Saturday, January 30, 2010

चार कुंभ में हो राजिम का अनुसरण


(पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने राजिम कुंभ 2010 के औपचारिक उद्घाटन समारोह में एक यादगार संबोधन दिया। इसका एक अंश)


त्रिवेणी के तट पर यह जो कुंभ कल्प आयोजित किया गया है, इसका बहुत महत्व है और इसकी कुछ विशेषता है जो मुझे बहुत प्रमुदित करती है। यहां एक मंच है। अन्यत्र आप जाएंगे, एक मंच नहीं सुलभ होगा। हजारों मंच होंगे, हजारों तरह की परस्पर विपरीत धाराएं सुलभ होंगी। इतना कोलाहल होगा कि एक दूसरे की बात को दबाने का ही प्रयास करेगा। यहां एक मंच है, एक समय एक ही वक्ता बोलते हैं। संत महात्मा हों या राजनीति से संबद्ध महानुभाव हों, परस्पर सद्भाव है। संवाद के कारण एकरूपता है। एक मंच और सभी वक्ताओं का मंतव्य भी एक। वेदादि शास्त्रों के अनुरूप पूरे विश्व का उत्कर्ष देखने की भावना से यहां की पहचान अद्भुत हो गई है। इस विशेषता को परंपरा से जो चार कुंभ के स्थान कहे जाते हैं, वहां पर उतारने का प्रयास किया जाए । इसकी अनुकृति नासिक, प्रयाग, उज्जैन और हरिद्वार में भी होनी चाहिए, यह हमारी भावना है। हम सब भगवान राम के पावन सानिध्य में विराजमान हैं। भगवान सर्वरूप हैं, सर्वव्यापक हैं, सर्वांतर्यामी हैं सर्वातीत हैं। लेकिन शास्त्र रीति से हम उनको मूर्ति के रूप में भी प्रतिष्ठित करते हैं। मंत्रों के बल पर जो हमारे देवी देवताओं की प्रतिष्ठा होती है, उनमें भगवान का उज्जवल तेज प्रतिष्ठित होता है, उनकी पूजा से मनोरथ की सिद्धि होती है अत: हमें मूर्ति के रूप में भी भगवान का समादर करना ही चाहिए। जैसे अग्नि तत्व या तेज तत्व तो सर्वत्र विद्यमान है लेकिन जब तक हम घर्षण के द्वारा उसको व्यक्त नहीं करते, तब तक यज्ञ की सिद्धि नहीं होती। भोजन की सिद्धि नहीं होती, प्रकाश की प्राप्ति नहीं होती, उष्णता की प्राप्ति नहीं होती। अत: शास्त्र सम्मत रीति से जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई है, वहां भी भगवान को अवश्य देखना चाहिए। रामचरित मानस के आधार पर सूत्र रूप में हम छह संदेश देना चाहते हैं। शासन और सामाजिक तंत्र से संबद्ध जितने महानुभाव हैं, ध्यान से सुनें। भगवान राम के जीवन में शील और स्नेह की प्रतिष्ठा और पराकाष्ठा है। हमारे जीवन में, परिवार में, समाज में, छत्तीसगढ़ में, विश्व में शील और स्नेहपूर्ण वातावरण होना चाहिए। इसके बाद शुचिता और सुंदरता की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। शुचिता का मतलब है शुद्धता। जीवन में शुचिता हो, स्वच्छता हो, घर में शुचिता हो, स्वच्छता हो, सर्वत्र शुचिता का समादर होना चाहिए। सुंदरता का सन्निवेश होना चाहिए। संपत्ति और सुमति से व्यक्ति और समाज का जीवन युक्त होना चाहिए। और हर व्यक्ति सुरक्षित होना चाहिए। शासन तंत्र का पहला दायित्व है कि भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव, त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय और जो विवाह के लिए अधिकृत हैं उनको विवाह की समुचित सुविधा उपलब्ध हो। नागरिकों को सुबुद्ध बनाना, स्वावलंबी बनाना और सहिष्णु बनाना उसका कर्तव्य है। मैं भारत और नेपाल को राजनीति की परिभाषा देना चाहता हूं। इन दो प्रमुख हिंदू बहुल राष्ट्रों में राजनीति की परिभाषा क्या होनी चाहिए? अन्यों के हित का ध्यान रखते हुए हिंदुओं के अस्तित्व और आदर्श की रक्षा, देश की सुरक्षा और अखंडता। और जो राजनीतिक दल तथा राजनेता इस सिद्धांत में आस्था रखता हो, उसी का राजनीति में प्रवेश होना चाहिए। पूरे विश्व स्तर पर राजनीति की क्या परिभाषा होनी चाहिए? जहां परंपरा से जिस वर्ग की प्रमुखता हो, वहां अन्यों के हित का ध्यान रखते हुए उस वर्ग के अस्तित्व और आदर्श की रक्षा। देश की सुरक्षा और अखंडता। मनुस्मृति में राजनीति का पर्याय है राजधर्म। दंड नीति, अर्थशास्त्र। सनातन मान्यता के अनुसार सर्वे भवंतु सुखिन: की भावना को शासकीय विधा का आलंबन लेकर भूतल पर उतारने की प्रक्रिया का नाम राजनीति है। अराजक तत्वों की बपौती का नाम कहीं भी राजनीति नहीं है। शंकराचार्यों का, संतों का दायित्व यह देखना है कि राजनीति दिशाहीन न हो। राजनेता दिशाहीनता से बचें, धर्म नियंत्रित, शोषण विनिर्मुक्त, पक्षपातविहीन शासन तंत्र की स्थापना में सहभागिता का परिचय दें। राजनेताओं का अनुगमन करके उनके मिथ्या, अनर्गल प्रलाप का समर्थन करना संतों का दायित्व नहीं है। एक बात का संकेत करना चाहता हूं। किसी दल के किसी प्रधानमंत्री के शासनकाल में सात बरसों तक पंजाब उग्रवाद की आग में झुलसता था। उसी दल के एक प्रधानमंत्री के कार्यकाल में उग्रवाद का दमन कर दिया गया। मैं किसी का निंदक या प्रशंसक नहीं हूं। इस घटना के बाद मैंने शिक्षा ग्रहण की कि राजनेताओं की चाल से राजनीति में जो दिशाहीनता आती है उस पर पानी फेरने का काम भी राजनेता ही कर सकते हैं।

Thursday, January 28, 2010

आदिवासियों को नहीं मिलते औद्योगीकरण के लाभ


(पूर्व सांसद-केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम से हाल ही में यह लंबी चर्चा हुई। )


कांकेर से 30 किलोमीटर दूर जंगल के एक गांव में मेरा जन्म हुआ। ग्रैंड फादर ट्राइबल कम्युनिटी के चीफ थे। फादर तीन बार एमएलए रहे। मेरा परिवार राजनीति की बजाय सामाजिक कार्यकर्ता ज्यादा रहा है। हमें यह गुण विरासत में मिला। आज राजनीति में रहकर भी हम सामाजिक पहलू को हमेशा ध्यान में रखते हैं। मेरी प्राथमिक शिक्षा गांव में हुई। कांकेर में हाई स्कूल पढ़े। कालेज रायपुर से किया।


राजनीति विरासत में मिली

पारिवारिक वातावरण के कारण छात्र जीवन से ही राजनीति और सामाजिक कामों में रुचि लेने लगे। मध्यप्रदेश के जमाने में हम लोगों ने आदिवासी छात्रों का एक संगठन बनाया था। डा। भंवरसिंह पोर्ते, दिलीप सिंह भूरिया जैसे लोग उसमें थे। बाद में उसमें से कुछ लोग राजनीति में चले गए, कुछ प्रशासन में। यह हमारा पहला प्रयास था। इसके चलते प्रदेश में आदिवासियों का एक नेटवर्क तैयार हुआ। वरना ग्वालियर के आदिवासी का बस्तर के आदिवासी से कोई लेना देना नहीं होता था। बाद में हमें राजनीति में भी इसका लाभ मिला और सामाजिक कामों में भी। मध्यप्रदेश में आदिवासियों की एक राजनीतिक ताकत महसूस होती थी। उनका दबाव बनता था, असर दिखता था। छत्तीसगढ़ में उनकी बहुलता होते हुए भी यह बात नजर नहीं आती। अच्छे लोगों को बढ़ावा नहीं मिलता पहले देश और प्रदेश की राजनीति में लोग अच्छे लोगों को एनकरेज करते थे। वे चाहते थे कि आदिवासी समाज से भी अच्छे लोग सामने आएं। बाद में ऐसा लगने लगा कि कुछ दूरी तक तो जाने देंगे, उसके आगे जाने नहीं देंगे। ऐसा सभी पार्टियों में है। बलीराम कश्यप, नंदकुमार साय जैसे वरिष्ठ नेताओं को क्या मिला? क्या उन्हें देश और प्रदेश की राजनीति में पर्याप्त महत्व मिला? महेंद्र कर्मा नेता प्रतिपक्ष रहे, उसके बाद? इससे देश में मौजूद एक सोच का पता चलता है। मेरी यह धारणा है कि अब देश की राजनीति हो या ट्राइबल पॉलिटिक्स, उसमें अच्छे लोगों को पिक-अप नहीं करेंगे। ये तो पक्का है। उसका नतीजा ये होगा कि आदिवासियों का असर नहीं दिखेगा। हर समाज पर यह बात लागू होती है।


रिएक्शन तो होगा

कभी न कभी इसका रिएक्शन तो होगा। देखिए, पिछड़े वर्ग की राजनीति ने आज देश में जगह बना ली है। पहले ओबीसी को कौन पूछता था? आदिवासी समाज से भी प्रतिक्रिया आएगी। इसका स्वरूप क्या होगा मैं नहीं जानता। नई पीढ़ी पढ़ लिख कर आ रही है। शिक्षा के कारण उसमें और हमारी पीढ़ी में अंतर दिख रहा है। वह अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों को जानती है। संवैधानिक प्रावधानों की चर्चा करती है। वह पूछेगी कि ये प्रावधान लागू क्यों नहीं हो रहे। ये अन्याय क्यों हो रहा है। अगर राजनीति में लोगों की आज जैसी सोच रही तो हो सकता है आने वाले दिनों में लोग सामाजिक स्तर पर राजनीति करने लग जाएं। आदिवासी नेताओं के बारे में मुझे नहीं लगता कि दिल्ली भोपाल की राजनीति करने वालों ने अपनी जमीन ही छोड़ दी। मुझे एक भी उदाहरण दिखता नहीं। मैं दूसरों की नहीं कह सकता, अपने समाज की तो कह सकता हूं। हम लोगों ने जो राजनीति की, जमीनी ताकत की वजह से की।


संस्कृति को बचाना मुश्किल


यह बात सही है कि संस्कृति और रीति रिवाज को इंटैक्ट रखना बहुत मुश्किल हो रहा है। इसके कई कारण हैं। जैसे टीवी का असर। यह सारे देश में हो रहा है। ट्राइबल भी अछूता नहीं रह सकता क्योंकि अब गांव गांव टीवी हो गया है। आदिवसी समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम नई पीढ़ी को एजुकेट नहीं कर पा रहे हैं, सामाजिक तौर पर। हर समाज की अपनी मान्यताएं होती हैं, पूजा विधियां होती हैं। यह शिक्षा समाज की ओर से मिलनी चाहिए। यह व्यवस्था धीरे धीरे कमजोर होती जा रही है। मेरे जैसा पढ़ा लिखा आदमी यह महसूस करता है कि पढ़ लिख कर भी अपनी संस्कृति पर कायम रहा जा सकता है। हम भी पढ़े लिखे हैं पर अपनी संस्कृति के बारे में बहुत अडिग हैं। समझौता नहीं करते। चाहे पूजा पद्धति हो, शादी ब्याह हो, रीति रिवाज हो। पर आने वाली पीढ़ी यह नहीं करेगी। भले ही वह पढ़ी लिखी हो। हम से पहले वाली पीढ़ी में लोग निरक्षर रहे लेकिन अपने रीति रिवाजों पर डटे रहे। हमारी पीढ़ी में कुछ लोग डटे रहे कुछ हिले। नई पीढ़ी इतना भी नहीं करेगी। एंथ्रोपोलॉजी सब्जेक्ट दुनिया से धीरे धीरे खत्म हो जाएगा ऐसा लगता है।


विकास कैसा हो?

ट्राइबल कम्युनिटी का विकास कैसा हो, यह बहुत कठिन विषय है। इसके अलग अलग उत्तर मिलते हैं। एक उद्योगपति से पूछो तो वह कहेगा औद्योगीकरण से विकास होगा। एक सोशल एक्टिविस्ट से, एक पर्यावरणवादी से पूछोगे तो कहेगा नहीं भई, इससे नुकसान होगा। आप विकास को रोक नहीं सकते। उदारीकरण से यह हुआ है कि दुनिया का कोई भी इनवेस्टर इस देश में इनवेस्ट कर सकता है। लेकिन ये जो हैवी इनवेस्टमेंट है प्राइवेट सेक्टर में, यह गरीब आदमी का कभी खयाल नहीं रख सकता। यह बात दुनिया की हिस्ट्री में है। यह नफे का ही खयाल रखेगा, बाकी कुछ नहीं। औद्योगीकरण से कभी आदिवासी समाज को लाभ नहीं मिला। आप झारखंड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश में देख लीजिए। कितने आदिवासियों को नौकरी मिली? बैलाडीला के आसपास के गांवों को जितना मिलना था, नहीं मिला। इतने साल का मेरा राजनीतिक अनुभव कहता है कि आदिवासियों को औद्योगीकरण का लाभ नहीं मिलता, वह दूसरों को मिलता है। कारपोरेट सेक्टर की सोच से हम सरीखे आदमी को डर लगता है कि कहीं हम अपरूट न हो जाएं। ट्राइबल के बारे में लोगों की एक धारणा है कि अरे भई पैसा ले लो और कहीं भी बस जाओ। देखिए, इस जमीन पर हमारे बाप दादाओं की कब्र है, देवी देवताओं के स्थान हैं, खेत हैं। जमीन से जैसा मोह आदिवासी का होता है, दुनिया के किसी समाज में आप नहीं पाएंगे। इसलिए अपरूट होना, डिस्प्लेस होना सबसे तकलीफदेह बात होती है। सेंटीमेंट को, भावनाओं को इस देश में क्या, दुनिया में बहुत कम लोग समझते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है। इसलिए मैं बहुत ज्यादा इंडस्ट्रियलाइजेशन के पक्ष में नहीं हूं। इंडस्ट्रियलाइजेशन हो तो सेफगार्ड भी होनी चाहिए। आजादी के इतने साल बाद अब यह बात कानून में आई है कि विस्थापित होंगे तो पुनर्वास भी होगा। पहले ऐसा नहीं था।


नक्सलवाद का इलाज बंदूक नहीं

नक्सलवाद मेरे हिसाब से एक राजनीतिक मूवमेंट है। एक्सट्रीम लेफ्ट का मूवमेंट है। मैंने इस विषय पर बहुत किताबें पढ़ी हैं। पार्लियामेंट की लाइब्रेरी में और बाहर भी। इसका निचोड़ यह है कि जहां गरीबी, भुखमरी, बेकारी और शोषण हो वहां नक्सलवाद जरूर आएगा। आजादी के इन साठ बरस में देश के आदिवासी इलाकों के लिए कोई गंभीर नजर नहीं आया। मुझे इंदिराजी के साथ काम करने का मौका मिला। वे इन मामलों में थोड़ा टची थीं। राजीव जी को अधिक अवसर नहीं मिला। मैं लगातार प्रधानमंत्रियों से इस बारे में कहता रहा पर कोई गंभीर दिखा नहीं मुझे। नक्सलवाद का सबसे बड़ा कारण है शोषण। चाहे वह सरकारी अमले की तरफ से हो चाहे व्यापारियों की तरफ से। दोनों तरफ से शोषण होगा तो आखिर होगा क्या? आज भी बस्तर में चले जाइए, मुझे एक भी विभाग के बारे में बता दीजिए कि उसकी कुछ उपलब्धि है। ग्रामीण उसका फायदा उठा रहे हों। इतने साल बाद भी हम आधे से भी कम लोगों को शिक्षित कर पाए। दुनिया के कई देश, जिनमें अफ्रीका के देश भी शामिल हैं, हमसे बाद में आजाद हुए और शिक्षा के क्षेत्र में हमसे आगे निकल गए। शोषण का जो आलम है, उसमें नक्सलवाद का पैदा होना मुझे स्वाभाविक लगता है। नक्सलवाद कोई आज का थोड़े ही है। आजादी के पहले भी मूवमेंट रहा है, कम्युनिस्ट एक्स्ट्रीम लेफ्ट का। एक सवाल है कि बंगाल में नक्सलवाद क्यों नहीं रहा? अभी मैं ज्योति बाबू के बारे में पढ़ रहा था कि वे 27 साल चीफ मिनिस्टर रहे। उन्होंने गरीबों के लिए कुछ तो किया होगा? उन्होंने भूमि सुधार किया। बाकी राज्यों में यह क्यों नहीं हुआ? नक्सलियों की अपनी प्लानिंग होती है कि पांच साल में हमको क्या करना है, दस साल में क्या करना है, पंद्रह साल में क्या करना है। सत्तर के दशक तक वहां नक्सली नहीं थे। वे अपनी योजना के तहत वहां आए। उनको काउंटर करने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं रही। आने दो, आने दो, आने दो, देखेंगे, यह उनकी सोच रही। उस बादशाह का किस्सा सुना होगा आपने जो दुश्मन फौजों के आने की खबर सुनकर कहता रहा कि अभी दिल्ली दूर है। उसके हाथ से दिल्ली जाती रही। नक्सली कोई एक दिन में पैदा नहीं होते। सरकार को भी मालूम है कि उसे पैर जमाने में कम से कम पांच-दस साल लगते हैं। सरकार की ऐसी सोच बनी कि उसे कैसे काउंटर किया जाए? आप देखिए कि साठ साल में बस्तर पर कितना खर्च हुआ? आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 1933 के सेटलमेंट का रिकार्ड तो आपको मिल जाएगा लेकिन उसके बाद हुए दो सेटलमेंट का रिकार्ड नहीं है। राजस्व विभाग का यह बुनियादी काम है। यही काम नहीं किया तो आखिर काम क्या किया? पोतों के बीच बटवारा हो चुका है और जमीन दादा के नाम पर ही दर्ज है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में बुरा हाल है। पीने के पानी का बुरा हाल है। हम आधे लोगों को भी शिक्षित नहीं कर पाए। खेती में भी शहरों के आसपास तो आपको असर दिखेगा, लेकिन सरकार की योजनाएं अंदर के गांवों तक पहुंच नहीं पायीं। क्या पहुंचा है यह तो देखिए? यह अखबारों के लिए शोध का अच्छा विषय है। इन्हीं इलाकों में नक्सलवाद क्यों पैदा हुआ? उन्होंने जनता का विश्वास क्यों अर्जित कर लिया। हमें सोचना होगा कि क्या प्रशासनिक बदलाव किए जाएं। क्या प्राथमिकताएं रखी जाएं। लोगों को प्रशासन में कैसे शामिल करें, जैसा कि रियासत के समय होता था। ऐसी बहुत सी चीजें हैं। बंदूक इसका समाधान नहीं है। लोगों की जान-माल की रक्षा राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। उसके निर्वहन के लिए तो ठीक है लेकिन कोई कहे कि नक्सलवाद का समाधान बंदूक से हो सकता है तो मैं इससे सहमत नहीं हूं। आप दुनिया का इतिहास उठा कर देख लीजिए। किसी प्लानिंग प्रोसेस से, बातचीत से आप इस समस्या का समाधान निकाल सकते हैं। आदिवासी इलाकों की समस्याओं के बारे में राजनेताओं के पास वक्त नहीं है। जब वक्त नहीं है तो आप ध्यान भी नहीं देंगे। यह चिंता का विषय है। चिदंबरम जी के आने से थोड़ी सी उम्मीद जगी है, उन्होंने कहा है कि पुलिस कार्रवाई के साथ साथ विकास भी करेंगे। अभी यह कहीं पढऩे को नहीं मिला कि किस तरह का विकास करेंगे। कभी मुलाकात होगी तो पूछना पड़ेगा। अगर अभी तक जैसा होता आया कि करोड़ों खर्च करने के बाद भी रिजल्ट जीरो, तब तो कोई मतलब नहीं। सरकार में कोई भी रहा हो, चूक तो हुई है। वरना ये लोग इतना बढ़ते कैसे? आज भी कितने हथियार लगेंगे इसकी चर्चा हो रही है। विकास योजनाओं की चर्चा नहीं हो रही। हो भी रही तो पेपर पर। बस्तर में जंगल कम होते जा रहे हैं। वैसे अब जंगल इस देश में रह कहां गया? थोड़ा बहुत है। लेकिन जो रिकार्ड में है वह नहीं है। जंगल पर पापुलेशन का दबाव बहुत है। जंगल बचाना और पापुलेशन को भी फीड करना-ये बहुत टेढ़ी खीर होगी। या तो आप पापुलेशन की जरूरतें देख लीजिए या जंगल को बचा लीजिए। दोनों में से एक हो सकता है। आदिवासी को जमीन चाहिए। भारत सरकार ने पट्टा देने की जो बात कही है उसका कारण यही है।


अब मिल बैठ कर चर्चा नहीं होती

बारह तेरह साल तक हम पार्लियामेंटरी फोरम के अध्यक्ष रहे। एससी-एसटी का कंबाइंड होता था। अखिल भारतीय विकास परिषद से भी जुड़े रहे। इनमें बहुत से मुद्दों पर चर्चा करते थे, सरकार तक बातें पहुंचाते थे। नारायणन साहब के लिए हम लोगों ने आल पार्टी फोरम की ओर से मांग की कि हमें दलित-आदिवासी समाज से प्रेसिडेंटशिप चाहिए। सभी राजनीतिक दलों से बात की। सभी पार्टियों ने कहा- प्रेसिडेंट तो नहीं, हम आपको वाइस प्रेसिडेंट देंगे। तो हमें यह कामयाबी मिली। यह कोई छोटी मोटी घटना नहीं थी। हमने रिसेप्शन में नारायणन साहब से कहा- अब आपको प्रेसिडेंट बनने से कोई नहीं रोक सकता। पहले के सांसद पार्टी के ऊपर से उठकर गंभीरता से बात करते थे। मुद्दों पर हम अपनी आवाज बुलंद करते थे। अब वह बात नहीं दिखती। आदिवासी इलाकों के लिए अब कमिटेड ब्यूरोके्रट्स भी नहीं मिलते। पहले ब्रह्मदेव शर्मा, भूपिंदर सिंह, शंकरन जैसे अफसर होते थे जिन्होंने अपना जीवन इन इलाकों के लिए समर्पित कर दिया। अब ऐसे अफसर ढूंढे से नहीं मिलेंगे। राजनीति में भी यही हाल है। एक बड़ी समस्या यह है कि आदिवासी का विकास कैसा होना चाहिए, यह आदिवासी से कोई नहीं पूछता। पहले मुझको प्लानिंग कमीशन में बुलाते थे। चर्चा होती थी। पंचवर्षीय योजनाओं मेंं योजनाकार आदिवासी इलाकों के लिए बजट बढ़ाते थे और यह भी तय कर देते थे कि पैसे कहां कहां खर्च होंगे। आज भी योजनाएं आफिस के बाबू बनाते हैं। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ने चीफ सेक्रेटरी को लिखा, चीफ सेक्रेटरी ने कलेक्टर को भेज दिया, कलेक्टर ने ट्राइबल डिपार्टमेंट के डिप्टी डायरेक्टर को भेज दिया, उन्होंने बाबू को भेज दिया। बिलकुल यही होता है। यह विडंबना है।


परिवार के लोग अपने बूते पर आएंगे

हमारा परिवार सामाजिक कामों में ज्यादा रहा है। इसमें ऐसा है कि समाज से अंतिम सांस तक जुड़ाव रहता है। आप खाट पर भी पड़े हों तो लोग मिलने जुलने आते हैं और सामाजिक चर्चा हो जाती है। मैं देश भर के सामाजिक कार्यक्रमों में जाता रहता हूं और एक बात जरूर कहता हूं कि सरकारी नौकरियों के दरवाजे अब बंद हो रहे हैं। समाज में पढ़े लिखे बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है। बेरोजगारों की फौज खड़ी होती जा रही है। यह बड़ी समस्या है। पालक सोचते हैं कि बच्चा पढ़ लिख जाएगा तो तुरंत नौकरी मिल जाएगी। अब वह बात नहीं रही। यह संक्रमण काल है। समाज को इसे गंभीरता से लेना चाहिए। जब नौकरी ही नहीं रहेगी तो सरकार से क्या उम्मीद करें। इन दिनों ज्यादातर जगदलपुर में रहना होता है। सामाजिक कामों में रहते हैं। कुछ कांग्रेस पार्टी का काम भी कर लेते हैं। अब राहुल जी का जमाना है। वे युवा हैं, उनकी सोच आम राजनीतिज्ञों से हटकर है। वे बदलाव लाएंगे, इसमें दो मत नहीं। बदलाव होना भी चाहिए। हमारी नई पीढ़ी को राजनीति में लाने के बारे में लोग पूछते हैं। हम तो अपने परिवार के लोगों से कहते नहीं। रुचि होगी तो अपने बलबूते पर आएंगे।

Friday, January 22, 2010

हम भी तो अपनी बात लिखें अपने हाथ से

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी इन दिनों राजनीति को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश में लगे हैं। हर युवा की तरह देश और दुनिया को लेकर उनके पास साफ सुथरे सपने हैं। हालात में बदलाव लाने के लिए उनमें जरूरी ऊर्जा भी है और उम्र भी उनके साथ है। यह युवाओं के लिए एक अच्छा मौका है कि वे राजनीति में अपनी भूमिका के बारे में सोचें। उसमें बदलाव लाने के लिए अपना योगदान देने के बारे में विचार करें। वह बदलाव जिससे देश और समाज का भला होगा और अंतत: खुद युवाओं को भी रहने के लिए एक बेहतर दुनिया मिलेगी। वह दुनिया जिसमें उनकी प्रतिभा का सम्मान होगा, उनकी विशेषज्ञता का उपयोग होगा और उनके आगे बढऩे के रास्ते आसान होंगे। वंचित युवाओं को मार्गदर्शन मिलेगा, प्रशिक्षण मिलेगा और रोजगार भी। जिसमें आधी दुनिया की भागीदारी सुनिश्चित होगी जो अभी तक उपेक्षित है। जिस भागीदारी से राजनीति ममतामयी होगी, करुणामयी होगी, सुव्यवस्थित होगी। जिसे हम घर जैसा महसूस करेंगे। यह सब बातें करने के लिए राहुल गांधी एक बहाना हैं। ऐसी दुनिया का सपना हर युवा के मन में होता है। लेकिन इनमें से ज्यादातर लोग राजनीति से जुडऩे की बात भी नहीं सोचते। किसी जमाने में एक्टिंग से जुडऩा खराब माना जाता था। महिलाओं का पढऩा लिखना अच्छा नहीं माना जाता था। खेल कूद को भी खराब होने का रास्ता माना जाता था। क्या आज हम इन बातों को स्वीकार कर सकते हैं? इसी तरह राजनीति से जुडऩा भी आज की जरूरत है। इसे न हम अस्वीकार कर सकते हैं न नजरअंदाज। युवा पीढ़ी को यह समझना होगा कि वह लोकतंत्र में रह रही है। यहां हम ही सरकार हैं, हमें ही काम करना है, हमें ही अपनी तकदीर का फैसला करना है। और इसके लिए जाहिर है कि हमें ही जिम्मेदारियां उठानी होंगी। आज राजनीति में ऐसे बहुत से लोग सक्रिय हैं जो किसी विषय के विशेषज्ञ नहीं हैं। वे जिनके पास देश, समाज और दुनिया के लिए कोई सपना नहीं है, सिर्फ अपनी तरक्की की योजनाएं हैं। राजनीति में ऐसे लोगों की बहुतायत का ही नतीजा है कि हमें चलने के लिए खराब सड़कें मिलती हैं, सांस लेने के लिए प्रदूषित हवा। सरकारी दफ्तरों में रिश्वत ली जाती है और गलत लोगों को ठेके मिलते हैं। यह सब चलन इतना हावी है कि हममें से बहुतों को यह पता ही नहीं होता कि अच्छा काम होता क्या है? आज युवाओं की जो फौज राजनीति में सक्रिय है, उसमें से ज्यादातर युवाओं की पहचान किसी स्थापित नेता के पिछलग्गू की है। उनकी ऊर्जा इन नेताओं के पीछे घूमने, शक्ति प्रदर्शन करने और पुतले जलाने में खर्च हो रही है। ऐसे उदाहरण कम हैं कि इन युवाओं ने किसी एक गांव में जनकल्याण की सरकारी योजनाओं को ईमानदारी से लागू करवा कर दिखाया हो। वे खुद सोचें कि उनका जीवन किस तरह बीत रहा है? वे अपनी जिंदगी जी रहे हैं या किसी और की? एक और महत्वपूर्ण बात। अच्छे लोगों की परिभाषा क्या है? हममें से बहुत से लोग यह मानते हुए बड़े होते हैं कि अपने काम से काम रखना, किसी से विवाद न करना अच्छा होना है। इस परिभाषा की आड़ में हम आत्मकेंद्रित हो जाते हैं, अपनी जिम्मेदारियों से मुंह फेर कर निकल जाते हैं। अच्छा आदमी वह होता है जो जरूरतमंदों के काम आता है, अन्याय के खिलाफ खड़े होने का साहस रखता है। और इसके नतीजों का सामना करने का जिसमें धैर्य है। आज राजनीति में बहुत से ऐसे लोग हैं जो भ्रष्ट हैं लेकिन चुनाव जीतते हैं। इसकी वजह यह है कि तथाकथित अच्छे लोगों की तुलना में ये लोग जनता के लिए अधिक उपयोगी भी हैं। लोगों के काम के लिए वे नगर निगम के दफ्तर तक चले जाते हैं, मोहल्ले में सफाई कर्मी बुलवा देते हैं, किसी अस्पताल का बिल कम करवा देते हैं, पुलिस का कोई मामला हो तो वे पीडि़त के साथ खड़े नजर आते हैं। अनजान लोगों को भी वे सड़क से उठा कर अस्पताल पहुंचा देते हैं, जरूरत पडऩे पर खून भी दे देते हैं। जो लोग अपने को अच्छा मानते हैं वे ऐसे कितने काम करते हैं? कितनों के काम आते हैं? कितने लोग हैं जिनका साहस, जिनकी सेवा एनसीसी का सर्टिफिकेट मिलने के बाद भी जारी रहती है? अगर हममें ये गुण नहीं हैं, हम किसी के काम नहीं आते तो अपने को किस लिए सराहते हैं? किसी को बुरा कहकर किसलिए कोसते हैं? राहुल गांधी के बहाने से हमें राजनीति में अपनी भूमिका के बारे में विचार करना चाहिए। यह वक्त की जरूरत है और हमारी भी।

Sunday, January 17, 2010

हमने क्या दिया?

गणतंत्र दिवस के मौके पर हम अक्सर अपने गणतंत्र के बारे में सोच विचार करते हैं। हम अक्सर यह सोचते हैं कि इतने बरस बाद हमने अपनी गणतांत्रिक व्यवस्था से क्या पाया? और यह सोचते हुए हम अक्सर निराशा या फिर नाराजगी से भर जाते हैं।
हमारे आसपास निराश और नाराज करने की बहुत सी वजहें मौजूद हैं। लेकिन यह देखना होगा कि हमारी निराशा से क्या कोई समाधान निकलता है? हमारी नाराजगी क्या हमारी दुनिया को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाने में काम आ रही है?
अपने गणतंत्र से हमारी निराशा या नाराजगी अक्सर किसी काम की नहीं होती। उससे किसी का भला नहीं होता। खुद अपने को भी इससे कोई फायदा नहीं मिलता। अक्सर हम व्यवस्था में सुधार तो करना चाहते हैं लेकिन चाहते हैं कि सुधार का काम नगर निगम करे, पुलिस करे, राजनीतिक दल करें, सामाजिक संगठन करें। लेकिन बहुत से सुधार हैं जो हम खुद भी कर सकते हैं। अपने घर से इसकी शुरुआत कर सकते हैं। तेज आवाज में रेडियो न बजाएं। कचरा सड़क पर न फेंकें। कुछ पेड़ -पौधे लगाकर रखें। ेएक तर्क यह दिया जाता है कि हम ही क्यों करें? दूसरे लोग तो कुछ नहीं कर रहे। यह सिर्फ नीयत का सवाल है। अगर आप कुछ करना चाहें तो आपको अपने जैसे लोग मिलते जाएंगे। अगर आप मंदिर जा रहे हों तो आपको रास्ते में कुछ लोग मिल जाएंगे जो मंदिर जा रहे होंगे। अगर आप शराब खरीदने जा रहे हैं तो रास्ते में आपको दो चार लोग मिल ही जाएंगे जो शराब खरीदने जा रहे हों। एक तर्क अक्सर दिया जाता है कि इतनी बड़ी व्यवस्था को हम अकेले कैसे सुधार पाएंगे। व्यवस्था को सुधारने के लिए पहले खुद को सुधारना पड़ता है। जिस दिन हम खुद को बदलने लगेंगे हमारी यह धारणा बदल जाएगी कि देश के लिए एक भी आदमी नहीं सोचता। आपको पता होगा कि कम से कम एक आदमी तो सोचता है। और वो आप हैं।
गणतंत्र का अर्थ है जनता का शासन। जनता अपने काम करने के लिए प्रतिनिधि चुनती है। वे जनता के बीच से चुने जाते हैं। जनता के लिए काम करते हैं। हमने लंबे समय तक राजतंत्र को जिया है। सामंती व्यवस्था में जीते आए हैं। इसलिए हम अपने प्रतिनिधियों को राजा-महाराजाओं का दर्जा दे देते हैं। जब वे हमारा पैसा महंगी गाडिय़ों, अनावश्यक दौरों और अपने लाव लश्कर की जरूरतों पर खर्च करते हैं तो हम उनका विरोध नहीं करते, उन्हें फूलों के हार पहनाते हैं। हम भूल जाते हैं कि यह हमारी सरकार है, यह व्यक्ति हमारा काम करने के लिए चुना गया है, यह जो अपव्यय कर रहा है यह हमारा ही पैसा है। जिस दिन हम यह सोचने लग जाएंगे, हमारे गणतंत्र को मजबूती मिलने लगेगी।
हम ऐसी विसंगतियां अपने आसपास रोज देखते हैं, लेकिन उनमें सुधार के लिए कोई योगदान नहीं देते। अपने घर के आसपास कूड़ा हम ही फैलाते हैं और शहर की गंदगी के लिए म्यूनिसिपल को कोसते हैं। हम तेज आवाज में रेडियो और टीवी चलाते हैं और ध्वनि प्रदूषण पर चिंता करते हैं। हम अपनी बारात अधिक से अधिक सड़क घेर कर निकालना चाहते हैं और दूसरों की बारात निकलती है तो हमें बुरा लगता है। हमारे घर के नाबालिग बच्चे जानलेवा रफ्तार से गाडिय़ां चलाते हैं और जब ट्रैफिक पुलिस उन्हें पकड़ती है तो उन्हें छुड़वाने के लिए अपनी पहुंच का इस्तेमाल करते हैं। हम अपनी दूकान का सामान सड़क पर फैला देते हैं। हम कचहरी के क्लर्क को रिश्वत देकर अपना काम निकलवा लेते हैं और व्यवस्था को गालियां देते हुए वहां से निकलते हैं। हमारे कारखाने धुआं उगलते हैं और हम सरकारी अफसरों से सांठ गांठ कर ईएसपी बंद रखते हैं। हममें से ही कुछ लोग इसके खिलाफ आंदोलन करते हैं और फिर कुछ दिनों बाद रहस्यमय ढंग से खामोश हो जाते हैं।
हमारे आसपास झुग्गी बस्तियों में सैकड़ों बच्चे अशिक्षा के अंधकार में पूरा जीवन गुजार देते हैं। हम अपने ज्ञान का थोड़ा सा उजाला उन्हें देना नहीं चाहते। हम बाजार के कहने में आकर खुद को सजाने के लिए महंगे जूते कपड़े पहनते हैं और कामवालियों से, सब्जीवालियों से, रिक्शेवालों से दो रुपए के लिए मोलभाव करते हैं। सड़क पर ठेले वाले ब्लू फिल्मों की सीडी हमें ही बेचते हैं, हम ही जिस्म के बाजार को पालते हैं ।
और इसके बाद हम सवाल करते हैं कि लोकतंत्र ने हमें क्या दिया। हमें सवाल करना चाहिए कि हमने लोकतंत्र को क्या दिया। कितना समय इसे मजबूत करने में लगाया? इसके लिए कितना खून बहाया? कितने बच्चों को पढ़ाया? कितने लोगों को रोजगार से लगाया? कितने लोगों को बीमारी से बचाया?
हमारी लड़ाई के दो जरूरी मोर्चे हैं। एक तो बाहर की विसंगतियों से लड़ाई और दूसरे खुद के स्वार्थ, आलस्य और भय से। गणतंत्र दिवस के मौके पर बस इतना ही सोच लें और गर्व से कहें- जय हिंद।

(एक पत्रिका के लिए लिखा गया संपादकीय)