Wednesday, December 16, 2009

एक दोस्त से मुलाकात

उस रोज सुबह मैं घूमने निकला तो एक दोस्त मिल गया। उससे बड़ी देर तक बातें हुईं। वह जल्दी में नजर आ रहा था लेकिन बातें खत्म नहीं हो रही थीं। उसने करीब दस बार मुझसे हाथ मिलाया और दस बार कहा-अच्छा चलते हैं। लेकिन हर बार, वह फिर रुक जाता था। पिछले पंद्रह दिनों से मैं काम छोड़कर बैठा हूं। दोस्त मुझे अपने प्रेस में काम करने की सलाह और आमंत्रण दे रहा था। उसने अपने प्रेस के बारे में बहुत सारी बातें बता डालीं। सारी दुनिया में, वह उन कुछ लोगों में से था जिन्होंने मुझसे इस दौरान बात की, हिम्मत दी, सलाह दी, रास्ते सुझाए और मदद की पेशकश की। आज मैं उसके बारे में एक लंबा किस्सा लिख सकता हूं। मेरा वह दोस्त एक उग्र हिंदूवादी संगठन का सदस्य है। लेकिन मेरे लिए दोस्त है। उसने आज संपादक पर कुर्सी फेंकने और एक सहकर्मी से मारपीट करने का किस्सा भी सुनाया। मैंने उससे कहा-तुमसे मिलने तुम्हारे प्रेस आऊंगा लेकिन मुझ पर कुर्सी मत फेंकना। उसने कहा- कुर्सी मैं संपादकों पर फेंकता हूं, तुम पर नहीं फेंकूंगा। दोस्त ने अपने एक और सहकर्मी के बारे में बताया। वह भी ऐसे ही संगठन का सदस्य है और मारपीट करता है। दोस्त से इस मुलाकात ने मुझे रिश्तों की अहमियत के बारे में लिखने की प्रेरणा दी है। उसने बताया कि कुछ साल पहले वह मुझसे इसी हालत में मिला था। नौकरी तलाश रहा था। वह ऐसे किसी प्रेस में जाने की सोच रहा था जिसमें मैं पहले काम कर चुका था और वहां के लोगों को बहुत अच्छी तरह जानता था। मैंने उसे उस प्रेस के बारे में बहुत उपयोगी जानकारी दी, उसकी हिम्मत बंधी और उसने उसी दिन जाकर प्रेस के जिम्मेदार लोगों से बात की और उसे नौकरी मिल गई। मुझे यह बात याद नहीं थी। दोस्त ने न सिर्फ बात याद दिलाई बल्कि उसका बदला भी दिया। मैं उसके प्रेस में नौकरी मांगने जाऊं न जाऊं यह अलग बात है। दोस्त से मुलाकात ने मुझे पिता की अहमियत के बारे में भी लिखने का मौका दिया है। पंद्रह दिन पहले दोस्त के पिता का देहांत हो गया। उनके कार्यक्रम के बाद वह आज पहली बार घर से बाहर टहलने निकला था। पिता को याद कर वह भावुक हो रहा था और उनकी कमी महसूस कर रहा था। संपादक पर कुर्सी फेंकने वाले को इस कदर भावुक होते देखना अच्छा नहीं लगा। मैंने उसे समझाया कि यह तो रिले रेस है। पिता ने बहुत सी जिम्मेदारियां तुम्हें दी हैं। उन्हें आगे बढ़ाना तुम्हारा काम है। आज सुबह की सैर ने मुझे लिखने का एक और विषय दिया है। मैंने जगह जगह इडली के ठेले देखे। गर्मागर्म इडलियां बन रही थीं। लोग भीड़ लगाए खड़े थे। मेरे मन में लंबे समय से यह बात है कि छत्तीसगढ़ में जगह जगह साहू ढाबा या इडली सेंटर मिल जाएंगे। छत्तीसगढ़ी खान पान के ठेले और होटल क्यों नहीं मिलते? अंतरराष्टï्रीय स्तर पर खान पान का अनुमान लगा पाना मेरे बस का नहीं है लेकिन छत्तीसगढ़ी भोजन में वह स्वाद है जो कम से कम राष्टï्रीय स्तर पर उसे एक पहचान दिला सकता है। वह देश के सभी प्रदेशों में खान पान का एक जरूरी हिस्सा बन सकता है। घूमने के लिए जगन्नाथ पुरी जाने वाले लौटकर बताते हैं कि ढंग का दाल भात खाने के लिए तरस गए। पड़ोस के उड़ीसा में यह हाल है। दक्षिण भारत की एक यात्रा के दौरान भी छत्तीसगढ़ का भात दाल साग याद आता रहा। रायपुर में अगर साउथ इंडियन डिश की तरह अंगाकर, चीला और फरा के स्टाल खुल जाएं तो खूब चलेंगे। सरकार से अगर यह उम्मीद की जाए कि वह छत्तीसगढ़ी खाने को प्रमोट करे तो प्रमोट करने वाले पैसा खा जाएंगे, सत्ता के आसपास दलालों की भीड़ के बारे में जो चर्चा सुनने में आती है उसके आधार पर तो यही अनुमान लगाया जा सकता है। राज्योत्सव में छत्तीसगढ़ी व्यंजनों का स्टाल इतना छोटा होता है मानो वह हजारों किलोमीटर दूर किसी मेहमान राज्य का स्टाल हो जिससे कोई फायदा नहीं होना हो। राज्योत्सव में तो केवल भात दाल सब्जी का एक महा स्टाल होना चाहिए जिसमें तरह तरह के चावल और तरह तरह की सब्जियां होनी चाहिए। छत्तीसगढ़ी स्टाइल की। मारवाड़ी, गुजराती और पंजाबी खाने के भी बड़े बड़े स्टाल रहें। लेकिन वे वहां के पारंपरिक भोजन के स्टाल होने चाहिए। राज्योत्सव में खाने पीने के स्टाल खाने का मजा कम देते हैं, बेवकूफ बनाने की दूकान ज्यादा लगते हैं। शहर पर बाजार हावी है। वह किस कदर शातिर और आक्रामक हो रहा है यह गाहे ब गाहे महसूस होता रहता है। शहर में कुछ अरसा पहले महाराष्टï्र का एक महानाट्य आया था। दर्शकों में हम पति पत्नी भी थे। दोनों खाने पीने के शौकीन। वहां खाने की एक ही चीज मिल रही थी-पॉपकॉर्न। कुछ लोग बक्सों में भर भर कर इन्हें बेच रहे थे। एक बक्सेवाले को हमने भी बुलाया लेकिन इतना महंगा पॉपकॉर्न लेने का दिल नहीं हुआ। पॉपकॉर्न खाने के बाद लोगों को जमकर प्यास लगी। थोड़ी देर बाद पॉपकॉर्न बेचने वाले लोग ही पानी की बोतलें और कोल्ड ड्रिंक लेकर आ गए। वह भी खूब बिका। समझदार पत्नी ने घर से चलते वक्त पानी की एक बोतल बैग में रख ली थी। उसे थोड़ा थोड़ा पीते हुए हमने नाटक देखा। सुना है शहर के एक मॉल में एक थिएटर है। वहां खाने पीने का कुछ भी ले जाना मना है। जो खाना पीना है, वहीं से खरीदकर खाओ-पिओ। सब कुछ महंगा महंगा। मैंने कहीं बिहार के एक ढाबे के बारे में पढ़ा था कि वहां हर गाड़ी वाले को रुककर पैसा देना पड़ता है। खाओ या न खाओ, आपकी मर्जी। कितने नौसिखिए हैं वे लोग जो आंखों में मिर्च झोंककर लोगों को लूटते हैं। राजधानियों में बगैर नीबू मिर्च के यह काम रात दिन होता है। लोग लुटकर खुश हैं। वे आधुनिक जो बन रहे हैं। राजा को कौन बोले कि वह नंगा है। पैसे वालों को कौन बताए कि मॉल में तुमने जो खाया वह तुम्हें अच्छा नहीं लगा। लोग डरते हैं कि ऐसा कहा तो बेवकूफ माने जाएंगे। मॉडर्न आर्ट जैसी स्थिति है। आर्ट को उल्टा टांग दो तो भी कलाप्रेमी वाह वाह करते हुए निकलेंगे। बात कहां से शुरू हुई, कहां पहुंच गई। सुबह की एक छोटी सी सैर ने पिछले पंद्रह दिनों की उदासी और अकेलेपन को धो दिया। हालांकि असली तीर्थयात्रा तो मुझे अब करनी है, नौकरी की तलाश में।

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