Sunday, December 20, 2009
किनारे बैठने से क्या होगा?
मोहब्बत को समझना है
तो खुद नासेह मोहब्बत कर
किनारे से कभी
अंदाजा ए तूफां नहीं होता
Thursday, December 17, 2009
मेरी बेटी, मेरा फख्र
चौथी पढ़ती थी सबा। हमेशा बोलती थी- मैं भी हॉकी खेलने जाऊंगी। तनवीर सर के पास नाम लिखाऊंगी। मोहल्ले के सारे बच्चे खेलने कूदने वाले थे। उनमें से कुछ हॉकी खेलने मैदान भी जाते थे। सबा के भाई भी जाते थे। वह उनके साथ मैदान चली जाती थी। उछल कूद करती रहती थी। लड़कियों के साथ नहीं खेलती थी। लड़कों के साथ खेलती थी। कंचे खेलना उसका शौक था। पतंग भी वह उड़ाती थी और कटी हुई पतंगें लूटती भी थी। हमारे घर में बच्चों को स्कूल न जाने के लिए कभी डांट नहीं पड़ी। खेलने न जाओ तो जरूर डांट पड़ती थी। ऐसे में सबा एक रोज स्कूल से देर से आई। मैंने पूछा तो उसने बताया- तनवीर सर के पास नाम लिखवाने गई थी। तनवीर सर हमारे घर के पास ही रहते हैं। वे बच्चों को सिखाते थे। सबा ने उनकी देखरेख में हॉकी खेलना शुरू किया। मैं तो समझती नहीं खेल के बारे में। सबा बताती है कि खेल में वह आज जो कुछ है, तनवीर सर की बदौलत है। तनवीर सर भी उसे बेटी जैसा प्यार करते हैं। एक कोच के लिए सारे खिलाड़ी बराबर होते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि उन्होंने मेरी बेटी पर ज्यादा ध्यान दिया। शायद उन्हें लगा हो कि यह लड़की आगे तक जा सकती है। हमारे लिए वे दिन बहुत गरीबी के थे। बच्चों के अब्बा मस्जिद में मुअज्जन थे। आठ सौ रुपया महीना पगार मिलती थी। घर के खर्चे चलाने के लिए मैं छोटे छोटे काम करती थी। नगर निगम में किसी का काम है तो मैं कुछ पैसे लेकर वह काम करवा आती थी। किसी के लिए कथरी सी देती थी। घर में पिपरमेंट-बिस्कुट की दुकान इनके अब्बा ने खोली थी। मैंने खुद बारह साल अंडे बेचे हैं। मगर इस मुफलिसी का अहसास हमने कभी अपने बच्चों को होने नहीं दिया। मैं उनसे कहती थी- तुम्हें क्या चाहिए बोलो। इसकी फिक्र मत करो कि अम्मी कहां से लाएगी। मेरे बच्चों को मुझ पर भरोसा भी बहुत था। इसी दौरान सबा को विदेश जाने का पहला मौका लगा। उसे हांगकांग जाना था। पासपोर्ट के लिए दो हजार रुपयों की जरूरत थी। वह बंैगलोर में थी। उसने मुझे खबर भेजी। और अपनी सहेलियों को बता दिया- मेरी अम्मी रुपयों का इंतजाम कर लेगी। मैंने घर के लिए राशन खरीद कर रखा था। उसे मोहल्ले में बेच दिया। अंडे बेच कर 4 हजार के बर्तन खरीदे थे, वे मैंने 17 सौ में बेच दिए। बड़ी बेटी को विदा करते वक्त इतना नहीं रोई होऊंगी जितना ये बर्तन बेचकर रोई। मोहल्ले वाले समझाते थे- सबा जीत कर लौटेगी, फिर बर्तनों की दुकान खोल लेना। बहरहाल, रुपयों का इंतजाम मैंने कर लिया। सबा को ये रुपए पहुंचाने उसका भाई भोपाल से आया और बैंगलोर तक गया। सबा की कोच को पता चला तो उसने मुझसे फोन पर कहा- आप बहुत अच्छी मम्मी हैं। सबा बहुत भरोसे से कहती थी कि मेरी मम्मी रुपयों का इंतजाम कर देंगी। गरीबी के उन दिनों में हम लोग उस खुराक का इंतजाम नहीं कर पाते थे जो एक खिलाड़ी के लिए जरूरी होती है। खेलकर आने के बाद सबा को खूब भूख लगती थी। मैं उसके लिए काली चाय बना देती थी। दूध तो नसीब नहीं था। कभी कभी शक्कर भी नहीं होती थी। सबा काली चाय के साथ रात का चावल खा लेती थी। यह खाना उसे आज भी पसंद है। आज भी कभी कभी मूड होने पर वह चाय चावल की फरमाइश करती है। सबा को लल्ला होटल की पोहा-जलेबी भी पसंद थी। यह होटल कसारीडीह में है। हमारे उन लोगों से घर जैसे संबंध हैं। घर की बुजुर्ग महिला को सबा नानी कहती थी। मुझसे दो रुपए लेती थी और होटल से एक रुपए का पोहा और एक रुपए की जलेबी ले आती थी। वही उसका नाश्ता होता था। विदेश घूमने के बाद भी वह लल्ला होटल को नहीं भूली। इंग्लैंड से खेलकर लौटी तो एक रोज उसे पोहा जलेबी की याद आई। वह सीधे होटल पहुंच गई। तब तक वह मशहूर हो चुकी थी। उसे देखने के लिए पूरा कसारीडीह इकट्ठा हो गया। नानी की आंखों से आंसू बहने लगे। उसने कहा- तुम बहुत बड़ी हो गई हो। मैंने सोचा था अब कभी हमारे होटल में नहीं आओगी।मेरी दिली तमन्ना थी कि सबा खेलने के लिए विदेश जाए। सबा ने पहली बार विदेश जाने से पहले मुझे फोन किया और कहा- अल्लाह का कितनी बार शुक्रिया अदा करूं कि उसने मेरी अम्मी की दुआ सुन ली। आज भी वह खेलने जाने से पहले मुझे फोन करती है। कहती है- तुमसे बात किए बगैर खेलने में मन नहीं लगता। खेलने के बाद भी बात करती है। कभी कभी थिएटर से फोन करती है कि फिल्म बोर है। अगर उसे पता लगा कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है तो दिन में दस बार फोन करती है। पूछती है दवा खाई कि नहीं। वह अब मुझे कहीं आने जाने नहीं देती। कहती है- बहुत हो गई भागदौड़। अब आराम करो। वह जहां जाती है, मेरे लिए कुछ न कुछ खरीद लाती है। साडिय़ां, पर्स, परफ्यूम। मंै कहती हूं- अब मेरे पहनने ओढऩे के दिन नहीं रहे। वह कहती है- जब दिन थे तब गरीबी थी। अब अल्लाह ने दिया है तो पहनना ओढऩा चाहिए। मैं कहती हूं- लोग क्या कहेंगे? वह कहती है- लोगों की परवाह मत करो। मेरे बच्चों ने दुनिया घूम ली और मैं डोंगरगढ़ के आगे नहीं जा पाई। मेरी नागपुर घूमने की बड़ी तमन्ना है। पोली कहती है कि नागपुर क्या, तुम्हें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, बाम्बे सब घुमाऊंगी। एक बार अपने साथ कोरबा ले गई थी। लॉज में रुकवाया जहां बड़े लोग रुकते हैं। मैंने पहली बार जाना कि लॉज किसे कहते हैं। मेरे पास एक सायकल है। मैंने उसे मुफलिसी के दिनों में चलाया है। वह मुझे बेहद पसंद है। दस कारें भी उसका मुकाबला नहीं कर सकतीं। पोली कहती है कि उसे म्यूजियम में रखवा देंगे। अब घर में एक नई दोपहिया है। एक रोज पोली का फोन आया- अम्मी, गाड़ी भूलकर भी मत चलाना। उसने कहीं कोई एक्सीडेंट देख लिया था। मुझसे बोली- कहीं तुम निबट गए तो मैं अनाथ हो जाऊंगी। वह मुझसे दोस्तों जैसी बात करती है। एक रोज उसने घर में गोभी का पुलाव बनाया। मुझसे पूछा- कैसा बना है। मैंने कहा- अपने हिसाब से अच्छा बना लिया तुमने। उसने कहा- सच सच बताओ, कैसा बना है? क्या कम है? मैंने कहा- नमक कम है और मिर्च कम है। उसने पूछा- और क्या कमी है? मैंने कहा- जले हुए जैसी गंध आ रही है। वह बोली- मैंने इतनी मेहनत से बनाया तुम तारीफ भी नहीं कर सकतीं? मैंने कहा- वही तो कर रही थी, तुमने सच पूछा तो बताना पड़ा। बाद में उसने एक रोज बांबे से फोन किया था- मैंने पुलाव बनाना सीख लिया है। अब जलाती नहीं हूं। उसे चावल का चीला बहुत पसंद है। आलू का पराठा भी। मिर्च मसाले वाली चीजों की भी फरमाइश करती है जो शायद उसे खेल के दौरान नहीं मिलतीं। हम लोग पचीस साल एक ही मकान में रहे। अब हमने एक बड़ा घर खरीद लिया है। सबा की जिद थी। हमारे परिचित का मकान था। उन्होंने पूछा तो सबा ने बताया- यह मकान मेरे अब्बा की तमन्ना और अम्मी की पसंद है। इन्होंने जीवन भर मुझे मेरी पसंद की चीजें दीं। अब मैं इनकी पसंद की चीज देना चाहती हूं। वह हमें इतना चाहती है। अल्लाह ऐसी औलाद हर मां बाप को दे।
निर्मल वर्मा को पढ़ते हुए
सुब्रत बसु को याद करते हुए
दिल की बात
राज्योत्सव की यादें
Wednesday, December 16, 2009
दशहरे की एक याद
अगले बरस तू जल्दी आ
कुछ बुद्धिजीवियों की
हाल ही में राजधानी में एक नाट्य महोत्सव संपन्न हुआ। राज्य के संस्कृति विभाग ने इसका आयोजन किया। इसमें मुम्बई, उज्जैन और कोलकाता के नाट्य दलों ने पांच नाटक पेश किए। बीच में एक दिन परिचर्चा का भी आयोजन किया गया। इस महोत्सव ने नगर के रंगकर्मियों, बुद्धिजीवियों और साहित्य-संस्कृति में रुचि रखने वाले लोगों को एक जगह एकत्र होने का एक अवसर दिया। नाटकों का जहां तक सवाल है मुम्बई की संस्था एकजुट के नाटक जस्मा ओडऩ और कोलकाता की संस्था रंगकर्मी की प्रस्तुति काशीनामा को छोड़कर शेष नाटक दर्शकों को बहुत पसंद नहीं आए। कम से कम तालियों के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है। हिंदी रंगमंच के विस्तार पर परिचर्चा के दौरान रंगकर्मी सुभाष मिश्र द्वारा उठाया गया यह मुद्दा इस संबंध में काबिले गौर है। उन्होंने इस बात पर अफसोस प्रकट किया कि जिस दौर में किसान कर्ज में डूबे हुए हैं, हम ऐतिहासिक नाटक खेल रहे हैं। ऐतिहासिक नाटकों का महत्व अपनी जगह है। लेकिन सवाल प्राथमिकताओं का है। अगर दर्शकों ने जस्मा ओडऩ नाटक को पसंद किया तो इसकी एक वजह थी उसकी कहानी जिसकी नायिका एक मेहनतकश मजदूरनी है जो पति के लिए राजा का प्रस्ताव ठुकरा देती है और सबके साथ रहने के लिए स्वर्गदूतों को लौटा देती है। छत्तीसगढ़ नया नया राज्य बना है। जनता चाहती है कि राजा को मिट्टïी खोदना आना चाहिए। वह मेहनत की रोटी खाना पसंद करती है। वह सबके साथ मिलकर रहना चाहती है। उसे दूसरा कोई स्वर्ग नहीं चाहिए। उस रोज लगा कि मंच पर जस्मा नहीं बोल रही, छत्तीसगढ़ की कोई मजदूरनी बोल रही है। कोई कामकाजी लड़की बोल रही है। हमारे आसपास रहने वाले किसी गरीब आदमी की मेहनतकश और स्वाभिमानी बेटी बोल रही है। हाल में देर तक बजी तालियों के पीछे नाटक के कथानक व उसके संवादों का बड़ा योगदान था। यह नाटक छत्तीसगढ़ की वर्तमान परिस्थितियों से संबंध रखता था। परिचर्चा में दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह उठा था कि नाट्य महोत्सव में प्रदेश के किसी नाटक को जगह नहीं दी गई। बात ठीक थी। यहां के नाटक प्रदेश के बाहर जाकर पुरस्कार जीत कर लाते हैं। और यहां बाहर के नाटक बुलवाए जा रहे हैं। ऐसा नहीं कि लोग प्रदेश के नाटक रोज रोज देखकर तृप्त हो गए हों इसलिए बाहर के नाटक बुलाए गए हों। नाटकों का मंचन यहां कभी कभार होता है। जैसा कि नाटककारों ने बताया यहां कोई ऐसा प्रेक्षागृह नहीं जिसे नाट्यकर्मी अपना कह सकें। जो प्रेक्षागृह हैं उनमें ईको की समस्या है। उनका किराया बहुत ज्यादा है। वे मंचन के एक दिन पहले रिहर्सल के लिए भी नहीं खोले जाते। उषा गांगुली अनुभवी नाट्यकर्मी हैं। उन्होंने बताया कि नाटकों और नाट्यकर्मियों की ये समस्याएं सारी दुनिया में तकरीबन एक सी हैं। मुझे हाल ही में देखी एक फिल्म का जिक्र करना प्रासंगिक लग रहा है। ब्राइड एंड प्रीज्यूडिस में गोआ के एक दृश्य में संवाद है कि भारत को देखने के लिए पैसा नहीं लगता और अगर आपके पास पैसा है तो आप भारत नहीं देख सकते। कवियों, लेखकों, नाटककारों के साथ भी शायद यही बात है। अगर वे सुविधाओं के बारे में सोचने लगें तो उनकी रचनात्मक स्वतंतत्रता पर इसका असर पड़ता है। हालांकि कुछ लोग दोनों को साध लेते हैं। कुछ समस्याएं कलाकारों और कलाकार बिरादरी की भी हैं। इनमें एकजुटता नहीं है। अलग अलग खेमे हैं। कुछ के अपने आर्थिक हित हैं। कुछ की राजनीतिक प्रतिबद्धताएं हैं। कुछ के व्यक्तिगत अहम हैं। नगर में एक थिएटर बन भी गया तो इस बात के लिए तनातनी होने लगेगी कि उस पर कब्जा किस खेमे का हो। उसमें किस विचारधारा के नाटक खेले जाएं किस विचारधारा के नहीं। कोई लाइब्रेरी खुल गई तो झगड़ा होगा कि कौन की किताबें मंगवाई जाएं इसका फैसला कौन करेगा। किससे मंगाई जाएं यह भी झगड़े का विषय होगा। एक बुजुर्ग रंगकर्मी ने यह बात उठाई कि समीक्षा का काम कम होता जा रहा है। जो लोग नाटकों पर लिख रहे हंैं वे नाटकों के बारे में जानते नहीं। वे समीक्षा नहीं रिपोर्टिंग करते हैं। मैं अच्छे समीक्षकों को नहीं जानता। लेकिन अखबारों में किताबों की समीक्षाएं पढ़कर मैंने इतना समझा है कि इन्हें न छापना ही ठीक है। समीक्षाएं उन किताबों की होती हैं जो सामान्यत: पाठकों तक कभी नहीं पहुंचतीं या पाठक उन तक कभी नहीं पहुंचता। लेखक किताब के बारे में कम, अपने बारे में ज्यादा लिख मारते हैं। वे समीक्षा किसके लिए लिख रहे हैं यह कई बार स्पष्टï नहीं हो पाता। इन्हें पढऩा अपना समय खराब करना है। अखबार ऐसी समीक्षाएं क्यों छापे। कोई छोटा दूकानदार भी किसी निठल्ले आदमी को अपनी दूकान पर क्यों बैठने देगा जिसे देखकर आता हुआ ग्राहक भी बीच रास्ते से लौट जाए? नाटकों की अच्छी समीक्षा कोई लिखे, आम पाठकों के बीच लोकप्रिय होने लायक लिखे तो कोई भी अखबार उसे छापना चाहेगा। एक वाक्य उषा गांगुली ने कहा- नाटक एक ऐसा माध्यम है जिसने अपने को पूरे का पूरा बाजार में नहीं ला खड़ा किया है। उन्होंने चाहे जिस अर्थ में यह बात कही हो लेकिन मेरा खयाल है नाटककारों को बाजार से मुंह नहीं चुराना चाहिए। उन्हें अपने को बाजार में लाकर खड़ा कर देना चाहिए। बाजार में स्पर्धा है। बाजार में अपना माल बेचने की गरज है। बाजार में रिस्पांस का पता चलता है। बाजार से नफरत करने के कारण ही ऐसे ऐसे नाटक मंचित हो जाते हैं जिनके खत्म होने का पता तब चलता है जब सारे कलाकार हाथ जोड़कर स्टेज पर आ खड़े होते हैं। एक तर्क बड़ा चला हुआ है कि दर्शक अश्लीलता देखना चाहते हैं। अगर यह सही होता तो भौंडी फिल्में सबसे ज्यादा कमाई करतीं। या कोई अश्लील फिल्म किसी थिएटर में लगातार चार साल चलती। अगर यह तर्क सही होता तो चरणदास चोर की लोकप्रियता के बारे में आप क्या तर्क देंगे? दर्शकों से भी एक बात कही जा सकती है कि उन्हें नाटककारों से संवाद स्थापित करना चाहिए। लोग तारीफ तो ुखुलकर करते हैं पर कमियों की चर्चा करने से हिचकते हैं। कुछ अरसा पहले शहर में हबीब तनवीर के कुछ नाटक खेले गए। एक नाटक के संवाद बड़ी तेजी से बोले जा रहे थे। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। कुछ देर तक मैं यह सोचकर बैठा रहा कि गलती मुझी में होगी। बाद में आसपास के कुछ लोगों ने एक दूसरे से खुसुर फुसुर की कि संवाद समझ में नहीं आ रहे हैं। पता नहीं हबीब जी से यह बात किसी ने कही कि नहीं। मुक्तिबोध की कविताओं पर आप किसी बुद्धिजीवी से चर्चा करें तो वे बहुत जल्दी बिगड़ जाते हैं। क्या आपको इन कविताओं का अर्थ समझ में आया, यह सवाल उन्हें बड़ा खराब लगता है। मेरे कुछ परिचितों को तो आश्चर्य हुआ कि मुक्तिबोध को लेकर कोई ऐसे सवाल उठा सकता है। हालांकि उन्होंने स्पष्टï किया कि जिन कविताओं को लेकर चर्चा चल रही है वे उनकी भी समझ में नहीं आईं।
(कुछ साल पहले लिखा गया लेख)
तस्लीमा नसरीन मेरे शहर में
तस्लीमा को यह देखकर दुख हुआ होगा कि उससे पूछने के लिए यहां सवाल भी नहीं हैं। प्लेटफार्म पर स्वागत के बाद उसे मीडिया ने घेर लिया। एक लंबा सा सवाल उससे किया गया जो इतना लंबा था कि उसका अनुवाद करने वाले को उसका सार निकालकर तस्लीमा को बताना पड़ा। तस्लीमा ने कुछ देर तक सोचा और जवाब दिया कि इतने गंभीर सवाल पर प्लेटफार्म पर चर्चा शायद नहीं हो पाएगी। इस पर बाद में चर्चा करेंगे। दूसरा सवाल था- आप रायपुर के बारे में कुछ बोल दीजिए। जवाब मिला- अभी तो आए हैं। पहले देख लें फिर बोलेंगे। वह कुछ आगे बढ़ी तो कुछ और पत्रकार उसके साथ हो लिए। उससे उसकी आत्मकथा को लेकर उठे विवाद के बारे में पूछा गया। वह हजार बार इस सवाल के जवाब दे चुकी होगी। उसकी भलमनसाहत कि उसने एक बार और इसे दोहरा दिया। अगला सवाल कट्टïरपंथियों के बारे में था। इसका जवाब वही था जो कट्टïरपंथ से पंगा लेने वाला कोई भी आदमी या कोई भी औरत दे सकती थी। तस्लीमा को शहर में सबसे ज्यादा सवालों की कमी खली होगी।
(तसलीमा नसरीन के रायपुर प्रवास की एक याद)
दोबारा मत पूछना
एक दोस्त से मुलाकात
वह दस नम्बर जर्सी की हक़दार है
मैं प्रेरणा मिश्रा के बारे में कुछ नहीं जानता था। लेकिन अब मैं उसे जानता हूं। और मुझे खुशी है कि मैं इसी शहर में रहता हूं जिसमें वह रहती है।
वह रायपुर की एक स्कूली लड़की है। वह एक बहुत अच्छी फुटबॉलर है।
रायपुर में और भी लड़कियां फुटबॉल खेलती होंगी। मैं उन्हें नहीं जानता। लेकिन उस रोज मैदान पर जितनी लड़कियां खेल रही थीं, उनमें वह सबसे तेज थी। सिर्फ लड़कियों में नहीं, लड़कों में भी मुझे उस जैसा कोई खिलाड़ी उस रोज नजर नहीं आया।
मौका था खेल विभाग के फुटबाल शिविर के समापन का। सप्रे मैदान में इस अवसर पर लड़के और लड़कियों के बीच मैच रखा गया था।
प्रेरणा को देखकर यह तो लगता था कि वह खेल सकती है लेकिन यह नहीं मालूम था कि वह इतना अच्छा खेलेगी। खेल शुरू हुआ तो वह मामूली लड़कियों की तरह खेलती दिखी। फिर जैसे जैसे खेल परवान चढ़ा, उसके भीतर की प्रतिभा दिखने लगी। उस रोज किसी और खिलाड़ी ने इतनी भागदौड़ नहीं की होगी जितनी उसने की। गेंद ज्यादातर लड़कियों के हाफ में दबी रही इसलिए मैं दावे से नहीं कह सकता कि वह बैक में खेल रही थी या हाफ की पोजीशन से, लेकिन उसने अपने हाफ में पूरा मैदान संभाल रखा था और गेंद लेकर विपक्षी के पाले में भी जा रही थी। बॉल छिनने के बाद विरोधी डिफेंडर से भिडऩा है कि तेजी से अपने हाफ में लौटना है, इसका जबरदस्त सेंस मैंने उसमें देखा। पहले हाफ में तो वह पहली ही बार में गेंद को क्लीयर करने की भूमिका अधिक निभाते दिखी लेकिन दूसरे हाफ में मैंने उसकी ड्रिब्लिंग और डॉजिंग देखी। अपनी टीम को गोल न कर पाते देख वह शायद फॉरवर्ड के रूप में टीम की मदद करना चाहती थी।
फुटबॉल में खिलाडिय़ों के बीच जबरदस्त टक्कर होती है। मुझे देखकर बहुत अच्छा लगा कि लड़कियां विपक्षी से टकराने में बिलकुल नहीं झिझक रही थीं। लड़कों ने भी जानबूझकर गिराने वाला खेल नहीं खेला। वहां बहुत सीरियस फुटबॉल हो रहा था। फुटबाल में कभी कभी गेंद को अपने कब्जे में करने या रखने के लिए विरोधी को कंधे से धकियाना भी पड़ता है। लड़कियों ने यहां भी हौसला दिखाया। उनकी टीम को कुछ अच्छे फॉरवर्ड मिल जाते तो नतीजा कुछ और होता। लड़कियां 3-0 से हारीं। लेकिन इस रिजल्ट से मैच की यह सच्चाई जाहिर नहीं होती कि लड़कों को इसके लिए कितना संघर्ष करना पड़ा। और इसीलिए गोल करने के बाद कैसे वे खुश हुए मानो विश्वकप में गोल मार लिया है।
वह एक यादगार शाम थी। उसमें मैंने लड़के लड़कियों की बराबरी की सुंदर मिसाल देखी। लड़कियों की ताकत का नमूना देखा। खेल मंत्री लता उसेंडी उस दौरान मौजूद थीं। वे खुद महिलाओं की ताकत की मिसाल हैं। हिंदी तो वे अच्छी बोल ही लेती हैं, अपने इलाके की बोली में वे और भी धाराप्रवाह बोलती हैं। डा. रमन सिंह की विकास यात्रा के दौरान कोंडागांव में मंच से उनका ओजस्वी भाषण सुनने को मिला था। राजधानी के लोगों को उन्हें उनके इलाके में सुनना चाहिए। लड़कियों की ताकत की एक और मिसाल फुटबॉल की कोच सरिता कुजूर हैं जिन्होंने प्रेरणा समेत दर्जनों लड़कियों को तैयार किया है।
धमतरी में मैंने कलात्मक खेल खेलने वाले खिलाडिय़ों को बरसों देखा है। रायपुर में वैसे खिलाड़ी मुझे देखने को नहीं मिले, शायद इसलिए कि खेल मैदानों पर मेरा जाना कम होता है। एक बार आरकेसी के बच्चों को ऐसा फुटबॉल खेलते देखा था और एक बार लाखे नगर में भिलाई की एक टीम को जिसमें ज्यादातर किशोर उम्र खिलाड़ी लगते थे। प्रेरणा के खेल में मुझे फिर वही ड्रिब्लिंग, पासिंग और मूव बनाने वाला खेल दिखा। तनाव के क्षणों में भी कूल होकर गेंद निकालने की मेहनत दिखी। स्टाइलिश और दमदार किक दिखी। प्रेरणा को उसके खेल के लिए बधाई, शुभकामनाएं और शुक्रिया। वह वाकई दस नंबर जर्सी की हकदार है।