Monday, June 20, 2011

क्यों न दोजख को भी जन्नत में मिला लें या रब

बहुत दिनों से ये हेडिंग मेरे ब्लॉग पर लगी हुई है. मैं महंगे स्कूलों में गरीब बच्चों को पढ़ाने की नयी व्यवस्था पर लिखना चाहता था. लिख नहीं पाया. 

 बीच बीच में बहुत से और भी विषयों पर ये हेडिंग मौजूं लगती रही.  समाज के ठेकेदारों ने कई तरह की जन्नतें और दोजखे बना रखी हैं. इनसे होकर गुजरना होता रहता है.

 इस बार दोजख में कुछ ज्यादा ही समय हो गया. आज उपेक्षा से दुखी  मन के साथ ब्लॉग खोला तो फिर लगा कि रिपोर्टरों और डेस्क के उन साथियों के बारे में भी ये ही बात कही जा सकती है जो रिपोर्टिंग करना चाहते हैं लेकिन उनसे बड़े पद पा गए लोग उन्हें ऐसा करने नहीं देते. अपने न्यूज़ एडिटर से मैंने रिपोर्टिंग की इच्छा जाहिर की तो उसने कहा कि तुम तो अमुक से भी अच्छी रिपोर्टिंग कर लोगे. अमुक एक रिपोर्टर है जो मुझसे हेडिंग, इंट्रो और कभी कभी पूरी खबर लिखवाता रहा है.

मैं घटनाओं को देख समझ कर लिखना चाहता हूँ. दस तरह के लोगों से संपर्क करना चाहता हूँ. अपने व्यक्तित्व का विकास चाहता हूँ. संपादक का कहना है कि काम छीनकर लो. न्यूज़ एडिटर से मैंने कह दिया था कि कल से मुख्यमंत्री निवास में बैठना शुरू करता हूँ. उसे मिर्ची लग गयी. तभी उसने मेरी तुलना उस रिपोर्टर से की . भगवान ने मौका दिया तो इस बेइज्ज़ती का हिसाब ज़रूर चुकाना चाहूँगा. 

बहरहाल काश जन्नत और दोजख के बीच की दीवार गिरा दी जाये.

ये बात  रब से ही कहनी पड़ेगी.  जिनसे कहना है वे तो ताने मार रहे हैं.

कभी कभी लगता है कि हम लोग  किसी लाश को खाते जंगली जानवर हैं जो एक दूसरे को धकियाते घुड़कते हुए ज्यादा से ज्यादा खा लेना चाहते हैं. यहाँ आदर्शों के लिए जगह नहीं है. अलबत्ता पेट भरने के बाद अगर शेर चाहे तो वह इस बात पर भाषण दे सकता है कि इस जानवर को इस तरह मारना था कि इसे अधिक कष्ट न होता. 

मीडिया कंपनियां पैसे कमाने के लिए बनती हैं. उनका मकसद है किसी भी तरह पैसे कमाना. ये कंपनियां अपने कर्मचारियों से गुलामों की तरह  यह काम लेती हैं. उनके संपादक और दूसरे अधिकारी  इस मकसद के लिए काम करते हैं.. जो लोग इस विचारधारा से अलग कुछ सोचते हैं वे सिस्टम में अलग थलग पड़ जाते हैं. 

आप पूछ सकते हैं कि अलग सोचते हो तो यहाँ क्या कर रहे हो.  
सवाल तो सही है दोस्त. 
 कुछ तो ऐसा पाना चाहता हूँ जो यहाँ मिलता है.
 
 वह चीज तनख्वाह भी तो हो सकती है. और अपनी बात शेयर करना, पर्सनालिटी डेवल़पमेंट भी तो मकसद हो सकता है.

कम से कम  अपना घर जन्नत, दूसरे का दोजख, मैं ऐसा तो नहीं चाहूँगा.

1 comment:

sourabh sharma said...

निकष भैया, आपकी ब्लाग पर वापसी देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा, आप फेसबुक में सक्रिय हैं इसमें ज्यादा लोगों से संवाद होता है और हर प्रकार के लोगों से संवाद होता है लेकिन ब्लाग एक शाश्वत संवाद का माध्यम है जाने आने वाली कितनी सदियाँ इसके माध्यम से आपसे संवाद करेंगी और लोग कहेंगे कि एक जमाना था जब निकष परमार जैसा भी कोई हुआ करता था।