Thursday, December 17, 2009

मेरी बेटी, मेरा फख्र

(एक पत्रिका के लिए अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी सबा अंजुम की मां फरीदा बेगम से एक मुलाकात मौका लगा था। उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी)
चौथी पढ़ती थी सबा। हमेशा बोलती थी- मैं भी हॉकी खेलने जाऊंगी। तनवीर सर के पास नाम लिखाऊंगी। मोहल्ले के सारे बच्चे खेलने कूदने वाले थे। उनमें से कुछ हॉकी खेलने मैदान भी जाते थे। सबा के भाई भी जाते थे। वह उनके साथ मैदान चली जाती थी। उछल कूद करती रहती थी। लड़कियों के साथ नहीं खेलती थी। लड़कों के साथ खेलती थी। कंचे खेलना उसका शौक था। पतंग भी वह उड़ाती थी और कटी हुई पतंगें लूटती भी थी। हमारे घर में बच्चों को स्कूल न जाने के लिए कभी डांट नहीं पड़ी। खेलने न जाओ तो जरूर डांट पड़ती थी। ऐसे में सबा एक रोज स्कूल से देर से आई। मैंने पूछा तो उसने बताया- तनवीर सर के पास नाम लिखवाने गई थी। तनवीर सर हमारे घर के पास ही रहते हैं। वे बच्चों को सिखाते थे। सबा ने उनकी देखरेख में हॉकी खेलना शुरू किया। मैं तो समझती नहीं खेल के बारे में। सबा बताती है कि खेल में वह आज जो कुछ है, तनवीर सर की बदौलत है। तनवीर सर भी उसे बेटी जैसा प्यार करते हैं। एक कोच के लिए सारे खिलाड़ी बराबर होते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि उन्होंने मेरी बेटी पर ज्यादा ध्यान दिया। शायद उन्हें लगा हो कि यह लड़की आगे तक जा सकती है। हमारे लिए वे दिन बहुत गरीबी के थे। बच्चों के अब्बा मस्जिद में मुअज्जन थे। आठ सौ रुपया महीना पगार मिलती थी। घर के खर्चे चलाने के लिए मैं छोटे छोटे काम करती थी। नगर निगम में किसी का काम है तो मैं कुछ पैसे लेकर वह काम करवा आती थी। किसी के लिए कथरी सी देती थी। घर में पिपरमेंट-बिस्कुट की दुकान इनके अब्बा ने खोली थी। मैंने खुद बारह साल अंडे बेचे हैं। मगर इस मुफलिसी का अहसास हमने कभी अपने बच्चों को होने नहीं दिया। मैं उनसे कहती थी- तुम्हें क्या चाहिए बोलो। इसकी फिक्र मत करो कि अम्मी कहां से लाएगी। मेरे बच्चों को मुझ पर भरोसा भी बहुत था। इसी दौरान सबा को विदेश जाने का पहला मौका लगा। उसे हांगकांग जाना था। पासपोर्ट के लिए दो हजार रुपयों की जरूरत थी। वह बंैगलोर में थी। उसने मुझे खबर भेजी। और अपनी सहेलियों को बता दिया- मेरी अम्मी रुपयों का इंतजाम कर लेगी। मैंने घर के लिए राशन खरीद कर रखा था। उसे मोहल्ले में बेच दिया। अंडे बेच कर 4 हजार के बर्तन खरीदे थे, वे मैंने 17 सौ में बेच दिए। बड़ी बेटी को विदा करते वक्त इतना नहीं रोई होऊंगी जितना ये बर्तन बेचकर रोई। मोहल्ले वाले समझाते थे- सबा जीत कर लौटेगी, फिर बर्तनों की दुकान खोल लेना। बहरहाल, रुपयों का इंतजाम मैंने कर लिया। सबा को ये रुपए पहुंचाने उसका भाई भोपाल से आया और बैंगलोर तक गया। सबा की कोच को पता चला तो उसने मुझसे फोन पर कहा- आप बहुत अच्छी मम्मी हैं। सबा बहुत भरोसे से कहती थी कि मेरी मम्मी रुपयों का इंतजाम कर देंगी। गरीबी के उन दिनों में हम लोग उस खुराक का इंतजाम नहीं कर पाते थे जो एक खिलाड़ी के लिए जरूरी होती है। खेलकर आने के बाद सबा को खूब भूख लगती थी। मैं उसके लिए काली चाय बना देती थी। दूध तो नसीब नहीं था। कभी कभी शक्कर भी नहीं होती थी। सबा काली चाय के साथ रात का चावल खा लेती थी। यह खाना उसे आज भी पसंद है। आज भी कभी कभी मूड होने पर वह चाय चावल की फरमाइश करती है। सबा को लल्ला होटल की पोहा-जलेबी भी पसंद थी। यह होटल कसारीडीह में है। हमारे उन लोगों से घर जैसे संबंध हैं। घर की बुजुर्ग महिला को सबा नानी कहती थी। मुझसे दो रुपए लेती थी और होटल से एक रुपए का पोहा और एक रुपए की जलेबी ले आती थी। वही उसका नाश्ता होता था। विदेश घूमने के बाद भी वह लल्ला होटल को नहीं भूली। इंग्लैंड से खेलकर लौटी तो एक रोज उसे पोहा जलेबी की याद आई। वह सीधे होटल पहुंच गई। तब तक वह मशहूर हो चुकी थी। उसे देखने के लिए पूरा कसारीडीह इकट्ठा हो गया। नानी की आंखों से आंसू बहने लगे। उसने कहा- तुम बहुत बड़ी हो गई हो। मैंने सोचा था अब कभी हमारे होटल में नहीं आओगी।मेरी दिली तमन्ना थी कि सबा खेलने के लिए विदेश जाए। सबा ने पहली बार विदेश जाने से पहले मुझे फोन किया और कहा- अल्लाह का कितनी बार शुक्रिया अदा करूं कि उसने मेरी अम्मी की दुआ सुन ली। आज भी वह खेलने जाने से पहले मुझे फोन करती है। कहती है- तुमसे बात किए बगैर खेलने में मन नहीं लगता। खेलने के बाद भी बात करती है। कभी कभी थिएटर से फोन करती है कि फिल्म बोर है। अगर उसे पता लगा कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है तो दिन में दस बार फोन करती है। पूछती है दवा खाई कि नहीं। वह अब मुझे कहीं आने जाने नहीं देती। कहती है- बहुत हो गई भागदौड़। अब आराम करो। वह जहां जाती है, मेरे लिए कुछ न कुछ खरीद लाती है। साडिय़ां, पर्स, परफ्यूम। मंै कहती हूं- अब मेरे पहनने ओढऩे के दिन नहीं रहे। वह कहती है- जब दिन थे तब गरीबी थी। अब अल्लाह ने दिया है तो पहनना ओढऩा चाहिए। मैं कहती हूं- लोग क्या कहेंगे? वह कहती है- लोगों की परवाह मत करो। मेरे बच्चों ने दुनिया घूम ली और मैं डोंगरगढ़ के आगे नहीं जा पाई। मेरी नागपुर घूमने की बड़ी तमन्ना है। पोली कहती है कि नागपुर क्या, तुम्हें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, बाम्बे सब घुमाऊंगी। एक बार अपने साथ कोरबा ले गई थी। लॉज में रुकवाया जहां बड़े लोग रुकते हैं। मैंने पहली बार जाना कि लॉज किसे कहते हैं। मेरे पास एक सायकल है। मैंने उसे मुफलिसी के दिनों में चलाया है। वह मुझे बेहद पसंद है। दस कारें भी उसका मुकाबला नहीं कर सकतीं। पोली कहती है कि उसे म्यूजियम में रखवा देंगे। अब घर में एक नई दोपहिया है। एक रोज पोली का फोन आया- अम्मी, गाड़ी भूलकर भी मत चलाना। उसने कहीं कोई एक्सीडेंट देख लिया था। मुझसे बोली- कहीं तुम निबट गए तो मैं अनाथ हो जाऊंगी। वह मुझसे दोस्तों जैसी बात करती है। एक रोज उसने घर में गोभी का पुलाव बनाया। मुझसे पूछा- कैसा बना है। मैंने कहा- अपने हिसाब से अच्छा बना लिया तुमने। उसने कहा- सच सच बताओ, कैसा बना है? क्या कम है? मैंने कहा- नमक कम है और मिर्च कम है। उसने पूछा- और क्या कमी है? मैंने कहा- जले हुए जैसी गंध आ रही है। वह बोली- मैंने इतनी मेहनत से बनाया तुम तारीफ भी नहीं कर सकतीं? मैंने कहा- वही तो कर रही थी, तुमने सच पूछा तो बताना पड़ा। बाद में उसने एक रोज बांबे से फोन किया था- मैंने पुलाव बनाना सीख लिया है। अब जलाती नहीं हूं। उसे चावल का चीला बहुत पसंद है। आलू का पराठा भी। मिर्च मसाले वाली चीजों की भी फरमाइश करती है जो शायद उसे खेल के दौरान नहीं मिलतीं। हम लोग पचीस साल एक ही मकान में रहे। अब हमने एक बड़ा घर खरीद लिया है। सबा की जिद थी। हमारे परिचित का मकान था। उन्होंने पूछा तो सबा ने बताया- यह मकान मेरे अब्बा की तमन्ना और अम्मी की पसंद है। इन्होंने जीवन भर मुझे मेरी पसंद की चीजें दीं। अब मैं इनकी पसंद की चीज देना चाहती हूं। वह हमें इतना चाहती है। अल्लाह ऐसी औलाद हर मां बाप को दे।

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