Monday, June 20, 2011

क्यों न दोजख को भी जन्नत में मिला लें या रब

बहुत दिनों से ये हेडिंग मेरे ब्लॉग पर लगी हुई है. मैं महंगे स्कूलों में गरीब बच्चों को पढ़ाने की नयी व्यवस्था पर लिखना चाहता था. लिख नहीं पाया. 

 बीच बीच में बहुत से और भी विषयों पर ये हेडिंग मौजूं लगती रही.  समाज के ठेकेदारों ने कई तरह की जन्नतें और दोजखे बना रखी हैं. इनसे होकर गुजरना होता रहता है.

 इस बार दोजख में कुछ ज्यादा ही समय हो गया. आज उपेक्षा से दुखी  मन के साथ ब्लॉग खोला तो फिर लगा कि रिपोर्टरों और डेस्क के उन साथियों के बारे में भी ये ही बात कही जा सकती है जो रिपोर्टिंग करना चाहते हैं लेकिन उनसे बड़े पद पा गए लोग उन्हें ऐसा करने नहीं देते. अपने न्यूज़ एडिटर से मैंने रिपोर्टिंग की इच्छा जाहिर की तो उसने कहा कि तुम तो अमुक से भी अच्छी रिपोर्टिंग कर लोगे. अमुक एक रिपोर्टर है जो मुझसे हेडिंग, इंट्रो और कभी कभी पूरी खबर लिखवाता रहा है.

मैं घटनाओं को देख समझ कर लिखना चाहता हूँ. दस तरह के लोगों से संपर्क करना चाहता हूँ. अपने व्यक्तित्व का विकास चाहता हूँ. संपादक का कहना है कि काम छीनकर लो. न्यूज़ एडिटर से मैंने कह दिया था कि कल से मुख्यमंत्री निवास में बैठना शुरू करता हूँ. उसे मिर्ची लग गयी. तभी उसने मेरी तुलना उस रिपोर्टर से की . भगवान ने मौका दिया तो इस बेइज्ज़ती का हिसाब ज़रूर चुकाना चाहूँगा. 

बहरहाल काश जन्नत और दोजख के बीच की दीवार गिरा दी जाये.

ये बात  रब से ही कहनी पड़ेगी.  जिनसे कहना है वे तो ताने मार रहे हैं.

कभी कभी लगता है कि हम लोग  किसी लाश को खाते जंगली जानवर हैं जो एक दूसरे को धकियाते घुड़कते हुए ज्यादा से ज्यादा खा लेना चाहते हैं. यहाँ आदर्शों के लिए जगह नहीं है. अलबत्ता पेट भरने के बाद अगर शेर चाहे तो वह इस बात पर भाषण दे सकता है कि इस जानवर को इस तरह मारना था कि इसे अधिक कष्ट न होता. 

मीडिया कंपनियां पैसे कमाने के लिए बनती हैं. उनका मकसद है किसी भी तरह पैसे कमाना. ये कंपनियां अपने कर्मचारियों से गुलामों की तरह  यह काम लेती हैं. उनके संपादक और दूसरे अधिकारी  इस मकसद के लिए काम करते हैं.. जो लोग इस विचारधारा से अलग कुछ सोचते हैं वे सिस्टम में अलग थलग पड़ जाते हैं. 

आप पूछ सकते हैं कि अलग सोचते हो तो यहाँ क्या कर रहे हो.  
सवाल तो सही है दोस्त. 
 कुछ तो ऐसा पाना चाहता हूँ जो यहाँ मिलता है.
 
 वह चीज तनख्वाह भी तो हो सकती है. और अपनी बात शेयर करना, पर्सनालिटी डेवल़पमेंट भी तो मकसद हो सकता है.

कम से कम  अपना घर जन्नत, दूसरे का दोजख, मैं ऐसा तो नहीं चाहूँगा.

Sunday, June 6, 2010

एक महान नाटक की अकाल मौत

कल रात रंगमंदिर में हबीब तनवीर का नाटक चरणदास चोर खेला गया।
यह एक चोर की कहानी है जो अपने गुरु के आगे सच बोलने का संकल्प ले लेता है और इसे निभाते हुए उसकी जान चली जाती है।
इस कहानी में कई संदेश छिपे हैं। यह कि सच बोलने के साथ खतरे हमेशा जुड़े रहते हैं। सच बोलने वाला सत्ता की आंखों की किरकिरी बन जाता है। लेकिन वह जनता के दिलों में दर्ज हो जाता है। जनता उसे पसंद करती है जो उसके काम आता है।
महान साहित्य की यह पहचान होती है कि बदलता हुआ समय उसकी प्रासंगिकता को प्रभावित नहीं कर पाता। आज आप बस्तर में औद्योगीकरण से जुड़े सवाल उठाना चाहें तो आपको डर लगेगा कि कोई आपको नक्सली न कह दे। चरणदास चोर नाटक देखते हुए आपको लगेगा कि इसे आज सुबह ही किसी ने बस्तर के संदर्भ में लिखा है।
नाटक का एक प्रसंग है जिसमें चरणदास चोर धन की थैली चढ़ावे में चढ़ाता है। पुजारी उससे उसका नाम और पेशा पूछता है। जवाब मिलता है -नाम चरणदास और काम चोरी। पुजारी कहता है- तुम चोर नहीं हो सकते।
आज कितने नेताओं के बारे में जनता यह बात कह सकती है?
यह कथा समाज की छोटी बड़ी विसंगतियों को बहुत खूबी से उजागर करते चलती है। चरणदास का लालची गुरु, चोर को न पकड़ सकने वाला सिपाही, अमानत में खयानत करने वाला सरकारी कर्मचारी- ये सब ऐसे पात्र हैं जिन्हें हम अपने आसपास देख सकते हैं।

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लेकिन यह सब मैं अपने पिछले अनुभव के आधार पर बता रहा हूं। कल रात अगर मैंने इस नाटक को पहली बार देखा होता तो कुछ भी नहीं बता पाता।
यह एक महान नाटक की हत्या थी। मैं इससे कम कड़ी बात लिख सकता हूं लेकिन जानबूझकर कड़ी बात लिख रहा हूं।
मैंने इस नाटक को टेप रेकॉर्डर पर बचपन में करीब बीस बार सुना होगा। यह आज से तीस पैंतीस साल पहले की बात होगी। हमारे घर इसका एक आडियो टेप था। तब फिदाबाई जैसे कलाकार इसमें थे। हमारा पूरा परिवार इसे एक साथ बैठकर सुनता था। मुझे इस नाटक के संवाद लगभग याद हो गए थे। हम लोग धमतरी में रहते थे जो एक कस्बा था। हम बच्चों को गावों के सांस्कृतिक वैभव का बहुत पता नहीं था। लोक नाट्य की ताकत के बारे में जो जानकारी हमारे पास थी उसमें चरणदास चोर के आडियो कैसेट का महत्वपूर्ण स्थान था। धमतरी में एक बार इसका मंचन भी देखा था।
कल रंगमंदिर में जो नाटक खेला गया वह हबीब तनवीर की स्मृति में आयोजित एक समारोह का पहला नाटक था। अगर मैं चरणदास चोर की पिछली प्रस्तुति से इसकी तुलना न भी करूं तो भी यह निहायत घटिया प्रस्तुति थी। मुझे और मेरी पत्नी को इसका लगभग कोई संवाद समझ में नहीं आया।
यह नाटक खेलने वालों और आयोजकों, दोनों की गलती थी। क्या उनका कोई आदमी दर्शकों के बीच बैठकर इस बात की सूचना नहीं दे सकता था कि संवाद सुनाई नहीं दे रहे हैं? हबीब तनवीर के नाटकों का एक समारोह पहले भी यहां हो चुका है। उसमें खेले गए एक नाटक के साथ भी मेरा यही अनुभव रहा है।
कुछ हिंदी फिल्मों और अमिताभ बच्चन जैसे कुछ कलाकारों से मेरी शिकायत रही है कि उनके संवाद समझ मे नहीं आते। हाल ही में सरकार फिल्म का कुछ हिस्सा देखा। इसमें अमिताभ और अभिषेक ने मानो कसम खा रखी थी कि डायलाग समझ में नहीं आने देंगे।
कुछ रोज पहले टाकीज में मैंने वेक अप सिड देखी। क्या टेक्नोलॉजी थी पता नहीं लेकिन फिल्म का एक एक संवाद समझ में आया और पहली बार मैं टाकीज से इतना गदगद होकर निकला। इसी तरह रायपुर के मुक्ताकाशी मंच में पॉपकॉर्न नाम का नाटक देखा, इसका एक एक संवाद समझ में आया। यह शायद रेकॉर्डेड संवादों पर खेला गया नाटक था।
रंगमंदिर में कल रात जो हुआ उसमें कलाकारों की भी कमजोरी थी और साउंड सिस्टम एकदम फेल था। कुछ कलाकारों में पुराने कलाकारों जैसी गहराई भी नहीं थी, यह मैं टुकड़े टुकड़ों में समझ आ रहे संवादों से महसूस कर सकता था। पर यह तो बाद की बात है।

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जब आयोजक नाटक से बड़े हो जाते हैं तब ऐसा होता है जैसा कल हुआ। चरणदास चोर नाटक के स्टेज पर बैकग्राउंड में हबीब तनवीर स्मृति समारोह का बैनर लगा हु्आ था। चरणदास चोर नाटक के सेट पर इस बैनर का क्या काम?

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दर्शक दीर्घा में कुछ लोग अपने दूध पीते बच्चे लेकर आए थे। उनका अलग नाटक चल रहा था। लेकिन उन पर इतना गुस्सा नहीं आया। उनका बच्चा चुप भी हो जाता तब भी नाटक के संवाद समझ में नहीं आते।

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मैं बहुत संकोची आदमी हूं। और बहुत एडजस्टिव। समय से पहले हॉल में पहुँचता हूं। एक जगह बैठा तो बैठ गया। जगह तलाशने के लिए घूमता नहीं रहता। अपना मोबाइल बहुत पहले से बंद कर लेता हूं। नाटक देखने के दौरान बात नहीं करता। पत्नी से हर बार इसे लेकर विवाद होता है। बीच बीच में खाने पीने के बारे में तो सोच भी नहीं सकता। मगर कल पत्नी बीच में उठकर हाल से गई। पापकार्न लेकर लौटी। मैंने उससे बात की। पॉपकॉर्न भी खाए।

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नाटक खेलने वाले ग्रुप तक हो सके तो कोई मेरी बात पहुंचा दे। आयोजकों से कहना बेकार है। मेरा पिछला अनुभव उनके साथ ठीक नहीं है। वे लोग सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। क्योंकि मैं तो दर्शक हूँ। इसका किस्सा फिर कभी।

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Tuesday, June 1, 2010

इंस्पेक्टर कौन बनना चाहता है

हम लोग आज का काम खत्म करके सांस ले रहे थे। अचानक एक जूनियर सहयोगी ने कहा- एक बड़ी खबर है। अमुक आदमी की बेटी को एक लड़का भगा के ले गया।
व्यक्तिगत रूप से मुझे ऐसी भाषा पसंद नहीं है। ऐसी घटनाओं के बारे में चटखारे लेकर बात करना भी मुझे अच्छा नहीं लगता। क्योंकि बहनें और बेटियां सबकी होती हैं। मेरी भी हैं।
अखबार को चटपटा मसाला चाहिए होता है। ऐसी खबरें मिलने पर मैं अक्सर दुविधा में पड़ जाता हूं। उत्साही रिपोर्टरों से मैं पूछना चाहता हूं- तुम्हारी बहन होती तो खबर कैसी बनाते? खबर बनाते भी कि नहीं?
मगर मेरे मन पर एक और चोट होनी थी। जूनियर ने आगे कहा- रातो रात करोड़पति बन गया साला। उसकी आवाज में अफसोस था। वह अफसोस जो पड़ोसी की लाटरी लग जाने पर होता है।
मेरी चेतना झनझना गई। ये किस तरह की सोच है। ये कैसा रोजगार है। क्या इस नौजवान में जरा भी आत्मगौरव नहीं है? आत्मनिर्भर होने का भाव नहीं है? अपनी मेहनत की कमाई खाने का कोई आग्रह नहीं है?
मैंने उस लड़के से यह सब नहीं कहा। शायद वह मन ही मन कहता- आपने शायद यह मेहनत करके नहीं देखी। वरना फल खा रहे होते।
बहुत पहले वाली आसी का एक शेर सुना था-
किसी आवाज पर ठहरे तो हो जाओगे पत्थर के।कि इस जंगल में चारो ओर जादूगरनियां होंगी।।
मैं अपने सहयोगी से कहना चाहता था कि सट्टे और लाटरी की यह मानसिकता बदलो। मेहनत से कमाओ। सिर उठा के जियो।
फिर मुझे वह लतीफा याद आया- किसी इंस्पेक्टर ने हवलदार से कहा- इतनी मत पिया करो, अपना काम सुधारो तो एक दिन मेरी तरह इंस्पेक्टर बन जाओगे। हवलदार ने कहा- इंस्पेक्टर कौन बनना चाहता है। एक पैग पीने के बाद मैं खुद को आईजी से कम नहीं समझता।
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मैं भी लंगोटी पहन लूं?

छत्तीसगढ़ भाजपा के नए बनाए गए अध्यक्ष रामसेवक पैकरा हांगकांग गए हैं। उनके साथ संगठन महामंत्री रामप्रताप भी गए हैं। टीवी पर समाचार आया कि कुछ दूसरे नेता श्रीलंका जा रहे हैं। मुझे लगता है कि ये दोनों प्रवास छत्तीसगढ़ की प्राथमिकता में नहीं हैं।
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मेरे एक मित्र ने कुछ भाजपा नेताओं से बात की। इनमें से एक नाराज हो गए। उनका कहना था कि मीडिया को किसी के व्यक्तिगत जीवन में नहीं झांकना चाहिए। हर किसी को यात्रा पर जाने का हक है।
मेरा खयाल है कि सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों की कुछ जिम्मेदारियां होती हैं। अगर वह राजनेता है तो समाज को दिशा देता है। डरे हुए समाज को संबल देता है। दुखी समाज को सर टिकाने के लिए अपना कंधा देता है।
मुझे लग रहा है कि भाजपा अध्यक्ष मौज कर रहे हैं। राजनीतिक रिपोर्टिंग करने वाले मेरे मित्रों की राय है कि रामसेवक पैकरा एक डमी अध्यक्ष हैं। पर्दे के पीछे से कुछ प्रभावी नेता फैसले लेंगे। अध्यक्ष का काम होगा उन पर मुहर लगाना। नए अध्यक्ष के लिए ऐसा आदमी ढंूढा गया जिसके विद्रोह करने की संभावना कम से कम हो। इस मापदंड पर पैकरा सबसे काबिल पाए गए। उन्हें और काबिल बना कर रख देने के लिए हांगकांग ले जाया गया है।
अपनी अल्पज्ञता के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं लेकिन मुझे इन बातों पर विश्वास होता है। मुझे वास्तव में कोई वजह नजर नहीं आती जिसके लिए नए भाजपा अध्यक्ष को हांगकांग जाना चाहिए।
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भाजपा की संवेदनहीनता के कुछ उदाहरण मैं देख चुका हूं। जिस दिन बस्तर में नक्सली विस्फोट से सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए थे, भाजपा अपना स्थापना दिवस मना रही थी। एकात्म परिसर में शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने के बाद पार्टी के नेता पार्टी की राजनीतिक उपलब्धियों के बारे में पहले से सोचा गया भाषण दे रहे थे और कार्यकर्ता तालियां बजा रहे थे।
पार्टी के कुछ नेताओं से व्यक्तिगत बातचीत में मैं पाता हूं कि गरीबों और आम जनता के लिए उनके मन में बहुत हिकारत है। वे गरीबों को राशन की दुकान के आगे लाइन लगाए देखना चाहते हैं। उन्हें खुशी होगी अगर सारे वोटर शराब के आदी हो जाएं और मतदान से पहले वाली रात शराब बांटकर उनके वोट खरीद लिए जाएं। ये मेरा कुछ नेताओं के बारे में व्यक्तिगत अनुभव है। और कांग्रेस के कुछ नेताओं को भी मैंने इसी सोच का पाया। यह सत्ता का नशा होता है। आदमी को अपने सिवा कुछ दिखाई नहीं देता। उसकी फिलॉसफी बुश जैसी हो जाती है- या तो आप हमारे साथ हो या सद्दाम के साथ।
राजनीति के बारे में एक और खतरनाक बात का मैं जिक्र करना चाहूंगा। कुछ दिनों पहले मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह व छत्तीसगढ़ के मौजूदा मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर चला था। इससे यह बात सामने आई थी कि नक्सल इलाकों में नक्सलियों से सांठ गांठ कर चुनाव जीते जाते हैं।
तो राजनीति के इस दौर में किसी को भाजपा अध्यक्ष का हांगकांग जाना बुरा न लगे लेकिन मेरे जैसे कुछ लोगों को बुरा लगता है।
गांधी का फलसफा था-जब तक मेरे देश का एक भी आदमी लंगोटी पहनता है, मुझे उससे ज्यादा कपड़े पहनने का हक नहीं है। अभी के नेताओं का फलसफा है- तुम लंगोटी में रह गए हो तो क्या मैं भी लंगोटी पहन लूं?

Sunday, May 23, 2010

पुलिसवालों का स्टिंग

हरियाणा में पुलिस के आला अधिकारियों ने खुद पुलिस थानों के स्टिंग आपरेशन करवाए हैं। यह देखने के लिए कि पुलिसवाले जनता से कैसा व्यवहार करते हैं, उनकी एफआईआर लिखते हैं कि नहीं। जनता से अच्छा बर्ताव नहीं करने वालों को निलंबित किया गया है। बर्ताव अच्छा लेकिन एफआईआर न लिखने वालों को चेतावनी दी गई है। और दोनों काम पक्के से करने वालों को इनाम दिया गया है। ऐसा हर जगह करने की जरूरत है।
पुलिस थानों से जनता की आम शिकायत है कि वहां उनसे ढंग से बात नहीं की जाती, उनकी रिपोर्ट नहीं लिखी जाती, उनसे रिश्वत ली जाती है, पैसे लेकर अपराधियों को बचाया जाता है, बेगुनाहों को सजा दी जाती है। इसे सामने लाने के लिए और कार्रवाई का ठोस आधार बनाने के लिए स्टिंग की जरूरत है। आम पुलिसवालों की तो भाषा तक भ्रष्ट रहती है। इसकी वजहें गिनाई जाती हैं कि अपराधियों से निबटते निबटते उनकी जुबान और व्यवहार ऐसा हो जाता है। फिर काम का तनाव उन्हें चिड़चिड़ा बना देता है। लेकिन यह समस्या तो है। हो सकता है स्टिंग हो तो पुलिस वालों की बहुत सी खामियों के पीछे छिपे कारण सामने आएं, उनकी समस्याएं सामने आएं, उनका भी समाधान हो।
ऐसा और भी विभागों में है। ज्यादातर जगहों पर बैठे हुए लोग रिश्वत के बगैर काम करने के लिए तैयार नहीं हैं। हर आम आदमी किसी न किसी काम से लंबी और भ्रष्ट सरकारी प्रक्रिया से गुजरता है। यह अनुभव भयावह होता है। रिश्ते नाते, सामाजिकता, इंसानियत जैसी चीजों का यहां कोई काम नहीं। इंसान कैसे दूसरे इंसानों को लूटने खसोटने में लगा रहता है, यह इन दफ्तरों में साफ देखा जा सकता है। कुछ अच्छे लोग भी रहते हैं लेकिन वे दबे दबे रहते हैं।
तो इस स्टिंग की जरूरत समाज के सभी वर्गों के लिए है। राजनीति, मीडिया और धर्मगुरुओं तक, सभी का स्टिंग होना चाहिए। राजनीतिक नेतृत्व समाज की दशा और दिशा के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है क्योंकि उसके हाथ में ताकत होती है और देश को चलाने के नियम कायदे वही बनाता है। मीडिया पर जिम्मेदारी है कि वह इस पर नजर रखे। धर्मगुरुओं का भी लगभग यही काम है। और इन सभी वर्गों से शिकायतें आती रहती हैं कि इनमें से बहुतेरे अपनी जिम्मेदारियां ठीक तरह से नहीं निभा रहे हैं।
ये सब समाज के अंधेरे कोने हैं। इनमें झांकने की आम जनता की हिम्मत नहीं पड़ती। कौन पंगा ले इनसे। जब आडिट का डर नहीं रहता तो मनमानी होती है। यही समाज के ताकतवर तबकों के साथ हो रहा है। परदे के पीछे की कहानी परदे के सामने की कहानी से बहुत अलग होती है। धर्मगुरुओं के प्रवचन में कुछ और होता है आश्रमों में कुछ और। मीडिया की छवि ऐसी है कि उसका काम खबरों के जरिए विज्ञापनदाताओं का हित साधना और काले धंधे में अपना हिस्सा तय करवाना हो गया है। वह जनता को सच नहीं बताता। वह ऐसी सामग्री परोसता है जिसे विज्ञापनदाता परोसना चाहते हैं। वह अपराधियों के इंटरव्यू और सट्टे के नंबर तक छापने से नहीं चूकता।
वैसे स्टिंग आपरेशन एक फौरी जरूरत हो सकती है लेकिन यह एक सभ्य तरीका नहीं है। दफ्तरों में जगह जगह लगे सीसी कैमरे भी बताते हैं कि हम एक सभ्य समाज में नहीं रह रहे हैं। क्या किसी को देखे जाने के डर से ईमानदार होना चाहिए। क्या किसी को स्टिंग के डर से मीठी मीठी बातें करनी चाहिए? शातिर लोग तो कुछ दिनों बाद इसका भी तोड़ निकाल लेंगे। आदर्श स्थिति तो यह है कि लोग ईमानदार होने के फायदे देखकर ईमानदारी बरतें। अच्छे व्यवहार के महत्व को समझकर अच्छा व्यवहार करें।
मसलन छत्तीसगढ़ में पुलिस से कहा गया है कि वह खासतौर पर नक्सल प्रभावित इलाकों में जनता से अच्छा व्यवहार करे। जनता का विश्वास पाए बगैर नक्सलियों से नहीं लड़ा जा सकता। आखिर जनता को भी तो समझ में आना चाहिए कि ये लोग उनसे अच्छे हैं?

Tuesday, April 20, 2010

गाँधी का सपना था सुराज...

रायपुर. देश को स्वराज तो मिल गया, अब सुराज आना चाहिए. यह गाँधी जी का सपना था. डॉ. रमन सिंह की सरकार इसे साकार कर रही है. यह बात लोक निर्माण, स्कूल शिक्षा, पर्यटन और संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने आरंग ब्लोक के ग्राम बना में ग्राम सुराज अभियान के दौरान कही. उन्होंने यहाँ ७५ लाख रूपये के काम स्वीकृत किये और कहा- यही सुराज है. उन्होंने कहा कि मुख्यानंत्री के निर्देश पर सरकार खुद चलकर गाँव गाँव में जा रही है. जनता के सामने उसके काम की समीक्षा हो रही है. ग्रामीणों की ज़रूरतों के बारे में जानकारी ली जा रही है. आगे की योजनायें इसी के आधार पर बनेंगी.
१२ पंचायतों का पटवारीबाना में ग्रामीणों ने शिकायत की कि पटवारी गाँव में नहीं आता. पता चला कि उसके जिम्मे १२ पंचायतों का काम है. नाराज ग्रामीणों ने पटवारी को हटाने की मांग की. श्री अग्रवाल ने कहा कि जितना काम हो रहा है, पटवारी को हटाने पर उतना भी नहीं होगा. उन्होंने तहसीलदार से कहा कि इस विसंगति को शीघ्र दूर किया जाये. सरकार दो पंचायतो के पीछे एक पटवारी रखना चाहती है. अधिक से अधिक चार पंचायते हो सकती है. लेकिन एक के जिम्मे १२ पंचायतें देना गलत है.
स्वास्थ्य कार्यकर्ता रोज आयें. स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने बताया कि उसके जिम्मे बाना, बनरसी और गुमा का काम है. वह ८-१० दिन में यहाँ आता है. श्री अग्रवाल ने उसे रोज आने कहा.
सम्बन्ध ठीक होना चाहिए. आँगनबाड़ी कार्यकर्ता के खिलाफ भी ग्रामीणों की नाराजगी सामने आई. बताया गया कि आँगनबाड़ी से गरम खाना नहीं मिलता. श्री अग्रवाल ने कार्यकर्ता से कहा कि काम अगर हो रहा है तो वह दिखना भी चाहिए. आप गाँव के कुछ प्रमुख लोगों को बीच बीच me आँगनबाड़ी में बुलाइए. उन्हें खाना भी खिला दीजिये. इससे उनकी गलतफहमियां दूर हो जाएँगी.
इसी साल बनी टंकी लीकग्रामीणों ने बताया कि बनरसी में इसी साल बनी टंकी लीक हो रही है. श्री अग्रवाल ने इसे ठीक करने के निर्देश दिए. उन्हें बताया गया कि गलत काम करने वाले ठेकेदार को नोटिस दी गयी है.
७५ लाख की सौगातें. श्री अग्रवाल ने ग्रामीणों की मांग पर बनरसी में स्कूल आहाते के लिए २ लाख, गुमा प्राथमिक शाला में दो कमरों के लिए ६ लाख, बाना में आँगनबाड़ी भवन के लिए 3 लाख, बनरसी में राशन और पंचायत भवन के लिए ५ लाख, बाना में सड़क मुरमीकरण के लिए २ लाख, पचरी तालाब गहरीकरण के लिए ६ लाख, सोनाही डबरी तालाब गहरीकरण के लिए ५ लाख, सड़कों के लिए करीब १७ लाख, इस तरह कुल करीब ७५ लाख के कामो की घोषणा की.

Friday, April 16, 2010

हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते

जशपुर के सर्किट हाउस से
सुराज का काफिला जशपुर में दो अलग-अलग जगहों पर ठहरा है । कल सारा दिन तेज धूप में हुई सभाओं के बाद देर रात फुरसत मिली । सुबह देर तक सोने के बाद भी थकान उतर नहीं पाई है । आज यहां से सभाएं लेते हुए मंत्री जी का कारवां अम्बिकापुर तक जायेगा ।
मंत्रियों और उनके साथ चलने वालों के बारे में लोगो की आम धारणा है कि ये लोग भारी ऐशो-आराम के साथ चलते हैं, अच्छा खाते पीते हैं और आराम से सोते हैं । लेकिन बृजमोहन अग्रवाल के साथ चलने का अनुभव इससे एकदम अलग है ।
वे एक प्रभावशाली मंत्री हैं। यह प्रभाव उनके ज्ञान और अनुभव से उपजता है, इसके आगे काम न करने वाले अफसर परास्त हो जाते हैं । उनके साथ पैदल चलना भी कठिन है और उनके सवालों से बच पाना आसान नहीं । वे लगातार सवाल दागते हैं और आपका पूरा रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने आ जाता है । हर सभा में वे लगातार आधे-एक घंटे तक बुलंद आवाज में बोलते हैं । लोगों की फरियादें सुनते हैं । अफसरों से पूछकर उनका तत्काल समाधान करते हैं फिर धान का बोनस, खेती के औजार, नाव-जाल जैसी चीजें  बांटने का लम्बा सिलसिला चलता है । और यह सब 40 के ऊपर  के तापमान पर चलता रहता है । आखिरी सभा कभी रात 12 बजे होती है तो कभी रात दो बजे ।
अगर आप रिपोर्टिंग के लिए साथ चल रहें हैं तो एक दो सभाओं के बाद आपको ऊब होने लगती है और आप  बुरी तरह थक जाते हैं. लेकिन जिसके नेतृत्व में आप चल रहें हैं, वह थकने के लिए तैयार नहीं है । और हाँ , यह कोई बारात नहीं है । इसमें आपका स्वागत नहीं होता। बैठने के लिए कुर्सियां नहीं मिलतीं  और किसी ने पानी के लिए पूछ लिया तो आप इसे सौभाग्य मानियें । खाने की व्यवस्था जरूर होती है लेकिन खाने तक आप कब पहुंचेगें यह तय नहीं होता । इस यात्रा में शामिल लोगों के लिए यह कोई मनोरंजक सफर नहीं है । आपको टोलियां बनाकर हंसी ठ्टठा करने वाले नहीं मिलते । हर कोई बेहद चौकन्ना है कि साहब कब क्या पूछ लेंगे । चार दिनों की यात्रा का अनुभव कहता है कि दूर बैठकर सरकार की कमियां निकालना आसान है, सरकार चलाना आसान नहीं है ।

साहब डांटते हैं, सस्पेण्ड नहीं करते -
मंत्री जी के साथ ऐसी कई यात्राओं में रह चुके लोग अपने अनुभव बांट रहें हैं । इससे उनकी अलग-अलग खूबियों का पता चल रहा है । लोग बताते हैं कि किसी से एक बार मिलने के बाद अगली मुलाकात दो साल बाद भी हो तो इस बात की संभावना रहती है कि वह उसे नाम लेकर बुलाएं । उनकी याददाश्त बहुत तेज है । यह बात तो उन्हें मंच से सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के बारे में बताते हुए देखकर भी पता चलती है । उन्हें लगभग सभी योजनाओं के नाम याद हैं और उनके   प्रावधान भी । उनकी  एक और खूबी का पता चल रहा है कि उनकी  बेहद सख्त मिजाज छवि के भीतर एक धड़कता हुआ दिल भी है और एक दूर तक देखने वाला राजनेता है  जो विनाश में नहीं निर्माण में विश्वास रखता है । लोग बताते है कि काम में कोताही पर वे नाराज होते हैं, जान बूझकर की गयी गलतियों पर डांटते हैं, जो अपनी गलती मानता है उसे सुधरने का मौका देते हैं, सुधरने के रास्ते बताते हैं और अक्सर सस्पेंड  करने की धमकी तो देते हैं, पर सस्पेण्ड नहीं करते । सख्ती वे उन लोगों पर करते हैं जो गलती करके भी अपने को चालाक समझते हैं ।

छत्तीसगढ़ की खूबसूरती का जवाब नहीं -
इस लम्बी यात्रा के दौरान छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विविधता और नैसर्गिक सुंदरता के दर्शन हो रहें हैं । कल रायगढ़ से निकलने के बाद काफिला बेहत खूबसूरत जंगल से होकर गुजरा । पतझड़ से सूने हो चुके पेड़ों में लाल हरी कोपले आ रहीं हैं । नीचे गिरे सूखे पत्तों को जलाया गया है और जंगल की धरती काली हो चुकी है । इस काली पृष्ठभूमि में पत्तियों और फूलों के रंग बहुत आकर्षक लगते हैं । तरह-तरह के पक्षी भी देखने में आ रहे हैं ।
मन कर रहा है खूब सारा समय लेकर यहां लौटूं  । जी भर कर तसवीरें उतारूं । लोगो से मिलूं-जुलूं । उनके बारे  में जानूं । फिर अज्ञेय की कविता भी याद आ रही है - अरे यायावर, रहेगा याद ?