Thursday, February 5, 2009

जगन्नाथ की नगरी से लौटकर

कुछ रोज पहले भगवान जगन्नाथ की नगरी से लौटा हूँ। पहली बार इतनी देर तक समुद्र में नहाया। बीच की रेत पर धूप में सोया भी। अपने भाई के साथ दो तीन दिन घूमने का भी मौका मिला। पत्नी भी साथ थी। बहू भी और भतीजा भी। माँ भी आने वाली थी। उसे डॉक्टर के पास जाना था, इसलिए नही जा सकी। वैसे उसे हम पूरी यात्रा के दौरान याद करते रहे। एक तो यात्रा का कार्यक्रम ही उसके लिए बना था। फिर उडीसा उसकी जन्मभूमि है। हम उडीसा में अपनी ननिहाल जैसी निश्चिन्तता से घूमे।
ऐतिहासिक इमारतो ने मुझे कभी आकर्षित नही किया। इतिहास को हम स्कूलों में तब पढ़ते है जब इतिहास को जानने की जरूरत नही होती। बाद में जब दुनिया बड़ी होती है और अपनी पहचान खोने लगती है, अपने संस्कार अकेले पड़ने लगते है तो घर के बुजुर्गो की तरह हमारा इतिहास हमारे साथ आकर खड़ा हो जाता है और हमें संबल देता है। भौतिक तरक्की के बीच हीन भावना के शिकार मेरे मन को अशोक द्वारा लिखवाए गए संदेशो ने ताकत दी। मुझे यह सोच कर रोमांच हुआ कि ईसा मसीह के इस दुनिया में आने से पहले मेरे ननिहाल में एक राजा ने हथियार छोड़ दिए थे। वह लडाई से उकता गया था। और दुनिया उसे महान कहकर याद करती है। मेरे भाई ने मुझे वो जगह दिखाई जहाँ कलिंग का युद्घ लड़ा गया था। मुझे बस्तर की याद आई। वहां बहुत खून बह चूका है। पता नहीं अशोक हथियार कब डालेंगे।

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