल तो देखा ही होगा। मुझे लगता है कि अपनी क्षमता के हिसाब से अपने को विकसित करना कोई कोच किसी खिलाड़ी को नहीं सिखाता। जैसे कम बुद्धि महिलाएं पड़ोसन को देखकर अपना जीवन तय करती हैं वैसे ही ज्यादातर फुटबॉलर विपक्षी के हिसाब से अपना खेल तय करते हैं। जब विपक्षी से मुकाबला है तब तो विपक्षी के हिसाब से कुछ चीजें तय करनी ही होंगी लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि आपके पास कोई लय, कोई तालमेल, कोई रणनीति ही न रहे। भई विपक्षी को आपके हिसाब से रणनीति तय करने दें.सप्रे स्कूल मैदान पर बालिकाओं को मैंने खेलते देखा। वे दूर से किक मार रही थीं और उनकी किक में कोई दम नहीं था। मैं होता तो सिखाता कि पहले अपनी क्षमता के हिसाब से, कम दूरी से किक मारो और लक्ष्य पर मारने की कोशिश करो। इसका अभ्यास करते करते ताकत भी आती जाएगी और निशाना भी सही बनेगा। दूर से किक मार रही लड़कियों का जी उचट रहा था, गेंद इधर उधर जा रही थी, उसे लाने में ही लड़कियों की बहुत सी ताकत खत्म हुई जा रही थी। मुझे नहीं लग रहा था कि इन लड़कियों को किसी ने स्टेमिना, डाइट जैसी चीजों के बारे में बताया है। ये चीजें कोई भी सीनियर खिलाड़ी बता सकता है जो खेल के प्रति गंभीर हो और जिसने ये सब चीजें सीखी हों। मुझे पता नहीं शहर के कितने खिलाड़ी अपने से ज्यादा जानने वालों से जाकर मार्गदर्शन लेते हैं और कितने सिर्फ टूर्नामेंंट में खेलते हैं। पता नहीं कितने खिलाड़ी और कोच, मैदान को साफ सुथरा रखने के बारे में भी सोचते होंगे। मैदान से गिट्टी, पत्थर हटाना, कांच के टुकड़े बीनकर फेंकना, झाडिय़ां साफ करना, पानी छिड़कना-ऐसे बहुत से काम हैं जो खिलाडिय़ों और प्रशिक्षकों को करना चाहिए। अगर खिलाडिय़ों से उम्मीद नहीं की जाएगी कि वे मैदान से प्यार करें, तो फिर किससे उम्मीद की जाएगी?
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