Friday, January 22, 2010
हम भी तो अपनी बात लिखें अपने हाथ से
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी इन दिनों राजनीति को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश में लगे हैं। हर युवा की तरह देश और दुनिया को लेकर उनके पास साफ सुथरे सपने हैं। हालात में बदलाव लाने के लिए उनमें जरूरी ऊर्जा भी है और उम्र भी उनके साथ है। यह युवाओं के लिए एक अच्छा मौका है कि वे राजनीति में अपनी भूमिका के बारे में सोचें। उसमें बदलाव लाने के लिए अपना योगदान देने के बारे में विचार करें। वह बदलाव जिससे देश और समाज का भला होगा और अंतत: खुद युवाओं को भी रहने के लिए एक बेहतर दुनिया मिलेगी। वह दुनिया जिसमें उनकी प्रतिभा का सम्मान होगा, उनकी विशेषज्ञता का उपयोग होगा और उनके आगे बढऩे के रास्ते आसान होंगे। वंचित युवाओं को मार्गदर्शन मिलेगा, प्रशिक्षण मिलेगा और रोजगार भी। जिसमें आधी दुनिया की भागीदारी सुनिश्चित होगी जो अभी तक उपेक्षित है। जिस भागीदारी से राजनीति ममतामयी होगी, करुणामयी होगी, सुव्यवस्थित होगी। जिसे हम घर जैसा महसूस करेंगे। यह सब बातें करने के लिए राहुल गांधी एक बहाना हैं। ऐसी दुनिया का सपना हर युवा के मन में होता है। लेकिन इनमें से ज्यादातर लोग राजनीति से जुडऩे की बात भी नहीं सोचते। किसी जमाने में एक्टिंग से जुडऩा खराब माना जाता था। महिलाओं का पढऩा लिखना अच्छा नहीं माना जाता था। खेल कूद को भी खराब होने का रास्ता माना जाता था। क्या आज हम इन बातों को स्वीकार कर सकते हैं? इसी तरह राजनीति से जुडऩा भी आज की जरूरत है। इसे न हम अस्वीकार कर सकते हैं न नजरअंदाज। युवा पीढ़ी को यह समझना होगा कि वह लोकतंत्र में रह रही है। यहां हम ही सरकार हैं, हमें ही काम करना है, हमें ही अपनी तकदीर का फैसला करना है। और इसके लिए जाहिर है कि हमें ही जिम्मेदारियां उठानी होंगी। आज राजनीति में ऐसे बहुत से लोग सक्रिय हैं जो किसी विषय के विशेषज्ञ नहीं हैं। वे जिनके पास देश, समाज और दुनिया के लिए कोई सपना नहीं है, सिर्फ अपनी तरक्की की योजनाएं हैं। राजनीति में ऐसे लोगों की बहुतायत का ही नतीजा है कि हमें चलने के लिए खराब सड़कें मिलती हैं, सांस लेने के लिए प्रदूषित हवा। सरकारी दफ्तरों में रिश्वत ली जाती है और गलत लोगों को ठेके मिलते हैं। यह सब चलन इतना हावी है कि हममें से बहुतों को यह पता ही नहीं होता कि अच्छा काम होता क्या है? आज युवाओं की जो फौज राजनीति में सक्रिय है, उसमें से ज्यादातर युवाओं की पहचान किसी स्थापित नेता के पिछलग्गू की है। उनकी ऊर्जा इन नेताओं के पीछे घूमने, शक्ति प्रदर्शन करने और पुतले जलाने में खर्च हो रही है। ऐसे उदाहरण कम हैं कि इन युवाओं ने किसी एक गांव में जनकल्याण की सरकारी योजनाओं को ईमानदारी से लागू करवा कर दिखाया हो। वे खुद सोचें कि उनका जीवन किस तरह बीत रहा है? वे अपनी जिंदगी जी रहे हैं या किसी और की? एक और महत्वपूर्ण बात। अच्छे लोगों की परिभाषा क्या है? हममें से बहुत से लोग यह मानते हुए बड़े होते हैं कि अपने काम से काम रखना, किसी से विवाद न करना अच्छा होना है। इस परिभाषा की आड़ में हम आत्मकेंद्रित हो जाते हैं, अपनी जिम्मेदारियों से मुंह फेर कर निकल जाते हैं। अच्छा आदमी वह होता है जो जरूरतमंदों के काम आता है, अन्याय के खिलाफ खड़े होने का साहस रखता है। और इसके नतीजों का सामना करने का जिसमें धैर्य है। आज राजनीति में बहुत से ऐसे लोग हैं जो भ्रष्ट हैं लेकिन चुनाव जीतते हैं। इसकी वजह यह है कि तथाकथित अच्छे लोगों की तुलना में ये लोग जनता के लिए अधिक उपयोगी भी हैं। लोगों के काम के लिए वे नगर निगम के दफ्तर तक चले जाते हैं, मोहल्ले में सफाई कर्मी बुलवा देते हैं, किसी अस्पताल का बिल कम करवा देते हैं, पुलिस का कोई मामला हो तो वे पीडि़त के साथ खड़े नजर आते हैं। अनजान लोगों को भी वे सड़क से उठा कर अस्पताल पहुंचा देते हैं, जरूरत पडऩे पर खून भी दे देते हैं। जो लोग अपने को अच्छा मानते हैं वे ऐसे कितने काम करते हैं? कितनों के काम आते हैं? कितने लोग हैं जिनका साहस, जिनकी सेवा एनसीसी का सर्टिफिकेट मिलने के बाद भी जारी रहती है? अगर हममें ये गुण नहीं हैं, हम किसी के काम नहीं आते तो अपने को किस लिए सराहते हैं? किसी को बुरा कहकर किसलिए कोसते हैं? राहुल गांधी के बहाने से हमें राजनीति में अपनी भूमिका के बारे में विचार करना चाहिए। यह वक्त की जरूरत है और हमारी भी।
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1 comment:
बिल्कुल सही चिंतन..वास्तव में जिस दिन नागरिक अपनी जिम्मेदारियों को समझना शुरू कर देंगे उस दिन गाली देना छोड़कर देश को ताली बजवाने लायक बना देंगे...सही कहा है किसीने कि गुंडे लोग समाज के लिए उतना खतरनाक नहीं हैं जितने शुतुरमुर्गी उदासीनता ओढ़े तथाकथित अच्छे लोग.पंकज झा.
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